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I. ‘अट नहीं रही है’ का केंद्रीय भाव और संक्षिप्त सार

 

सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ द्वारा रचित ‘अट नहीं रही है’ कविता फागुन महीने की मादक सुंदरता और उसके सर्वव्यापी प्रभाव का वर्णन करती है। कवि कहते हैं कि फागुन मास की शोभा इतनी अधिक है कि वह प्रकृति में समा नहीं पा रही है—वह चारों ओर छलक रही है। फागुन में पेड़ों पर कहीं लाल-लाल नए पत्ते निकल आते हैं, तो कहीं रंग-बिरंगे फूल खिल उठते हैं। ऐसा लगता है मानो प्रकृति ने स्वयं अपने गले में सुगंधित फूलों की माला पहन ली हो।

 

यह सौंदर्य केवल बाहरी नहीं है, बल्कि यह मनुष्य के मन को भी गहराई तक प्रभावित करता है। हवा इतनी सुगंधित और मदमस्त है कि वह मन को उड़ने के लिए विवश कर देती है। कवि फागुन की सुंदरता से अपनी आँखें हटाना चाहते हैं, लेकिन हटा नहीं पाते, क्योंकि यह हर तरफ इतनी भरी हुई है कि कहीं और देखने की गुंजाइश ही नहीं बचती।

 

कवि को लगता है कि फागुन की सुंदरता ने आकाश तक को छू लिया है, और घरों में भी यह चमक और शोभा बनकर भर गई है। यह कविता फागुन के मनमोहक रूप और उसके हर जगह व्याप्त उल्लास का जीवंत चित्रण करती है, जो मन में रंग और आनंद भर देता है।

 

 

II. विस्तृत व्याख्या (काव्यांशों के आधार पर)

 

 

काव्यांश १: फागुन की सर्वव्यापी शोभा की व्याख्या

 

 

अट नहीं रही है

आभा फागुन की तन

सट नहीं रही है।

कहीं साँस लेते हो,

घर घर भर देते हो,

उड़ने को नभ में तुम

पर पर कर देते हो,

आँख हटाता हूँ तो

हट नहीं रही है।

 

 

व्याख्या: कवि कहते हैं कि फागुन महीने की आभा (चमक/सुंदरता) इतनी अधिक और विस्तीर्ण है कि वह प्रकृति के तन (शरीर) में समा नहीं पा रही है – अर्थात वह उमड़कर छलक रही है। यह सुंदरता इतनी भरी हुई है कि उसे धारण करना मुश्किल हो रहा है।

 

कवि फागुन को संबोधित करते हुए कहते हैं कि जब तुम साँस लेते हो (यानी जब हवा चलती है), तो तुम्हारी सुगंधित साँस (हवा) प्रत्येक घर को अपनी मधुर गंध से भर देती है। फागुन की यह मादक हवा इतनी मनमोहक है कि वह मन को आकाश में उड़ने के लिए पंख (पर पर) प्रदान कर देती है। फागुन का प्रभाव इतना गहरा है कि कवि जब भी इस सुंदरता से अपनी आँखें हटाना चाहते हैं, तो वे हटा नहीं पाते, क्योंकि यह सौंदर्य हर तरफ इतनी सघनता से फैला हुआ है कि कहीं और देखने का मन ही नहीं करता।

 

 

काव्यांश २: प्रकृति और मन पर फागुन के प्रभाव की व्याख्या

 

 

पत्तों से लदी डाल,

कहीं हरी, कहीं लाल,

कहीं पड़ी है उर में

मंद गंध पुष्प माल,

पाट पाट शोभा श्री

पट नहीं रही है।

 

 

व्याख्या: कवि फागुन की शोभा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि इस महीने में पेड़ों की डालें पत्तों से लदी हुई हैं। कहीं पर हरे-हरे नए पत्ते निकल आए हैं, तो कहीं पर फूलों की कली बनकर लालिमा छा गई है। ऐसा प्रतीत होता है मानो प्रकृति ने स्वयं अपने हृदय (उर) पर मंद-मंद सुगंध बिखेरने वाली फूलों की माला (पुष्प माल) पहन रखी हो।

 

कवि आगे कहते हैं कि फागुन की यह शोभा श्री (शोभा रूपी धन) पाट-पाट (हर जगह, कोने-कोने में) इतनी भरी हुई है कि यह पट नहीं रही है (समा नहीं पा रही है)। कहने का तात्पर्य यह है कि फागुन का सौंदर्य इतना अप्रतिम और सर्वव्यापी है कि वह प्रकृति की सीमाओं में बंधकर नहीं रह पा रहा, बल्कि वह हर दिशा में छलक रहा है, मन को मुग्ध कर रहा है।

 

 

निष्कर्ष: ‘अट नहीं रही है’ का अंतिम संदेश

 

‘अट नहीं रही है’ कविता में कवि निराला ने फागुन की सुंदरता के उन्माद को अत्यंत कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है। यह कविता प्रकृति के सौंदर्य को केवल बाहरी वर्णन तक सीमित नहीं रखती, बल्कि उसे मानवीय भावनाओं से जोड़ती है। फागुन का उल्लास इतना अधिक है कि वह हवा में, घर-घर में और व्यक्ति के मन में समाया हुआ है, जो हमें उड़ने के लिए प्रेरित करता है। यह कविता प्रकृति और जीवन के उल्लास के बीच अभेद्य संबंध स्थापित करती है, जहाँ प्रकृति का सौंदर्य मन में भी खुशी और मस्ती भर देता है। यह फागुन के महीने को आनंद और मादकता के चरम पर चित्रित करती है।

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