एक कश्मीरी पंडित की दास्तां…
आप को सुनाते हैं। उसके जीवन चक्र को फिर से घुमाते हैं। हर तरफ हाहाकार मची थी…लाठी डंडे की क्या औकात यहां तो तलवार भी चमकी थी। यह कथा कुछ सुनी हुई जान पड़ती है…हे हमदर्द मुसाफिर यह दास्तां मेरी लिखी तो है नहीं, खून से लिखी यह दास्तां इतिहास के पन्नों से चुराया है।
कश्मीरी ब्राह्मणों का यह परिवार बहुत पहले लखनऊ में बस गया था। मगर यह परिवार डेढ़-दो सौ साल पहले कश्मीर से उठ कर रोजगार की खोज में पेशावर चले गये थे। इसी परिवार के थे, जस्टिस शंभुनाथ पंडित, जो बंगाल न्यायालय के प्रथम भारतीय जज बने थे। इन्हीं जस्टिस शंभुनाथ पंडित के पौत्र थे…
श्री अवतार किशन हंगल जी
जिनका जन्म १ फ़रवरी १९१७ को कश्मीरी पंडित परिवार में अविभाजित भारत के पंजाब राज्य के सियालकोट में हुआ था। कश्मीरी भाषा में हिरन को हंगल कहते हैं। इनके पिता का नाम पंडित हरि किशन हंगल था। अपने जीवन के शुरुआती दिनों में, पिता के सेवानिवृत्त होने के बाद पूरा परिवार पेशावर से कराची आ गया। कभी कश्मीर के और फिर पेशावर में नाम और खानदान से आने वाले हंगल को कराची टेलरिंग का काम करना पड़ा था, मगर फिर भी यह परिवार उतना ही खुश था जितना दादा के जमाने में हुआ करता था, मगर होनी को कौन टाल सकता था। भारत पाक के बंटवारे के बाद उन्हें करांची भी छोड़ना पड़ा और वे लोग लखनऊ आ गए, एक नई लड़ाई के लिए और यह लड़ाई थी अपने आस्तित्व की, अपने होने की, यह लड़ाई थी हंगल साहब और उनके परिवार के भरण पोषण की। अतः वे १९४९ में मुंबई चले गए।
१९३०-४७ के बीच हंगल साब स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रहे। दो बार जेल यात्रा पर भी गए। हंगल साब तीन साल पाकिस्तान के जेल में रहे। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान पेशावर में काबुली गेट के पास एक बहुत बड़ा प्रदर्शन हुआ था, जिसमें हंगल साब ने भी बढ़ चढ़ कर भाग लिया था। हंगल साब कहा करते थे, “अंग्रेजों ने जब अपने सिपाहियों को प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने का हुक्म दिया, तब चंदर सिंह गढ़वाली के नेतृत्व वाले उस गढ़वाल रेजीमेंट की टुकड़ी ने गोली चलाने से इनकार कर दिया था। जो सीधे सीधे अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ एक विद्रोह था। चंदर सिंह गढ़वाली को जेल में डाला गया।” हंगल साहब को इस बात बड़ा दु:ख था कि चंदर सिंह गढ़वाली को ‘भारत रत्न’ नहीं दिया गया। भारत माँ का यह वीर सपूत १९८१ में गुमनाम मौत मरा। पेशावर का वो ऐतिहासिक नरसंहार उसी काबुल गेट वाली घटना के बाद हुआ था। उस वक्त अंग्रेजों ने अमेरिकीओ से गोलियाँ चलवाई थीं। हंगल साहब ने अपनी आँखों से यह सब देखा था। यही वजह रही कि वे स्वतंत्रता संग्राम और सामाजिक आंदोलनों को लेकर हमेशा सजग रहते थे। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फाँसी से बचाने के लिए चलाये गये हस्ताक्षर अभियान में भी वे शामिल थे। किस्सा-ख्वानी बाज़ार नरसंहार के दौरान उनकी कमीज ख़ून से भीग गयी थी। हंगल साहब कहते थे, ‘वह ख़ून सभी का था- हिंदू, मुस्लिम, सिख सबका मिला हुआ खून!’ छात्र जीवन से ही वे बड़े क्रांतिकारियों की मदद में जुट गये थे। बाद में उन्हें अंग्रेजों ने तीन साल तक जेल में भी रखा, फिर भी वे अपने इरादे से नहीं डिगे।
हां तो १९४९ में भारत विभाजन के बाद हंगल साब मुंबई चले गए। वे २० रुपये लेकर पहली बार मुंबई आए थे। बड़ी मशकत के बाद उनकी मुलाकात बलराज साहनी साब और कैफी आजमी से हुई और वे उनके साथ थिएटर ग्रुप आईपीटीए के साथ जुड़ गए। उन्होंने इप्टा से जुड़ कर अपने नाटकों के मंचन के माध्यम से सांस्कृतिक चेतना जगानी शुरू कर दी। हंगल साब पेंटिंग भी किया करते थे। उन्होंने किशोर उम्र में ही एक उदास स्त्री का स्केच बनाया था और उसका नाम दिया था चिंता। वे हमेशा मानते थे कि ज़िंदगी का मतलब सिर्फ अपने बारे में सोचना नहीं है। वे हमेशा कहते थे कि चाहे कुछ भी हो जाये, ‘मैं एहसान-फरामोश और मतलबी नहीं बन सकता।
हंगल साब ५० वर्ष की उम्र में पेट की क्षुधा शांत करने के लिए हिंदी सिनेमा में आए। उन्होंने १९६६ में बासु चटर्जी की फ़िल्म ‘तीसरी कसम’ और ‘शागिर्द’ में काम किया। इसके बाद उन्होंने अधिकतर सिद्घांतवादी भूमिकाएँ ही निभाई। ७०, ८० और ९० के दशकों में उन्होंने प्रमुख फ़िल्मों में पिता या अंकल की भूमिका निभाई। हंगल साब ने फ़िल्म शोले में रहीम चाचा (इमाम साहब) और ‘शौकीन’ के इंदर साहब के किरदार से अपने अभिनय की छाप छोड़ी।
अब तो आप, आज ही के दिन यानी ०१ फरवरी १९१७ को जन्में श्री अवतार किशन हंगल जी को पहचान ही गए होंगे जिन्हें हम ए.के.हंगल के नाम से भी जानते हैं।
इतना सन्नाटा क्यूँ है भाई…
यूं ही तो हो नहीं सकता,
“लोग कहते कि आप बहुत इमोशनल हैं, मैं कहता हूं इमोशनल तो हूं क्योंकि मैं एक्टर हूं। इमोशनल नहीं होता तो इतने रोल जो आपने परदे पर देखे हैं वो मैं नहीं कर सकता था।”
यही सच है, परदे के आगे जीवन जीने वाले हंगल साब के कई और भी रंग थे परदे के पीछे…कहीं दर्द से भरे तो कहीं खून से सने।