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आम जनमानस की बात की जाए तो शिव और शंकर में कोई अंतर नहीं है, दोनों एक ही हैं—भोलेनाथ या कैलाशपति। परन्तु अध्यात्म की गहराइयों में जाएं तो यह भेद स्पष्ट होता है। दर्शन कहता है कि शिव को छोड़कर बाकी सारे नाम माया हैं, क्योंकि सिर्फ शिव ही परम सत्य हैं।

शंकर को आप चरित्र रूप में देख सकते हैं, मगर शिव की कोई सीमा नहीं, वे स्वयं केंद्र हैं और स्वयं ही परिधि। याद रखें शंकर को अपने मन की ऊंचाइयों से नापा जा सकता है, मगर शिव वो आकाश हैं, जहां मन विलीन हो जाता है। मन में जो विचार उत्पन्न होता है, उसका उच्चतम बिंदु शंकर हैं और विचार का निर्विचार होना ही शिव है।

 

साकार और निराकार का मौलिक भेद…

मानवीय बुद्धि के अनुसार तो शिव और शंकर एक ही हैं, मगर इनमें सबसे बड़ा फर्क साकार (सगुण) और निराकार (निर्गुण) का है:

शिव: पूर्णतया निराकार हैं। शिव वो अनादि-अनंत ज्योति हैं जो सत्य और परमात्मा हैं। शिव कहना भी शिव को सीमित करना है; उन्हें जानने के लिए गहरे मौन में ध्यानस्थ होना पड़ता है।

शंकर: वे साकार हैं। शंकर एक अवतार हैं, आदमी की कल्पना जितनी ऊंची जा सकती है, उसके ऊपर वे विराजमान हैं। आप अपने लिए जो प्रबलतम आदर्श स्थापित कर सकते हैं, वही शंकर हैं।

 

चरित्र और परिवार के अनुसार अंतर…

१. विशेषता: शिव निराकार हैं तो शंकर साकार चरित्र

२. चरित्र:  ना तो शिव कोई चरित्र हैं और ना उनका कोई चरित्र ही है, जबकि शंकर का एक पौराणिक चरित्र है।

३. परिवार:  शिव का कोई परिवार नहीं है। शंकर का पूरा कुटुंब है, पत्नी, बच्चे, मित्र, सखा सभी हैं।

४. स्थान: शिव किसी गाथा में समा नहीं सकते, वे सत्य हैं। शंकर किसी पुराण या गाथा के केंद्रीय पात्र हो सकते हैं (जैसे शिव पुराण)।

 

उद्घोष और पूजा का दार्शनिक प्रमाण…

अध्यात्म और उद्घोष: पुराणों में शंकर के अनेक नाम हैं, मगर अध्यात्म सिर्फ शिव को मानता है।

१. अध्यात्म “सत्यम् शिवम् सुन्दरम्” का उद्घोष करता है, क्योंकि शिव ही सत्य हैं।

२. व्यक्ति ‘शिवोहम्’ का उच्चारण करता है, न कि ‘शंकरोहम्’, क्योंकि शिव आत्मा हैं।

३. ध्वनि में भी कौन-सी ध्वनि क्या इंगित कर रही है, इसे जानना ही शिव और शंकर के भेद को जानना है।

पूजा और ध्यान का अंतर: शिव की पूजा हो नहीं सकती क्योंकि पूजा तो उसकी होती है जो साकार हो, मगर शिव तो निराकार हैं। शिव में केवल मन लगाया जा सकता है। शिव को जानने के लिए शिव होना पड़ता है। जब शिव ही हो गए तो कौन किसको पूजेगा? इसलिए, पूजा करने के लिए एक साकार आधार (शंकर) का निर्माण करना पड़ता है, जिसके लिए मंदिर हैं।

 

शिव, शक्ति और श्री का गहन संबंध…

शक्ति और शिव का संबंध आम संस्कृति में प्रस्तुत किए गए अर्धनारीश्वर रूप (आधा शिव, आधा पार्वती) जैसा नहीं है।

शक्ति का अर्थ: शक्ति का अर्थ है समूची व्यवस्था, वो सबकुछ जिसे हम अस्तित्व कहते हैं—संपूर्ण प्रकरण, ऊर्जा का प्रवाह।

शिव और शक्ति: जो कुछ है वो सिर्फ शक्ति है, और शक्ति के केंद्र में जो वास करते हैं वो शिव हैं। शिव अचिन्त्य हैं। आप जो भी दर्शा रहे हैं, वो शक्ति है, हाँ, शक्ति के केंद्र में शिव हैं।

शक्ति ही श्री: श्री का अर्थ होता है चिरंतर सत्य, जो सबके लिए हितकारी हो। मात्र शिव का जो प्राकट्य होता है, उसको ही श्री कहा जा सकता है। शिव की पत्नी श्री कहलाएगी, क्योंकि उनका केंद्र शिव है; शंकर की पत्नी पार्वती कहलाएगी।

 

निष्कर्ष…

शंकर जैसे कल्पना की ऊंची उड़ान हैं तो शिव, उस कल्पना में विलीन हो जाना है। यही शिवत्व है। शिव और शंकर में अंतर करना वैसे ही जरूरी है जैसे कबीर के निराकार राम में और दशरथ-पुत्र साकार राम में अंतर करना ज़रूरी है।

 

शिव और शंकर में अंतर 

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