November 24, 2024

आज हम बात करने वाले हैं, भारत के एक ऐसे जनजातीय नेता के बारे में जिन्होने हैदराबाद की मुक्ति के लिये के आसफ जाही राजवंश के विरुद्ध संघर्ष किया। उनका संघर्ष छापामार शैली का था। उन्होने निजाम के न्यायालयी आदेशों, कानूनों और उसकी प्रभुसत्ता को सीधे चुनौती दी और वन में रहकर संघर्ष किया।

कोमाराम भीम….

महापुरुष भीम का जन्म तेलंगाना राज्य के जोदेघाट जिला अंतर्गत अलिदाबाद के जंगलो में स्थित गोंडा आदिवासी समुदाय में २२ अक्टूबर, १९०१ को हुआ था। कोमाराम भीम को किसी भी प्रकार की औपचारिक शिक्षा नहीं मिली थी अथवा यूं कहें तो वे स्वयं अपनी पहचान बाहरी दुनिया में नहीं करना चाहते थे।

संघर्ष की शुरुआत…

इनका जीवन वीर सीताराम राजू से काफी प्रभावित था। उनके समान वह भी कुछ करने की इच्छा रखते थे। इस दरमियान भगत सिंह के मृत्यु की खबर पुरे देश में आग की तरह फ़ैल गई थी जो भीम को झझकोर कर रख दिया। दूसरी तरफ निजाम के सरकारी अधिकारीओ के द्वारा जंगल के निवासियों पर हो रहे अत्याचार को कोमाराम को पसंद नहीं आया और निजाम के खिलाफ विद्रोह करने का मन बना लिया। कोमाराम भीम ने अपने जीवन में एक नारा दिया था, “जल, जंगल और जमीन”।

तात्पर्य; इनके द्वारा दिए गए इस नारा का अर्थ यह था की वह व्यक्ति जो जंगल में रहता है या अपना जीवन यापन करता है, उसे वन के सभी संसाधनों पर पूर्ण अधिकार होना चाहिए।

स्वतंत्रता संग्राम…

कोमाराम भीम ने बचपन से ही अंग्रेज़ो और निज़ामों को जुल्म करते हुए ही देखा था। वे निरक्षर जरूर थे, लेकिन परिस्थितियों को समझते उन्हें देर नहीं लगी। इस क्षेत्र के किसानों को फसलों का बड़ा हिस्सा अंग्रेजी शासन के अधीन निजाम को देना पड़ता था। इससे किसानों के हालत बद से बदतर होती जा रही थी। जंगल में पेड़ काटने के आरोप में अक्सर आदिवासी महिला, पुरुष और बच्चों तक को यातनायें दी जाती थीं। उनके पिताजी ने लोगों की परेशानियों को समझा था और वे अपनी राय रखने अंग्रेजों के पास गए, परन्तु एक जंगल के अधिकारी ने उनकी गोली मारकर हत्या कर दी।

इस घटना से पीड़ित उनका परिवार संकेपल्ली से सरदारपुर चला गया। सरदारपुर जाकर वे खेती करने लगे, लेकिन यहां भी निजाम शाही का खौफ उन्हें महसूस हुआ। निजाम के आदमी उनके पास आकर कर के लिए डराते, धमकाते रहते। इस बात से परेशान कोमाराम ने निजाम से मिलने की इच्छा जताई, मगर उन्हें रोक दिया गया। और दूसरी तरफ निजाम के अत्याचार दिन ब दिन बढ़ते गए। कोमाराम ने अब निजामशाही के विरुद्ध आवाज़ उठाने का निश्चय किया। उन्होंने अपने आदिवासी मित्रों, किसानों का संगठन तैयार किया और उन्हें निजामशाही का विरोध करने के लिए प्रेरित किया। कोमाराम भीम अब एक नेता के रूप में लोगों के मध्य प्रकट हो चुके थे। धीरे धीरे कोमाराम की सेना तैयार हो गई।

अपनी इस सेना के बदौलत कोमाराम भीम का १२ गावों पर अधिकार हो गया और उन्होंने इन १२ गांवों को स्वतंत्र राज्य बनाने की मांग की। कोमाराम ने वर्ष १९२८ से लेकर वर्ष १९४० तक निजाम के खिलाफ लगातार संघर्ष किया और गुर्रिल्ला युद्ध नीति अपनाई कोमाराम भीम के संघर्ष का मुख्य केंद्र जोड़ेघाट रहा। कोमाराम की सेना और निजाम की सेना जो अंग्रेजो की सरपरस्त में थी, से कई युद्ध हुए। आदिवासियों की इस क्रांति से निजाम बहुत घबरा गया और उसने समझौते का प्रयत्न भी किया परन्तु दोनों पक्षों में समझौता नहीं हो सका।

मृत्यु…

१६ अक्टूबर, १९४० को थानेदार अब्दुल सत्तार के द्वारा भीम को आत्मसमर्पण करने के लिए कहा गया पर भीम तैयार नहीं हुए। उस भयंकर चांदनी रात को अब्दुल ९० सुसजित सैनिको के साथ निहत्थे भीम पर हमला करने को कहा गया परन्तु उस रात भीम के सभी समर्थक भीम की और से आगे बढे परन्तु इनके पास आक्रमक और बचाव के लिए तीर धनुष और ढाल था। गोंडा समुदाय के लोग भीम का साथ देते हुए सिपाहियों के और बढ़ते रहे नजदीक पहुचने पर सिपाहियों ने सभी को मार गिराया और उस दिन से शहीद कोमारम भीम को आदिवासी समुदाय के द्वारा भगवान के रूप में पूजा जाने लगा।

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