मुम्बई में स्थापित एसएनडीटी महिला विश्वविद्यालय भारत का प्रथम महिला विश्वविध्यालय है, जो कि महर्षि डॉ. धोंडो केशव कर्वे द्वारा स्थापित है। उन्होने महिला शिक्षा और विधवा विवाह मे महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है, उन्होने अपना सारा जीवन महिला उत्थान को समर्पित कर दिया।आईए आज १८ अप्रैल को महर्षि के जन्मदिवस के शुभ अवसर पर हम उनके जीवन के कुछ महत्वपूर्ण पलों को याद करते हैं…
प्रसिद्ध समाज सुधारक एवं भारत रत्न से सम्मनित महर्षि डॉ. धोंडो केशव कर्वे का जन्म १८ अप्रैल, १८५८ को महाराष्ट्र के मुरुड नामक कस्बे (शेरावाली, जिला रत्नागिरी), मे एक गरीब परिवार में हुआ था। उनके पिताजी का नाम श्री केशवपंत एवं माताजी का नाम लक्ष्मीबाई था। महर्षि की आरंभिक शिक्षा मुरुड में हुई थी उसके बाद सतारा में दो ढाई वर्ष अध्ययन पश्चात मुंबई के राबर्ट मनी स्कूल में दाखिल हुए। उन्होंने मुंबई विश्वविद्यालय से गणित विषय लेकर बीए की परीक्षा उत्तीर्ण कर एलफिंस्टन स्कूल में अध्यापक हो गए। गोपालकृष्णन गोखले के निमंत्रण पर वर्ष १८९१ में वे पूना के प्रख्यात फ़र्ग्युसन कालेज में प्राध्यापक बन गए। जहाँ लगातार २३ वर्षों तक सेवा करने के उपरांत उन्होंने अवकाश ग्रहण ले लिया।
भारत में हिंदू विधवाओं की दयनीय और शोचनीय दशा को देखकर महर्षि कर्वे, मुंबई में पढ़ते समय ही, विधवा विवाह के समर्थक बन गए थे। उनकी पत्नी का देहांत भी उनके मुंबई प्रवास के मध्य ही हो चुका था। अत: ११ मार्च, १८९३ को उन्होंने गोड़बाई नामक विधवा से विवाह कर, विधवा विवाह संबंधी प्रतिबंध को चुनौती दी। इसके लिए उन्हें घोर कष्ट सहन करने पड़े। मुरुड में उन्हें समाज से निकाल दिया गया। उनके परिवार पर भी प्रतिबंध लगा दिए गए। महर्षि ने विधवा विवाह संघ की स्थापना की। परंतु शीघ्र ही उन्हें पता लग गया कि इक्के-दुक्के विधवा विवाह करवाने से अथवा विधवा विवाह का प्रचार करने से विधवाओं की समस्या हल होने वाली नहीं है। उससे कहीं अधिक आवश्यकता इस बात कि है की विधवाओं को शिक्षित करके उन्हें अपने पैरों पर खड़ा किया जाए ताकि वे सम्मानपूर्ण जीवन जी सकें। अत: १८९६ में उन्होंने अनाथ बालिकाश्रम एसोसिएशन बनाया और पूना के पास हिंगणे नामक स्थान में एक छोटा सा मकान बनाकर अनाथ बालिकाश्रम की स्थापना कर डाली। ४ मार्च, १९०७ को उन्होंने महिला विद्यालय की स्थापना की जिसका अपना भवन १९११ तक बनकर तैयार हो गया।
काशी के बाबू शिवप्रसाद गुप्त जापान गए थे और वहाँ के महिला विश्वविद्यालय से बहुत प्रभावित हुए थे। जापान से लौटने पर गुप्त जी ने महिला विश्वविद्यालय से संबंधित एक पुस्तिका महर्षि कर्वे को भेजी। उसी वर्ष दिसंबर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का बंबई में अधिवेशन हुआ। कांग्रेस अधिवेशन के साथ ही नैशनल सोशल कानफ़रेंस का अधिवेशन होना था जिसके अध्यक्ष महर्षि कर्वे चुने गए। गुप्त जी द्वारा प्रेषित पुस्तिका से प्रेरणा पाकर महर्षि कर्वे ने अपने अध्यक्षीय भाषण का मुख्य विषय महाराष्ट्र में महिला विश्वविद्यालय को बनाया। महात्मा गांधी ने भी महिला विश्वविद्यालय की स्थापना और मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने के विचार का स्वागत किया। फलस्वरूप वर्ष १९१६ में, महर्षि कर्वे के अथक प्रयासों से, पूना में महिला विश्वविद्यालय की नींव पड़ी, जिसका पहला कालेज महिला पाठशाला के नाम से १६ जुलाई, १९१६ को खुला। महर्षि कर्वे इस पाठशाला के प्रथम प्रधानाध्यापक नियुक्त हुए, परंतु धन की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए उन्होंने अपना पद त्याग दिया और धनसंग्रह हेतू निकल पड़े। चार वर्ष में ही सारे खर्च निकालकर उन्होंने विश्वविद्यालय के कोष में दो लाख सोलह हजार रुपए से अधिक धनराशि जमा कर ली। उस समय के अनुसार यह रकम बहुत बड़ी थी। इसी बीच बंबई के प्रसिद्ध उद्योगपति सर विठ्ठलदास दामोदर ठाकरसी ने इस विश्वविद्यालय को १५ लाख रुपए दान दिए। अत: विश्वविध्यालयका नाम श्री ठाकरसी की माताजी के नाम पर श्रीमती नत्थीबाई दामोदर ठाकरसी (एसएनडीटी) विश्वविद्यालय रख दिया गया और कुछ वर्ष बाद इसे पूना से मुंबई स्थानांतरित कर दिया गया। ७० वर्ष की आयु में महर्षि कर्वे उक्त विश्वविद्यालय के लिए धनसंग्रह करने यूरोप, अमरीका और अफ्रीका तक गए।
वर्ष१९३६ में गांवों में शिक्षा के प्रचार के लिए महर्षि कर्वे ने महाराष्ट्र ग्राम प्राथमिक शिक्षा समिति की स्थापना की, जिसने धीरे-धीरे विभिन्न गाँवों में ४० प्राथमिक विद्यालय खोले। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत यह कार्य राज्य सरकार के अधीन आ गया।
महर्षि कर्वे ने मराठी में आत्मचरित नामक पुस्तक की रचना की है, जिसमे उन्होने अपने जीवनयात्रा को सिलसिलेवार ढंग से लिखा है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय ने उन्हें डीलिट्. की उपाधि प्रदान की है। तत्पश्चात उनके अपने महिला विश्वविद्यालय ने उन्हें एलएलडी की उपाधि प्रदान की है। भारत सरकार ने उन्हें पद्म विभूषण से अलंकृत किया और १०० वर्ष की आयु पूरी हो जाने पर, मुंबई विश्वविद्यालय ने उन्हें एलएलडी की मानद उपाधि से सम्मानित किया। वर्ष १९५८ में भारत के राष्ट्रपति ने उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान भारतरत्न से विभूषित किया। भारत सरकार के डाक तार विभाग ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट निकालकर इनके प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट की है।