जब जब पृथ्वी पर कोई संकट आता है तो भगवान श्री हरि अवतार लेकर उस संकट से मानव सभ्यता को एक नया जीवन प्रदान करते हैं दूर करते है। भगवान विष्णु ने इस धरा पर २४ अवतार लिए हैं, जिनमें कई अवतार उन्होंने मानव शरीर से अलग अन्य प्राणियों के देह के रूप में लिया है। २४ अवतारों में से २३ अवतार अब तक पृथ्वी पर अवतरित हो चुके है जबकि चौबीसवां अवतार ‘कल्कि अवतार’ के रूप में होना बाकी है। इन २४ अवतार में से १० अवतार विष्णु जी के मुख्य अवतार माने जाते है। जो यह हैं…
मुख्य १० अवतार…
मत्स्य अवतार, कूर्म अवतार, वराह अवतार, नृसिंह अवतार, वामन अवतार, परशुराम अवतार, राम अवतार, कृष्ण अवतार, बुद्ध अवतार और कल्कि अवतार।
श्री विष्णु के दो मुख्य अवतारों में से, त्रेतायुग के श्रीराम और द्वापर युग के श्रीकृष्ण, भारतीय जनमानस को मन मस्तिष्क पर ईश्वर पूर्ण स्वरूप में स्थापित हैं, अतः इन दोनों रूपों में ईश्वर की पूजा की जाती है। हालांकि, धर्मशास्त्रों के आधार पर तुलना की जाए तो कृष्णावतार में रामावतार से ज्यादा कलाएं थीं।।
भगवान श्रीकृष्ण संपूर्ण सोलह कलाओं से परिपूर्ण अवतार हैं, जबकि भगवान श्रीराम बारह कलाओं के साथ सूर्यवंश में अवतरित हुए थे। सूर्यवंश भगवान सूर्य के वंश को कहते हैं और भगवान सूर्य की बारह कलाएं होती हैं, इसलिए मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम सूर्य की संपूर्ण बारह कलाओं के साथ अवतरित हुए थे। वहीं श्री कृष्ण चंद्रवंश में अवतरित हुए थे और चंद्रदेव आकाश को सोलह कलाओं में बांटते हैं, इसलिए लीलाधर भगवान श्री कृष्ण सोलह कलाओं से पूर्ण माने जाते हैं।
सोलह कलाएं…
१. श्रीधन संपदा : प्रथम कला के रूप में धन संपदा है।
२. भू-अचल संपत्ति : भू-अचल संपत्ति को स्थान दिया गया है।
३. कीर्ति-यश प्रसिद्धि : तीसरी कला के रूप में कीर्ति-यश प्रसिद्धि।
४. इला-वाणी की सम्मोहकता : चौथी कला इला-वाणी की सम्मोहकता है।
५. लीला-आनंद उत्सव : पांचवीं कला है, लीला एवं आनंद।
६. कांति-सौदर्य और आभा : जो मुखमंडल बार-बार निहारने का जी करे। वह छठी कला से संपन्न माना जाता है।
७. विद्या-मेधा बुद्धि : सातवीं कला का नाम विद्या है। इससे परिपूर्ण व्यक्ति सफलता में आगे रहता है।
८. विमला-पारदर्शिता : जिसके मन में छल-कपट नहीं हो, वह आठवीं कला युक्त माना जाता है।
९. प्रेरणा : नौवीं कला के रूप में प्रेरणा को स्थान दिया गया है।
१०. ज्ञान-नीर क्षीर विवेक : श्रीकृष्ण ने कई बार विवेक का परिचय देकर समाज को नई दिशा दी।
११. क्रिया-कर्मण्यता : ग्यारहवीं कला के रूप में क्रिया है।
१२. योग-चित्तलय : बारहवीं कला योग है।
१३. प्रहवि-अत्यंतिक विनय : तेरहवीं कला का नाम प्रहवि है।
१४. सत्य-यर्थार्थ : श्रीकृष्ण की चौदहवीं कला सत्य है।
१५. इसना-आधिपत्य : पंद्रहवीं कला का नाम इसना है।
१६. अनुग्रह : सोलवीं कला के रूप मे श्रीकृष्णजी को अनुग्रह मिला है ।।
भगवान श्री कृष्ण १६ कलाओं के साथ ही ६४ विद्याओं के भी ज्ञाता थे। उन्होंने गुरू संदीपनी के आश्रम में मात्र ६४ दिनों में ही ये ६४ विद्याओं को सीख लिया था।
चौसठ विद्याएं…
१. गीत कला २. वाद्य कला ३. नृत्यकला ४. नाट्यकला ५. आलेख (चित्र-रचना) ६. विशेष कच्छेध (नाना प्रकार के तिलक रचना) ७. तण्डुल कुसुमावलि विकार (चावल, कुसुमादि पूजापहारों की विविध प्रकार की रचना) ८. पुष्पास्तरण (पुष्पादि द्वारा शय्या रचना) ९. दशन वसनांगराग (दांतो, वस्त्र एवं अंगो का रॅगना) १०. मणिभुमिका कर्म (भूमि को मणिबद्ध करना) ११. शयनरचन (पर्यगादि निर्माण) १२. उद्वाद्य (जलतरंग बजाना) १३. उद्धत (जल को रोकने की विद्या) १४. चित्रयोग (नाना प्रकार के अद्भुत प्रदर्शन और उपाय करना) १५. माल्यग्रंथ विकल्प (नानाविध माल रचना) १६. नेपध्ययोग (नाना प्रकार कि वेशभुषा और उनकी रचना) १७. शेखरापिड योजन (केशों को सजाना और उनमे पुष्प ग्रंथ करना) १८. कर्णपत भंग (कर्णभुषण रचना), गंधयुक्ति (चंदन, कस्तुरी आदि से रचित सुगन्धित द्रव्य प्रस्तुत करना) १९. भूषण योजना (भूषण अलंकार बनाना और सजाना) २०. इन्द्रजाल (जादूगरी) २१. कौचुमार योग (बहुरूप धारण विद्या एवं कुरूप को रूपवान बनाना) २२. हस्तलाधव (हाथों के संचालन के द्वारा वस्तुओं का परिवर्तन कर देना) २३. चित्रशाकापूय भक्ष्य विकार क्रिया (नाना प्रकार के शाक, पकवान, खाद्य और व्यंजन रचना) २४. पावकरस – रागासन योजन (पेय पदार्थों या रसों का नानाविध रॅगना व उनमें से मधुरत्व भोजन करना) २५. सूचीपापकर्म (सिलाई व कढ़ाई रचना) २६. वीणा डमरू वाद्य (वीणा, डमरू आदि बजाने की कला) २७. प्रहेलिका (गुप्त वाक्यों का अर्थ जानने की कला) २८. सब प्रतिमाला (सब वस्तुओं की प्रतिमा बना लेने की कला) २९. दुर्वचो योग (जो बोलने या करने में दुःसाध्य हो, उसे बोलना व करना) ३०. पुस्तक वाचन (ग्रंथ का पाठ) ३१. नाटिका ख्यायिक दर्शन करना) (नाटकादि शास्त्रों का परिज्ञान व उनका निर्माण करना) ३२. काव्य समस्या पूरण (काव्य के गुप्त या न कहे हुए पद तथा समस्या के अंश की पूर्ति करना) ३३. पटिका वेत्र बाण विकल्प (पटसन, वेत्र और बाणादि के द्वारा पदार्थों का निर्माण करना जैसे बाण से खाट बुनना, बेंत से कुर्सी बनाना, पटसन से बोरी आदि का निर्माण करना) ३४. तुर्की कर्म (सूत कातना या बटना, ३५. तक्षण (जुलाहे का काम) ३६. तकली या चर्खा चलाना ३७. वास्तुविद्या (किस स्थान पर कैसा घर बनाया जाए) ३८. रूप्य रत्न परीक्षा (सोना, चाँदी की परीक्षा का ज्ञान) ३९. धातुवाद (स्वर्ण बनाना किमियागरी) ४०. मणिराग (मणि व हीरों को रँगना) ४१. आकार ज्ञान (पत्थर, कोयला, मणि आदि धातुओं की खानों का ज्ञान) ४२. वृक्षायुर्वेद योग (वृक्षादि की चिकित्सा का ज्ञान) ४३. मेष, कुक्कुट, शावक युद्ध विधि (मेष, मुर्गी, बटेर आदि को लडाने की प्रणाली का ज्ञान) ४४. शुकसारिका प्रलापन (तोता मैना को पढ़ाना और बोली सिखाना) ४५. उत्सादन (मालिश, उबटन करना) ४६. केशमार्जन कौशल (बाल काटना, वेणी गूंथना) ४७. अक्षर, मुष्टिका, कथन(अदृष्ट अक्षर का स्वरूप एवं मुट्ठी में छिपी हुई वस्तु का ज्ञान) ४८. म्लेच्छ तक – विकल्प (उर्दू आदि विविध म्लेच्छ भाषाओं का ज्ञान) ४९. देश, भाषा, ज्ञान (विविध देशों की भाषाओं का ज्ञान) ५०. पुष्प -शकटिका निमित्त ज्ञान (आकाशवाणी निमित्त ज्ञान अर्थात् वायु, वर्षा आदि होने का भविष्य ५१. मंत्र मातृका (पूजा निमित्त यंत्र निर्माण करना) एवं धारण मातृ का ज्ञान)(यंत्रों को धारण करने का ज्ञान) ५२. सम्पाट्य (हीरा काटने की विद्या) ५३. मानसी काव्य क्रिया(दुसरे के मन की बात जानकर उसको कविता में प्रकट करना) ५४. करियर विकल्प(एक ही काम को विविध उपायों से संपादन करने की कुशलता का ज्ञान) ५५. छलितक योग (छलने की क्रिया) ५६. अभिधान कोष (शब्दकोष का ज्ञान) ५७. छन्दोज्ञान (विविध छन्दो का ज्ञान) ५८. वस्त्रगोपनानि (सूती कपड़े को रेशमी कपड़े की भांति प्रदर्शितकरना) ५९. द्यूत विशेष (पॉसा खेलने की विद्या) ६०. आकर्ष क्रीडा (आकर्षण विद्या के बल से पदार्थों को आकर्षित करना) ६१. बाल क्रीडक (खिलोने तैयार करना) ६२. वैनायकी (शास्त्र विद्या ज्ञान) ६३. वैजययिकी (शस्त्र विद्या ज्ञान) ६४. वैतालिकी (भूत प्रेत सिद्ध करने की विद्या)।।
जय श्रीकृष्ण