November 21, 2024

कल मैने एक फिल्म देखी, जिसका नाम था…

एक रूका हुआ फ़ैसला जो १९८६ की बॉलीवुड कोर्ट रूम ड्रामा फ़िल्म है, जिसका निर्देशन बासु चटर्जी ने किया है। कहानी की शुरुआत एक अदालत द्वारा निश्चित किए गए कमरे में होती है। शहर के झुग्गी झोपड़ी के रहने वाले एक किशोर लड़के ने अपने पिता की चाकू मारकर हत्या कर दी है। अदालत में अंतिम समापन तर्क प्रस्तुत किए गए हैं, और जज तब निर्णायक मंडल को यह तय करने का निर्देश देती है कि क्या लड़का हत्या का दोषी है। मण्डल के फैसले से य़ा तो वह बाइज्जत बरी हो जाएगा अथवा अनिवार्य मौत की सजा पाएगा। जूरी चर्चा कक्ष के अंदर, यह तुरंत स्पष्ट हो जाता है कि जूरी नंबर ८ (केके रैना) ही के एकमात्र अपवाद हैं, बाकी सभी जूरी ने पहले ही तय कर लिया है कि लड़का दोषी है। चर्चा के लिए समय न लेते हुए वे सभी बड़ी जल्दी में रहते हैं। उन्होने अपने तय मानसिकता के अनुसार, बिना किसी चर्चा के ही मुल्जिम को मुजरिम घोषित कर देते हैं।

एक निर्णायक फैसले तक पहुंचने में जूरी को कितनी कठिनाई का सामना करना पड़ता है, यही फिल्म के पूरे हिस्से में है। इस फिल्म ने यह साफ कर दिया है की किसी फैसले पर पूर्वाग्रह कैसे हावी रहता है।

जूरी ८ का कहना है कि मामले में प्रस्तुत साक्ष्य परिस्थितिजन्य है, और यह कि लड़का उचित विचार-विमर्श के योग्य है अतः वह हत्या के लिए केवल दो गवाहों की सटीकता और विश्वसनीयता पर सवाल उठाता है। हत्या के हथियार की दुर्लभता (एक सामान्य पॉकेटनाइफ़, जिसकी स्वयं उसके पास एक समान प्रति मौजूद है), और समग्र संदिग्ध परिस्थितियों को फिर से आकलन करने को कहता है। वह अपने वोट देने के अधिकार के अन्तर्गत अपने तर्क से जूरी के बाकी सभी सदस्यों को उनके पूर्वाग्रह एवं धरणाओं का माकूल जवाब प्रस्तुत करता है और उन्हे आश्वस्त करता है।

जूरी में कुल बारह सदस्य हैं, जिनमे से सिर्फ ८ नंबर जूरी ही मुलजिम के पक्ष में है मगर समय के साथ नए नए तर्कों के आधार पर धीरे धीरे बाकी के ग्यारह सदस्यों में से दस अपने अपने वोट बदल कर पक्ष में आ जाते हैं मगर पंकज कपूर जो जूरी नंबर ३ हैं, अपनी बात पर अड़े रहते हैं। उनका बस इतना मानना है की जो लड़का अपने बाप की इज्जत नहीं करता उनसे मार पीट करता है वह हत्या का दोषी अवश्य है। पूछे जाने पर की आप ऐसा क्यूँ सोचते हैं?? तो उनका कहना है की आज के सभी लड़के ऐसे ही हैं और उनका स्वयं का लड़का उन्हें मार चुका होता है। अब आप देखिए कोई अपने पूर्वाग्रह के आधार पर कैसे किसी फैसले पर पहुंच जाता है और किसी को दोषी करार दे देता है।

ज़िन्दगी में फैसला लेना शायद सबसे मुश्किल काम है। यही सीख देती है ये फिल्म और खासकर तब जब आपकी हां या न, किसी की जान ले सकती हो। अगर सचमुच आपका एक फैसला किसी को मौत के मुंह में धकेलने या फांसी से बचा लेने में सक्षम हो तो सोचिए आप क्या करेंगे??? इंसानी फितरत को समझना इतना आसान भी नहीं होता। चाहे अनचाहे, हम अपने पूर्व अनुभवों से इतने प्रभावित होते हैं कि कभी कभी, मौत भी हल्की बात दिखने लगती है, जिसका निपटारा हमचंद मिनटों में करने को तत्पर रहते हैं।

इस फिल्म का सबसे ज़ोरदार पक्ष इसका बहस है। इस फिल्म से अन्तर्मन पर जोर से झटका लगता है और तब जाकर यह पता चलता है की कैसे हम भेड़चाल के गुलाम हैं, किस तरह हमारी मानसिकता, सबसे आसान रास्ता चुनने में जुटी रहती है और किस बुरी तरह हम अपने पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होकर, किसी भी सिचुएशन या घटना को समझते बूझते हैं, “एक रुका हुआ फैसला” में इसे दिखाय़ा गया है।

बेहतरीन अभिनेताओं की पूरी टोली है इस फिल्म में… बूढ़े, खांसते अनु कपूर, ज़ुबां लपलपा कर, बात करते, गुस्सैल पंकज कपूर, धीर, गम्भीर किन्तु पक्षपाती ज़हीर अब्बास और बेहद शालीन किन्तु सबसे मज़बूत किरदार के के रैना। एक रुका हुआ फैसला उन चंद फिल्मों में से एक है जो आपको झकझोर कर रख देती हैं। एक बेहतरीन फिल्म जिसे सभी को देखनी चाहिए।

फिल्म के किरदार…

दीपक काजीर केजरीवाल जूरर नं १,
अमिताभ श्रीवास्तव जूरर नं २,
पंकज कपूर जूरर नं ३,
एस एम ज़हीर जूरर नं ४,
सुभाष उद्गाता जूरर नं ५,
हेमंत मिश्रा बतौर जूरर नं ६,
एम.के.रैना जूरर नं ७,
के.के. रैना जूरर नं ८,
अन्नू कपूर जूरर नं ९,
सुबीराज जूरर नं १०,
शैलेंद्र गोयल जूरर नं ११,
अजीज कुरैशी जूरर नं १२,
सी.डी.सिंधु द्वारपाल के रूप में।

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