November 22, 2024

१८५७ की क्रांति, ब्रिटिश शासन के विरुद्ध भारतीयों द्वारा किया गया प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम था, जिसे अंग्रेजी सरकार एवं उसके चाटुकार इतिहासकारों ने सिपाही विद्रोह और भारतीय विद्रोह का नाम दे दिया। यह क्रांति भारत के विभिन्न क्षेत्रों में दो वर्षों तक चलती रही फिर इसे अंग्रेजों दबा दिया गया। इस क्रांति की शुरुआत छावनी क्षेत्रों में छोटी झड़पों तथा आगजनी से हुई थी।परन्तु जनवरी १८५७ तक इसने एक बड़ा रूप ले लिया। अगर इसे मान लिया जाए तो इसका अन्त भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन की समाप्ति के साथ हुआ और पूरे भारत पर ब्रिटिश शासन आरम्भ हो गया जो अगले ९० वर्षों तक चलाता रहा… आज हम बात करने जा रहे हैं १८५७ के एक ऐसे योद्धा की जो जब तक जीता रहा वो तब तक जीतता ही रहा। उसने कभी भी अंग्रेजों के सामने तलवार नहीं रखी।

हम बात करने जा रहे हैं आज ही के दिन यानी २३ अप्रैल को जन्में बाबू कुंवर सिंह जी के बारे में, जो १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सिपाही और महानायक थे। अन्याय विरोधी व स्वतंत्रता प्रेमी बाबू कुंवर सिंह कुशल सेना नायक भी थे। इनको ८० वर्ष की उम्र में लड़कर विजय हासिल करने के लिए जाना जाता है। वीर कुंवर सिंह जी का जन्म २३ अप्रैल १७७७ को बिहार के भोजपुर जिले के जगदीशपुर गांव में हुआ था। इनके पिता बाबू साहबजादा सिंह प्रसिद्ध शासक भोज के वंशजों में से थे। उनकी माता जी का नाम पंचरतना कुंवर था। उनके छोटे भाईयों में अमर सिंह, दयालु सिंह और राजपति सिंह थे।

मंगल पांडे की बहादुरी ने सारे देश में विप्लव मचा दिया। बिहार की दानापुर रेजिमेंट, बंगाल के बैरकपुर और रामगढ़ के सिपाहियों ने बगावत कर दी। मेरठ, कानपुर, लखनऊ, इलाहाबाद, झांसी और दिल्ली में भी आग भड़क उठी। ऐसे हालात में बाबू कुंवर सिंह कहा पीछे रहने वाले थे उन्होनेे भारतीय सैनिकों का नेतृत्व किया।

२७ अप्रैल १८५७ को दानापुर के सिपाहियों, भोजपुरी जवानों और अन्य साथियों को साथ लेकर आरा नगर पर बाबू वीर कुंवर सिंह ने कब्जा कर लिया। अंग्रेजों की लाख कोशिशों के बाद भी भोजपुर लंबे समय तक स्वतंत्र रहा। जब अंग्रेजी फौज ने आरा पर हमला करने की कोशिश की तो बीबीगंज और बिहिया के जंगलों में घमासान युद्ध छिड़ गई। इधर बहादुर स्वतंत्रता सेनानी जगदीशपुर की ओर बढ़ गए, उधर आरा पर फिर से कब्जा जमा लिया। कब्जा जमाने के बाद अंग्रेजों ने जगदीशपुर पर भी आक्रमण कर दिया। जिसके कारण बाबू कुंवर सिंह और अमर सिंह को जन्म भूमि छोड़नी पड़ी। अमर सिंह अंग्रेजों से छापामार लड़ाई लड़ते रहे और बाबू कुंवर सिंह रामगढ़ के बहादुर सिपाहियों के साथ बांदा, रीवां, आजमगढ़, बनारस, बलिया, गाजीपुर एवं गोरखपुर में विप्लव के नगाड़े बजाते रहे। ब्रिटिश इतिहासकार होम्स ने उनके बारे में लिखा है, “उस बूढ़े राजपूत ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध अद्भुत वीरता और आन-बान के साथ लड़ाई लड़ी। यह गनीमत थी कि युद्ध के समय कुंवर सिंह की उम्र अस्सी के करीब थी। अगर वह जवान होते तो शायद अंग्रेजों को १८५७ में ही भारत छोड़ना पड़ता।”

आप को यह बात जानकर बेहद आश्चर्य होगा की इन्होंने अपने जन्मदिवस के शुभ अवसर पर यानी २३ अप्रैल, १८५८ को जगदीशपुर के पास अपनी अंतिम लड़ाई लड़ी। ईस्ट इंडिया कंपनी के भाड़े के सैनिकों को इस बूढ़े शेर ने पूरी तरह से खदेड़ दिया, मगर उस दिन वे बुरी तरह घायल हो गए। घायल होने पर भी बाबूजी ने जगदीशपुर किले से गोरो का यूनियन जैक नाम का झंडा उतार कर ही दम लिया। विजय उपरांत अपने किले में लौटने के बाद २६ अप्रैल, १८५८ को अनंत सफर को पाने को निकल पड़े।

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