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पतंजलि (पतञ्जलि) प्राचीन भारत के एक मुनि और नागों के राजा शेषनाग के अवतार थे, जिन्होंने संस्कृत के अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की थी। इनमें से योगसूत्र उनकी महानतम रचना है जो योगदर्शन का मूलग्रन्थ है। भारतीय साहित्य जगत में पतंजलि द्वारा रचित उनके तीन मुख्य ग्रन्थ आज भी मिलते हैं, योगसूत्र, अष्टाध्यायी पर भाष्य और आयुर्वेद पर ग्रन्थ। वैसे तो विद्वानों का सनातनी दर्शन, वैदिक साहित्य और भारतीय इतिहास पर आपसी मत कभी रहा ही नहीं है। उसी तरह कुछ विद्वानों ने इन तीनों ग्रंथों को विभिन्न व्यक्तियों की कृतियाँ कही है, परंतु एक पक्ष इन्हें पतंजलि कृत मानता है। पतंजलि ने पाणिनि के अष्टाध्यायी पर अपनी टीका लिखी जिसे महाभाष्य का नाम दिया। (महा + भाष्य (समीक्षा, टिप्पणी, विवेचना, आलोचना))। इनका काल कोई २०० ई पू माना जाता है।

परिचय…

डॉ. भंडारकर ने पतंजलि का समय १५८ ई.पू. लिखा है। द बोथलिक ने पतंजलि का समय २०० ई.पू. एवं कीथ ने उनका समय १४० से १५० ई.पू. माना है। इतिहासकारों के अनुसार पतंजलि शुंग वंश के शासनकाल में थे। उन्होंने ही पुष्यमित्र शुंग का अश्वमेघ यज्ञ भी सम्पन्न कराया था। इनका जन्म गोनार्ध (गोंडा, उत्तरप्रदेश) में हुआ था, बाद में वे काशी में आकर बस गए। ये व्याकरणाचार्य पाणिनी के शिष्य थे। काशीवासी आज भी श्रावण, नागपंचमी को छोटे गुरु का, बड़े गुरु का नाग लो भाई नाग लो कहकर नाग के चित्र बाँटते हैं क्योंकि पतंजलि को शेषनाग का अवतार माना जाता है।

योगदान…

पतंजलि महान चिकित्सक थे और इन्हें ही ‘चरक संहिता’ का प्रणेता माना जाता है। ‘योगसूत्र’ पतंजलि का महान अवदान है। पतंजलि रसायन विद्या के विशिष्ट आचार्य थे अभ्रक विंदास, अनेक धातुयोग और लौहशास्त्र इनकी देन है। राजा भोज ने इन्हें तन के साथ मन का भी चिकित्सक कहा है।

योगेन चित्तस्य पदेन वाचां मलं शरीरस्य च वैद्यकेन।

योऽपाकरोत्तं प्रवरं मुनीनां पतञ्जलिं प्राञ्जलिरानतोऽस्मि॥

(अर्थात् चित्त-शुद्धि के लिए योग (योगसूत्र), वाणी-शुद्धि के लिए व्याकरण (महाभाष्य) और शरीर-शुद्धि के लिए वैद्यकशास्त्र (चरकसंहिता) देनेवाले मुनिश्रेष्ठ पतञ्जलि को प्रणाम।)

ई.पू. द्वितीय शताब्दी में ‘महाभाष्य’ के रचयिता पतंजलि काशी-मण्डल के ही निवासी थे। मुनित्रय की परम्परा में वे अंतिम मुनि थे। पाणिनी के पश्चात् पतंजलि सर्वश्रेष्ठ स्थान के अधिकारी पुरुष हैं। उन्होंने पाणिनी व्याकरण के महाभाष्य की रचना कर उसे स्थिरता प्रदान की। वे अलौकिक प्रतिभा के धनी थे। व्याकरण के अतिरिक्त अन्य शास्त्रों पर भी इनका समान रूप से अधिकार था। व्याकरण शास्त्र में उनकी बात को अंतिम प्रमाण समझा जाता है। उन्होंने अपने समय के जनजीवन का पर्याप्त निरीक्षण किया था। अत: महाभाष्य व्याकरण का ग्रंथ होने के साथ-साथ तत्कालीन समाज का विश्वकोश भी है। यह तो सभी जानते हैं कि पतंजलि शेषनाग के अवतार थे। द्रविड़ देश के सुकवि रामचन्द्र दीक्षित ने अपने ‘पतंजलि चरित’ नामक काव्य ग्रंथ में उनके चरित्र के संबंध में कुछ नये तथ्यों की संभावनाओं को व्यक्त किया है। उनके अनुसार आदि शंकराचार्य के दादागुरु आचार्य गौड़पाद पतंजलि के शिष्य थे किंतु तथ्यों से यह बात पुष्ट नहीं होती है।

प्राचीन विद्यारण्य स्वामी ने अपने ग्रंथ ‘शंकर दिग्विजय’ में आदि शंकराचार्य में गुरु गोविंद पादाचार्य को पतंजलि का रुपांतर माना है। इस प्रकार उनका संबंध अद्वैत वेदांत के साथ जुड़ गया।

काल निर्धारण…

पतंजलि के समय निर्धारण के संबंध में पुष्यमित्र कण्व वंश के संस्थापक ब्राह्मण राजा के अश्वमेध यज्ञों की घटना को लिया जा सकता है। यह घटना ई.पू. द्वितीय शताब्दी की है। इसके अनुसार महाभाष्य की रचना का काल ई.पू. द्वितीय शताब्दी का मध्यकाल अथवा १५० ई.पूर्व माना जा सकता है। पतंजलि की एकमात्र रचना महाभाष्य है जो उनकी कीर्ति को अमर बनाने के लिये पर्याप्त है। दर्शन शास्त्र में शंकराचार्य को जो स्थान ‘शारीरिक भाष्य’ के कारण प्राप्त है, वही स्थान पतंजलि को महाभाष्य के कारण व्याकरण शास्त्र में प्राप्त है। पतंजलि ने इस ग्रंथ की रचना कर पाणिनि के व्याकरण की प्रामाणिकता पर अंतिम मुहर लगा दी है।

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