प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं।
मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं॥
ढोल गंवार सूद्र पसु नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी॥
अर्थात : प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा दी (दंड दिया), किंतु मर्यादा (जीवों का स्वभाव) भी आपकी ही बनाई हुई है। ढोल, गंवार, शूद्र, पशु और स्त्री ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं।
मगर इस चौपाई का अपनी अपनी बुद्धि और अतिज्ञान के कारण कितने ही लोग विपरीत अर्थ निकाल लेते हैं। वे गोस्वामी तुलसीदास और उनकी रचित रामचरित मानस पर आक्षेप लगाते हैं, जैसा कि बिहार के तात्कालिक शिक्षा मंत्री माननीय श्री चंद्रशेखर जी ने रामचरित मानस को नफरत फैलाने वाला ग्रंथ बताया है। उन्होंने अपने रामचरित मानस के ज्ञान का प्रदर्शन करते हुए कहा कि उत्तरकांड में लिखा है कि नीच जाति के लोग शिक्षा ग्रहण करने के बाद सांप की तरह जहरीले हो जाते हैं। यह नफरत को बोने वाले ग्रंथ है।
सामान्य समझ की बात है कि अगर तुलसीदास जी स्त्रियों से द्वेष या घृणा करते तो रामचरित मानस में उन्होंने स्त्री को देवी समान क्यों बताया? और तो और तुलसीदास जी ने तो,
एक नारिब्रतरत सब झारी।
ते मन बच क्रम पतिहितकारी।
अर्थात, पुरुष के विशेषाधिकारों को न मानकर दोनों को समान रूप से एक ही व्रत पालने का आदेश दिया है। साथ ही उन्होंने सीता जी को परम आदर्शवादी महिला कहा है एवं मानस में उनकी नैतिकता का चित्रण, उर्मिला के विरह और त्याग का चित्रण यहां तक कि लंका से मंदोदरी और त्रिजटा का चित्रण भी सकारात्मक ही किया है। सिर्फ इतना ही नहीं सुरसा जैसी राक्षसी को भी हनुमान द्वारा माता कहना, कैकेई और मंथरा को भी सहानुभूति का पात्र माना है, जब उन्हें अपनी गलती का पश्चाताप होता है ऐसे में तुलसीदासजी के शब्द का अर्थ स्त्री को पीटना अथवा प्रताड़ित करना कैसे हो सकता है?
अब बात करते हैं शूद्रों के बारे में, जैसा कि माननीय शिक्षा मंत्री महोदय सहित तथाकथित ज्ञानी और सेक्युलर लोगों ने आमजन के मध्य एक गलत जानकारी के द्वारा विष फैला रखा है कि तुलसीदास जी ने अपने ग्रंथ में शूद्रों को मारने पीटने की बात कही है, जबकि वे कदापि ऐसा लिख ही नहीं सकते क्योंकि उनके प्रिय राम द्वारा शबरी, निषाद, केवट आदि से मिलन के जो प्रसंग मानस में आए हैं, वे अनुपम और आनंद कर देने वाले हैं।
गोस्वामी जी ने मानस की रचना अवधी में की है और प्रचलित शब्द ज्यादा आए हैं, इसलिए ‘ताड़न’ शब्द को संस्कृत से जोड़कर नहीं देखा जा सकता, राजा दशरथ ने स्त्री को दिए वचन के कारण ही तो अपने प्राण दे दिए थे। श्रीराम ने स्त्री की रक्षा के लिए रावण से युद्ध किया, रामायण के प्रत्येक पात्र द्वारा पूरी रामायण में स्त्रियों का सम्मान किया गया और उन्हें देवी बताया गया।
असल में यह चौपाइयां उस समय कही गई है जब समुद्र द्वारा विनय स्वीकार न करने पर श्रीराम क्रोधित हो गए और अपने तरकश से बाण निकाल लिया, तब समुद्र देव श्रीराम के चरणों मे आए और श्रीराम से क्षमा मांगते हुए अनुनय विनय करने लगे…
प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं।
मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं॥
ढोल गंवार सूद्र पसु नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी॥
अर्थात : हे प्रभु आपने अच्छा ही किया जो मुझे शिक्षा दी (दंड दिया), किंतु मर्यादा (जीवों का स्वभाव) भी आपकी ही बनाई हुई है। ढोल, गंवार, शूद्र, पशु और स्त्री ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं।
चौपाइ में जो ताड़ना शब्द आया है, वह एक अवधी शब्द है जिसका अर्थ पहचानना परखना या रेकी करना होता है। तुलसीदास जी के कहने का मंतव्य यह है कि अगर हम ढोल के व्यवहार (सुर) को नहीं पहचानते तो, उसे बजाते समय उसकी आवाज कर्कश होगी अतः उससे स्वभाव को जानना आवश्यक है। इसी तरह गंवार का अर्थ किसी का मजाक उड़ाना नहीं बल्कि उनसे है जो अज्ञानी हैं और उनकी प्रकृति या व्यवहार को जाने बिना उसके साथ जीवन सही से नहीं बिताया जा सकता। इसी तरह पशु और नारी के परिप्रेक्ष में भी वही अर्थ है कि जब तक हम नारी के स्वभाव को नहीं पहचानते उसके साथ जीवन का निर्वाह अच्छी तरह और सुखपूर्वक नहीं कर सकते। इसका सीधा सा भावार्थ यह है कि ढोल, गंवार, शूद्र, पशु और नारी के व्यवहार को ठीक से समझना चाहिए और उनके किसी भी बात का बुरा नहीं मानना चाहिए। परन्तु दुर्भाग्य तुलसीदास जी रचित इस चौपाई को लोग अपने जीवन में गलत तरीके से उतारते हैं।
दर्शन…
१. ढोल का अर्थ कान से है
उदाहरण : जब कान के पर्दे पर अच्छी आवाज की धमक पड़ती है तो मन आनंदित होता है, जिससे हम अच्छा बोल पाते हैं। मगर जब कान कर्कश आवाज सुनता है तो मन गलत बोलने पर आतुर हो जाता है। उसी प्रकार ढोल अच्छी थाप से सुंदर और गलत थाप से कर्कश आवाज उत्पन करता है। उसे साधना से ही सही किया जा सकता है।
२. गंवार का अर्थ आंख से है
उदाहरण : आंख हर एक चीज देखती है, चाहे जागृत अवस्था में सजीव दृश्य अथवा निंद्रा में स्वप्न। अगर उसे देखने की पूरी आजादी दी जाएगी तो वह भगवान राम से लेकर अश्लील से अश्लील दृश्य तक को देख सकती है अतः उसे भी समझाना पड़ता है कि तुम्हें क्या देखना चाहिए और क्या नहीं।
३. शुद्र का अर्थ मन से है
उदाहरण : सबसे पहले मन ही है जो प्रारूप तैयार करता है। क्या करना है क्या नहीं करना है। अगर मन को एकाग्र नहीं करेंगे उसे सही दिशा निर्देश नहीं देंगे तो वह गलत राह पकड़ सकता है, और मन की एक गलती से पूरे के पूरे मनुष्य का समूल नाश हो सकता है। यानी शुद्र समाज के नींव के समान है।
४. पशु का अर्थ शरीर से है
उदाहरण : यह पाल कर रखे शरीर को सदा काम से व्यस्त रखें, जिससे वह किसी गलत संगत, रोग और आलस्य का शिकार ना हो जाए।
५. नारी का अर्थ जीभ से है
उदाहरण : यह सभी तरह का स्वाद चखता है, जैसे एक स्त्री अपने पूरे जीवन काल में मायके से लेकर ससुराल सहित अनेकों स्थान और रिश्तों के मध्य से गुजराती है, जिनसे वह अनजान रहती है, अतः उसके पुरुष को उसे भली भांति समझना होता है, उसे रास्ता बताना होता है, नए परिवेश से परिचय कराना होता है।
६. ताड़न का अर्थ समझाने से है
इन सभी को समझा कर चलना है। इसी को कहा गया है कस्तूरी कुंडली बसे मृग ढूंढे बन माहि । ऐसी घटि घटि राम है दुनिया देखत नाही।। हम खुद समझें दुनिया को क्यों दोष लगा रहे हैं। तुलसीदास जी ने यह श्लोक मानव के हित में संस्कार युक्त बहुत अच्छा ही कहा है।
शुद्र सहित वर्ण व्यवस्था को समझने का प्रयास…
माननीय शिक्षा मंत्री श्री चंद्रशेखर जी ने अपने भाषण के दौरान कहा है कि एक युग में मनुस्मृति, दूसरे युग में रामचरितमानस, तीसरे युग में गुरु गोवलकर का बंच ऑफ थॉट, ये सभी देश को, समाज को नफरत में बांटते हैं। उन्होंने वर्ण व्यवस्था पर भी उंगली उठाया। इसलिए हम आसान भाषा में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के चरित्र को समझते हैं।
ब्राह्मण : ब्राह्मण वह है, जो दान पर जीता है, उसकी ना तो कोई अपनी संपत्ति होती है और ना ही किसी प्रकार की कोई नौकरी और ना तो कोई उसे बाध्य ही कर सकता है। वह सिर्फ ब्रह्म को खोजता है और हर एक जीव में ब्रह्म को देखता है। जो सिर्फ और सिर्फ समाज के सात्विक बदलवा के लिए जीता है। वो कोई भी हो सकता है। इसमें जाति प्रमाण की कोई आवश्यकता नहीं है।
क्षत्रिय : क्षत्रिय वह है जो कर यानी टैक्स पर जीता हो और बदले में देश और समाज को सुरक्षा प्रदान करता हो। यहां भी जाति प्रमाण की कोई आवश्यकता नहीं है।
वैश्य : वैश्य वह है जो लाभ पर जीता हो, यानी व्यापारी। यहां भी जाति प्रमाण की कोई आवश्यकता नहीं है।
शूद्र : शूद्र वह है जो वेतन पर जीता हो, हर वो व्यक्ति जो नौकरी करता है, चाहे वह दो हजार रुपए की हो अथवा मल्टीनेशनल कंपनियों में करोड़ों कमाता हो। जो भी वेतन भोगी है वह शूद्र है।
नोट : अजीब बात है कि जिस प्रकार गोस्वामी जी की मानस की चौपाइयों को बिना पढ़े अथवा समझे गलत बयान देते फिर रहे हैं, उसी प्रकार मनु के वर्ण व्यवस्था को भी आज अज्ञानता की वजह से जाति व्यवस्था में जोड़ समाज को विखंडित करने की साजिश में हम सभी सहभागी बने हुए हैं। फिर भी यह मेरे अपने विचार है, बाकी तो आप सब स्वयं समझदार हैं।
धन्यवाद!
विधावाचस्पति अश्विनि राय ‘अरुण’