मधु जब मात्र दो वर्ष के थे तभी से उनकी शिक्षा प्रारम्भ हो गयी थी। पिताश्री भाऊजी जो भी उन्हें पढ़ाते थे उसे वे सहज ही इसे कंठस्थ कर लेते थे। बालक मधु में कुशाग्र बुध्दि, ज्ञान की लालसा, असामान्य स्मरण शक्ति जैसे गुणों का समुच्चय बचपन से ही विकसित हो रहा था। १९१९ में उन्होंने ‘हाई स्कूल की प्रवेश परीक्षा’ में विशेष योग्यता दिखाकर छात्रवृत्ति प्राप्त की। १९२२ में १६ वर्ष की आयु में मधु माधव हो गए। मैट्रिक की परीक्षा उन्होंने चाँदा के ‘जुबली हाई स्कूल’ से उत्तीर्ण की। तत्पश्चात् १९२४ में उन्होंने नागपुर के ईसाई मिशनरी द्वारा संचालित ‘हिस्लाप कॉलेज’ से विज्ञान विषय में इण्टरमीडिएट की परीक्षा विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण की। अंग्रेजी विषय में उन्हें प्रथम पारितोषिक मिला। वे भरपूर हाकी तो खेलते ही थे कभी-कभी टेनिस भी खेल लिया करते थे। इसके अतिरिक्त व्यायाम का भी उन्हें शौक था। मलखम्ब के करतब, पकड़ एवं कूद आदि में वे काफी निपुण थे। विद्यार्थी जीवन में ही उन्होंने बाँसुरी एवं सितार वादन में भी अच्छी प्रवीणता हासिल कर ली थी।
इण्टरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद माधव से माधवराव हो कर जीवन में एक नये दूरगामी परिणाम वाले अध्याय का प्रारम्भ करने के लिए १९२४ में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रवेश किया। १९२६ में उन्होंने बी.एससी. और १९२८ में एम.एससी. की परीक्षायें भी प्राणि-शास्त्र विषय में प्रथम श्रेणी के साथ उत्तीर्ण कीं। इस तरह उनका विद्यार्थी जीवन अत्यन्त यशस्वी रहा। विश्वविद्यालय में बिताये चार वर्षों के कालखण्ड में उन्होंने विषय के अध्ययन के अलावा संस्कृत महाकाव्यों, पाश्चात्य दर्शन, श्रीरामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द की ओजपूर्ण एवं प्रेरक ‘विचार सम्पदा’, भिन्न-भिन्न उपासना-पंथों के प्रमुख ग्रंथों तथा शास्त्रीय विषयों के अनेक ग्रंथों का आस्थापूर्वक पठन किया। इसी बीच उनकी रुचि आध्यात्मिक जीवन की ओर जागृत हुई। एम.एससी. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् वे प्राणि-शास्त्र विषय में ‘मत्स्य जीवन’ पर शोध कार्य हेतु मद्रास (चेन्नई) के मत्स्यालय से जुड़ गये। एक वर्ष के दौरान ही उनके पिताश्री सेवानिवृत्त हो गये, जिसके कारण वह पैसा भेजने में असमर्थ हो गये। इसी समय मद्रास-प्रवास के दौरान वे गम्भीर रूप से बीमार पड़ गये। चिकित्सक का विचार था कि यदि सावधानी नहीं बरती तो रोग गम्भीर रूप धारण कर सकता है। दो माह के इलाज के बाद वे रोगमुक्त तो हुए परन्तु उनका स्वास्थ्य पूर्णरूपेण से पूर्ववत् नहीं रहा। मद्रास प्रवास के दौरान जब वे शोध में कार्यरत थे तो एक बार हैदराबाद का निजाम मत्स्यालय देखने आए। नियमानुसार प्रवेश-शुल्क दिये बिना उन्हें प्रवेश देने से माधवराव ने इन्कार कर दिया। आर्थिक तंगी के कारण उनको अपना शोध-कार्य अधूरा छोड़ कर अप्रैल १९२९ में नागपुर वापस लौटना पड़ा।
नागपुर आकर भी उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहा। इसके साथ ही उनके परिवार की आर्थिक स्थिति भी अत्यन्त खराब हो गयी थी। इसी बीच बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से उन्हें सेवा करने का प्रस्ताव मिला। १६ अगस्त, १९३१ को उन्होंने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राणि-शास्त्र विभाग में अपना पद संभाल लिया। चूँकि यह अस्थायी नियुक्ति थी। इस कारण वे प्राय: चिन्तित भी रहा करते थे।
अपने विद्यार्थी जीवन में भी माधव राव अपने मित्रों के अध्ययन में उनका मार्गदर्शन किया करते थे और अब तो अध्यापन उनकी आजीविका का साधन ही बन गया था। उनके अध्यापन का विषय यद्यपि प्राणि विज्ञान था, विश्वविद्यालय प्रशासन ने उनकी प्रतिभा पहचान कर उन्हें बी.ए. की कक्षा के छात्रों को अंग्रेजी और राजनीति शास्त्र भी पढ़ाने का अवसर दिया। अध्यापक के नाते माधव राव अपनी विलक्षण प्रतिभा और योग्यता से छात्रों में इतने अधिक अत्यन्त लोकप्रिय हो गये कि उनके छात्र उनको अब गुरुजी के नाम से सम्बोधित करने लगे, और फिर इसी नाम से वे आगे चलकर जीवन भर जाने जाने लगे।
संघ प्रवेश…
डॉ॰ हेडगेवार के द्वारा काशी विश्वविद्यालय भेजे गए नागपुर के स्वयंसेवक भैयाजी दाणी के द्वारा गुरूजी संघ के सम्पर्क में आये और उस शाखा के संघचालक भी बने। १९३७ में वो नागपुर वापस आ गए। नागपुर में श्री गुरूजी के जीवन में एक दम नए मोड़ का आरम्भ हो गया। डॉ साहब के सानिध्य में उन्होंने एक प्रेरणादायी एवं राष्ट्र समर्पित व्यक्तित्व को देखा। किसी अज्ञात व्यक्ति के द्वारा इस विषय पर पूछने पर उन्होंने कहा- “मेरा रुझान राष्ट्र संगठन कार्य की और प्रारम्भ से है। यह कार्य संघ में रहकर अधिक परिणामकारिता से मैं कर सकूँगा ऐसा मेरा विश्वास है। इसलिए मैंने संघ कार्य में ही स्वयं को समर्पित कर दिया। मुझे लगता है स्वामी विवेकानंद के तत्वज्ञान और कार्यपद्धति से मेरा यह आचरण सर्वथा सुसंगत है।”
१९३८ के पश्चात संघ कार्य को ही उन्होंने अपना जीवन कार्य मान लिया। डॉ साहब के साथ निरंतर रहते हुवे अपना सारा ध्यान संघ कार्य पर ही केंद्रित किया। इससे डॉ साहब का ध्येय पूर्ण हुआ।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ साहब के प्रति सम्पूर्ण समर्पण भाव और प्रबल आत्म संयम होने की वजह से १९३९ में श्री माधव सदाशिव गोलवलकर जी यानी गुरुजी को संघ का सरकार्यवाह नियुक्त किया गया। १९४० में डॉ साहब का ज्वर बढ़ता ही गया और अपना अंत समय जानकर उन्होंने उपस्थित कार्यकर्ताओं के सामने गुरूजी को अपने पास बुलाया और कहा ‘अब आप ही संघ का कार्य सम्भालें’ और स्वयं अनंत में विलीन हो गए।
गुरूजी का जन्म १९ फरवरी, १९०६ को फाल्गुन मास की एकादशी संवत् १९६३ को महाराष्ट्र के रामटेक में हुआ था। वे अपने माता-पिता की चौथी संतान थे। उनके पिता का नाम श्री सदाशिव राव एवं माता का नाम श्रीमती लक्ष्मीबाई था। कालांतर में वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक तथा महान विचारक बने। गुरूजी ने बंच ऑफ थॉट्स तथा वी,ऑर ऑवर नेशनहुड डिफाइंड पुस्तकें लिखीं।