November 24, 2024

परिचय…

मेधा पाटकर का जन्म १ दिसम्बर १९५४ को मुंबई के एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। उनके पिता स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्री वसंत खानोलकर और माँ सामाजिक कार्यकर्ता इंदु खानोलकर जो महिलाओं के शैक्षिक, आर्थिक और स्वास्थ्य के विकास के लिए काम करती थीं – की इस बेटी की परवरिश मुंबई के सामाजिक – राजनीतिक परिवेश में हुई। माता-पिता की प्रेरणा से वे कालांतर में उपेक्षितों की आवाज़ बनीं।

समाज सेवा…

सामाजिक कार्यों में रुचि के कारण मेधा टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस, मुंबई से वर्ष १९७६ में समाज सेवा की मास्टर डिग्री हासिल की। तत्पश्चात् पांच साल तक मुंबई और गुजरात की कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ जुड़कर काम करती रहीं। साथ ही टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस में स्नातकोत्तर विद्यार्थियों को पढ़ाने लगी। तीन वर्ष यानी १९७७-१९७९ तक उन्होंने इस संस्थान में अध्यापन का काम किया। विद्यार्थियों को समाज विज्ञान के मैदानी क्षेत्र में काम करने का तरीका भी उन्होंने बताया। अध्यापन के दौरान ही शहरी और ग्रामीण सामुदायिक विकास में पीएचडी के लिए पंजीकृत हुईं।

समय की धारा में बहते बहते वे परिणय-सूत्र में बंधी, परंतु यह रिश्ता ज़्यादा दिन तक नहीं चला और दोनों आपसी सहमति से अलग हो गए। इस बीच समाज कार्य में सक्रिय मेधा की पीएचडी की तैयारी भी चल रही थी, लेकिन पढ़ाई को अपने काम में बाधक बनते देख उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और पूरी तरह समाज सेवा में जुट गईं।

मेधा पाटकर को नर्मदा घाटी के आंदोलन के रूप में पूरी दुनिया में जाना जाता है। इनकी ज़िंदगी का ओर-छोर नर्मदा ही है। वह भी भूल गई हैं कि वह मुंबई की रहने वाली हैं। सूती साड़ी और हवाई चप्पल में वह साधारण स्त्री ही नजर आती हैं। जब फर्राटेदार अंग्रेजी बोलना शुरू करती हैं तो समझ आता है कि वह घाट की रहने वाली नहीं हैं। जब भाषण देती है तो वहां जमा होने वाली भीड़ को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि उनकी बातों का कितना असर घाटवासियों पर है। मेधा ने सामाजिक अध्ययन के क्षेत्र में गहन शोध किया है। गांधीवादी विचारधारा से प्रभावित मेधा पाटकर ने सरदार सरोवर परियोजना से प्रभावित होने वाले लगभग ३७ हज़ार गांवों के लोगों को अधिकार दिलाने की लड़ाई लड़ी है। बाद में वे महेश्वर बांध के विस्थापितों के आंदोलन का नेतृत्व भी करने लगीं। वर्ष १९८५ से वह नर्मदा से जुड़े हर आंदोलन में सक्रिय रही हैं, लेकिन राजनीति से स्वयं को दूर रखा। उत्पीडि़तों और विस्थापितों के लिए समर्पित मेधा पाटकर का जीवन शक्ति, उर्जा और वैचारिक उदात्तता की जीती-जागती मिसाल है। उनके संघर्षशील जीवन ने उन्हें पूरे विश्व के महत्त्वपूर्ण शख़्सियतों में शुमार किया है। उन्होंने १६ वर्ष नर्मदा घाटी में बिताए हैं। वे ज़्यादातर समय घाटी पर ही रहती हैं। कई ऐसे मौक़े आए हैं जब जनता ने मेधा का जुझारू रूप देखा है। वर्ष १९९१ में उन्होंने २२ दिनों का अनशन किया, तब उनकी हालत बहुत बिगड़ गई थी। वर्ष १९९३ और १९९४ में भी उन्होंने लंबे उपवास किए। 5 जून, १९९५ को उत्तराखण्ड के प्रमुख सर्वोदयी नेता श्री सुन्दरलाल बहुगुणा के आमरण अनशन के ५१ दिन पूर्ण होने पर उनसे मिलने टिहरी जा रही मेधा पाटकर को टिहरी पहुंचने से पहले ही नरेन्द्रनगर नामक स्थान पर स्थानीय प्रशासनिक अधिकारी द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया था। घाटी के लोगों के लिए कई बार जेल जा चुकी हैं। उनकी लड़ाई मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र सरकार के अलावा विश्व बैंक से भी है। विश्व बैंक को खुली चुनौती देने वाली मेधा पाटकर को अब विश्व बैंक ने अपनी एक सलाहकार समिति का सदस्य बनाया है। उनके संगठन ने बुनियादी शिक्षा, स्वास्थ्य और पेयजल की स्थिति में सुधार के लिए काफ़ी काम किया है। मेधा पाटकर ने भारत के सभी जनांदोलनों को एक-दूसरे से जोड़ने का श्रेय भी उन्हें ही जाता है। उन्होंने एक नेटवर्क की शुरुआत की जिसका नाम है – नेशनल एलांयस फॉर पीपुल्स मूवमेंट। मेधा पाटकर देश में जनांदोलन को एक नई परिभाषा देने वाली नेताओं में हैं।

नर्मदा घाटी आंदोलन…

साठ और सत्तर के दशक में पश्चिम भारत में क्षेत्र के विकास की बातें चल रही थी। सरकार को लगा, बड़े-बड़े बांध बना देने से नर्मदा घाटी क्षेत्र का विकास होगा। इसी योजना के तहत वर्ष १९७९ में सरदार सरोवर परियोजना बनाई गई। परियोजना के अंतर्गत ३० बड़े, १३५ मझोले और ३,००० छोटे बांध बनाये जाने का प्रावधान था। परियोजना के अवलोकन के लिए वर्ष १९८५ में मेधा पाटकर ने अपने कुछ सहकर्मियों के साथ नर्मदा घाटी क्षेत्र का दौरा किया। उन्होंने पाया, कि परियोजना के अंतर्गत बहुत सी ज़रूरी चीज़ों को नजर-अंदाज़ किया जा रहा है। मेधा इस बात को पर्यावरण मंत्रालय के संज्ञान में लाई। फलस्वरूप परियोजना को रोकना पड़ा, क्योंकि पर्यावरण के निर्धारित मापदण्डों पर वह खरी नहीं उतर रही थी और बांध निर्माण में व्यापक तौर पर क्षेत्र का अध्ययन नहीं किया गया था।

नर्मदा बचाओ आंदोलन…

वर्ष १९८६ में जब विश्व बैंक ने राज्य सरकार और परियोजना के प्रमुख लोगों को परियोजना को आगे बढ़ाने के लिए आर्थिक सहायता मुहैया कराने की बात की तो मेधा पाटकर ने सोचा कि बिना संगठित हुए विश्व बैंक को नहीं हराया जा सकता। उन्होंने मध्यप्रदेश से सरदार सरोवर बांध तक अपने साथियों के साथ मिलकर ३६ दिनों की यात्रा की। यह यात्रा राज्य सरकार और विश्व बैंक को खुली चुनौती थी। इस यात्रा ने लोगों को विकास के वैकल्पिक स्रोतों पर सोचने के लिए मजबूर किया। यह यात्रा पूरी तरह गांधी के आदर्श अहिंसा और सत्याग्रह पर आधारित थी। यात्रा में शामिल लोग सीने पर दोनों हाथ मोड़कर चलते थे। जब यह यात्रा मध्यप्रदेश से गुजरात की सीमा पर पहुंचीं तो पुलिस ने यात्रियों के ऊपर हिंसक प्रहार किए और महिलाओं के कपड़े भी फाड़े। यह सारी बातें मीडिया में आते ही मेधा के संघर्ष की ओर लोगों का ध्यान गया और उन्होंने नर्मदा बचाओ आंदोलन की शुरुआत की। मेधा पाटकर ने परियोजना रोकने के लिए संबंधित अधिकारियों और जन·प्रतिनिधियों के सामने धरना-प्रदर्शन करना शुरू किया। सात सालों तक लगातार विरोध के बाद विश्व बैंक ने हार मान ली और परियोजना को आर्थिक सहायता देने से मना कर दिया। लेकिन विश्व बैंक के हाथ खींच लेने के बाद केंन्द्र सरकार अपनी ओर से परियोजना को आर्थिक मदद देने के लिए आगे आ गई। जब नर्मदा नदी पर बनाए जा रहे बांध की ऊंचाई बढ़ाने का सरकार ने फैसला लिया, तो इसके विरोध में मेधा पाटकर २८ मार्च, २००६ को अनशन पर बैठ गईं। उनके इस क़दम ने एक बार फिर पूरी दुनिया का ध्यान उनकी तरफ खींचा। उन्होंने बांध बनाए जाने के ख़िलाफ़ भारत के सर्वोच्च न्यायालय में अपील की, लेकिन वह खारिज कर दी गई। मध्यप्रदेश और गुजरात सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में शपथ-पत्र के जरिए नर्मदा बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ताओं पर आरोप लगाया कि वे प्रभावित परिवारों के लिए चल रहे राहत व पुर्नवास कार्यों में विदेशियों की मदद से बाधा पहुंचा रहे हैं। दोनों राज्य सरकारों ने उनपर राष्ट्रद्रोह का आरोप लगाते हुए सीबीआई से जांच की मांग की। आज भी मेधा विस्थापितों की लड़ाई लड़ रही हैं। उनका कहना है कि सालों से चल रही यह लड़ाई तब तक जारी रहेगी, जब तक सभी प्रभावित परिवारों का पुर्नवास सही ढंग से नहीं हो जाता।

पुरस्कार एवं सम्मान…

१. राइट लाइफहुड अवार्ड (आल्टरनेटिव नोबेल प्राइज), स्वीडेन – १९९२
२. गोल्डन एन्वायरमेंट अवार्ड – १९९३
३. जस्टिस केएस हेगडे फाउण्डेशन अवार्ड, मैंगलोर – १९९४
४. निसर्ग प्रतिष्ठान, सांगली द्वारा निसर्ग भूषण पुरस्कार – १९९४
५. प्रेस क्लब, अंजड़ की ओर से अवार्ड ऑफ ऑनर – १९९४
६. स्व. जमुनाबेन कुटमुटिया महाराष्ट गो विज्ञान समिति, मालेगांव, नासिक की ओर से लोक सेवक पुरस्कार – १९९५
७. श्रीमती राजमति नेमगोण्डा पाटिल ट्रस्ट द्वारा जनसेवा पुरस्कार – १९९५
८. सोसाइटी ऑफ वैनगार्ड, औरंगाबाद की ओर से श्री प्रकाश चिरगोपेकर स्मृति पुरस्कार – १९९५
९. जमुनाबेन कुटमुटिया स्त्री शक्ति पुरस्कार – १९९५
१०. निसर्ग सेवक पुरस्कार – १९९५
११. जनसेवा पुरस्कार – १९९५
१२. बेस्ट इंटरनेशनल पॉलिटिकल केम्पेनर, बीबीसी, इंग्लैण्ड की ओर से ग्रीन रिवन अवार्ड – १९९५
१३. एमीनेस्टी इंटरनेशनल, जर्मनी की ओर से ह्यूमन राइट्स डिफेन्डर अवार्ड – १९९९
१४. डॉ एमए थॅमस ह्यूमन राइट्स अवार्ड – १९९९
१५. महात्मा फुले अवार्ड – १९९९
१६. दीनानाथ मंगेशकर अवार्ड – १९९९
१७. स्व. श्री रामचंद्र रघुवंशी काकाजी स्मृति, उज्जैन की ओर से राष्ट्रीय क्रांतिवीर अवार्ड – २००८
१८. रूईया कॉलेज एल्यूमिनी एसो. की ओर से वैल ऑफ रूईया – २००९
१९. स्वर्गीय बेरिस्टर नाथ पई अवार्ड
२०. छात्र भारती अवार्ड
२१. प्रभा पुरस्कार आदि।

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