November 24, 2024

साहित्यिक प्रतियोगिता : १.१४
विषय – अन्याय
दिनाँक : १४/१२/१९

चलिए एक कथा सुनाते हैं, जो परिस्थिति के हांथ से लिखी गई और अप्रूवल के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय भेजी गई । वह अप्रूव हुआ या नहीं यह मैं नहीं जानता मगर कहानी ज्यों की त्यों मिडिया को मिल गई और छप गई। शायद प्रिंट मीडिया के साथ टीवी मीडिया ने भी इसमे दिलचस्पी दिखलाई और यह कहानी हिट हो गई। सबने अपने अपने पाकेट भरे मगर कहानीकार की हालत वैसी ही रही, तंगहाली। कहानी के पीछे की सच्चाई कुछ इस तरह थी।

महाराष्ट्र के नासिक जिले के एक किसान द्वारा भेजे गए १०६४ रुपए के मनी-ऑर्डर को प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर से लौटा दिया गया। इस किसान को ७५० किलोग्राम प्याज बेचने के एवज में मात्र १०६४ रुपये ही मिले थे और उसने उसे देश के सेवा हेतु भेज दिया और वह रुपया वापस आ गया।

नासिक जिले के निपहद तहसील के किसान संजय साठे ने थोक मंडी में प्याज बेचने पर मिले मात्र १०६४ रुपये को लेकर विरोध जताने के लिए यह राशि २९ नवंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भेज दी थी। कुछ दिन पहले एक स्थानीय डाकघर ने उन्हें सूचित किया कि उनके मनी-ऑर्डर को स्वीकार नहीं किया गया है और वह डाकघर आकर अपने रुपए छुड़ा ले। किसान साठे डाकघर से अपने रुपए वापस ले आया। उसने मीडिया को बयान दिया था की, ‘मेरी मंशा सरकार को किसानों के वित्तीय तनाव को कम करने को लेकर कुछ कदम उठाने के लिए प्रेरित करने की थी, जो उन्हें कीमतों में गिरावट के कारण झेलना पड़ता है।’ यह कहानी किसी एक किसान की नहीं है, ऐसी परिस्थिति देश के सभी किसानो के साथ है। हर दिन कोई ना कोई किसान आत्महत्या कर लेता है या कर रहा है। ऐसा नहीं की सरकार कुछ नहीं कर रही मगर वो शायद काफी नहीं है अथवा सही तरह से वह क्रियान्वन ना हो पा रहा हो। हम अपने निजी अनुभव, समाचार पत्रों अथवा पत्र – पत्रिकाओं के माध्यम से एकत्रित कुछ कारकों को आप के सामने रखने की कोशिश करते हैं।

१. लगातार कई वर्षों से सूखे की मार
साल २०१४ से लगातार सूखे की मार झेल रहे देश के अधिकतर राज्य। जहां एक तरफ २०१४ और २०१५ में पूरे देश में सूखा पड़ा वहीं २०१६ से २०१८ तक कृषि आधारित राज्यों में छूट पुट सूखे की स्थिति बनी रही। बिहार में जहां एक तरफ सूखे की आहट सुनायी देती रहती है वहीं यहां की नदियों में उफान बना रहता है। सभी प्रमुख नदियों के जल स्तर में तेजी से बढ़ोतरी होती है। बिहार में भले बारिश नहीं हो रही हो, लेकिन नेपाल में लगातार हो रही बारिश के कारण उत्तर की नदियों में उफान रहता है। बाढ़ के विभत्सता को देखते हुवे राज्य सरकार, केंद्र सरकार समेत सारी मीडिया सूखे की मार झेल रहे आधे से अधिक जिलों की अवहेलना करते हैं। लगातार पड़ रहे सूखे ने कृषि क्षेत्र की कमर तोड़ दी है। सरकार ने इस सेक्टर के लिए भले ही पर्याप्त फंड्स का आवंटन किया हो लेकिन प्रॉजेक्टों के सुस्त क्रियान्वयन के चलते दर्द को कम नहीं किया जा सका। उधर, महाराष्ट्र, गुजरात और कर्नाटक में पड़े सूखे ने भी किसानों की पीड़ा को और बढ़ा दिया।

२. कृषि उत्पाद के कीमत का गिरना
कृषि उत्पादों की कीमतें भरभरा कर नीचे आ गई हैं। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतों के कम होने से निर्यात भी प्रभावित हुआ है और वहीं, आयात होने के कारण देश के भीतर कीमतों पर चोट पड़ी है। जिसे हमने ऊपर एक सच्ची घटना को उदाहरण के रूप में दर्शाया है। अब एक और उदाहरण, २०१६-१७ में दालों का बंपर उत्पादन हुआ था लेकिन ६.६ मिलियन टन आयात होने से किसानों की समस्या बढ़ गई। २०१७-१८ में ५.६ मिलियन टन और आ गया जिससे घरेलू कीमतें और भी कमजोर हो गईं। सरकार की तरफ से चूक यह हुई कि उसने आयात पर टैरिफ्स लगाने में देर कर दी, जिससे किसानों की समस्या बढ़ते बढ़ते विकराल रूप ले लिया।

३. बीमा एक छलावा मात्र
प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना २०१६ में लॉन्च की गई, जिससे प्राकृतिक आपदा, कीटों और रोगों के कारण किसी भी फसल के बर्बाद होने पर किसानों को बीमा और वित्तीय सहयोग उपलब्ध कराया जा सके। इसका मकसद किसानों की आय को स्थिर रखना और यह सुनिश्चित करना भी था कि वे खेती करते रहें लेकिन ज्यादा प्रीमियम और बीमा कंपनियों के नाकारात्मक रुख की वजह एवं अन्य कई कारणों से काफी कम किसान बीमा से जुड़े।

४. सिंचाई एक कालजई समस्या
देश में ज्यादातर खेती योग्य भूमि के लिए किसान मॉनसूनी बारिश पर ही निर्भर रहते हैं। इस समस्या के निदान हेतु केंद्र सरकार ने ४0,000 करोड़ का दीर्घकालिक सिंचाई फंड (नाबार्ड द्वारा संचालित) लॉन्च किया। इस प्रोग्राम के तहत ९९ बड़े सिंचाई प्रॉजेक्टों को दिसंबर २०१९ तक पूरा करने का लक्ष्य था लेकिन इसकी प्रोग्रेस अब तक काफी सीमित है। विशेषज्ञ इसके लिए अफसरशाही की देरी समेत कई कारणों को जिम्मेदार मानते हैं।

५. कृषि उत्पादों के विपडन की अनदेखी
नीति आयोग के दस्तावेजो के मुताबिक कृषि क्षेत्र के विकास की क्षमता को बढ़ाने के लिए विपड़न की लगातार अनदेखी की गई है। ऑनलाइन मार्केट विकसित करने के लिए काफी पहल हुई है लेकिन बेहतर बाजारों तक किसानों की पहुंच अब भी एक बड़ा प्रश्न है। APMC ऐक्ट में सुधार की रफ्तार काफी धीमी है और इस पर अधिकतर राज्यों की सहमती नहीं बन पाई है।

६. आधुनिक तकनीक नगण्य
महंगे आधुनिक तकनीकों तक किसानों की पहुंच सीमित है। नीति आयोग के पेपर के मुताबिक हाल के समय में कोई वास्तविक तकनीकी सफलता नहीं मिली है।

७. भंडारण एवं कोल्डस्टोरेज की भारी कमी
भंडारण एवं कोल्डस्टोरेज की काफी कमी है साथ ही उन तक पहुंचने के माध्यम भी सीमित हैं, अतः किसानों की समस्या और बढ़ गई है। OECD के अनुसार यही वजह है कि उत्पादन के बाद काफी फल और सब्जी (कुल का ४% से १६%) बर्बाद हो जाती है।

८. फूड प्रॉसेसिंग यूनिट का अभाव
किसानों को खेतों से अलग हट कर कुछ नया करने के लिए प्रोत्साहन की बस खानापूर्ति मात्र की जा रही है। OECD दस्तावेजो के अनुसार, फूड प्रॉसेसिंग में हाई-वैल्यू सेक्टर का शेयर काफी कम है। फल, सब्जियां और मीट उत्पाद कुल का ५% से ८% तक ही प्रॉसेस होता है जबकि अनाज आधारित उत्पाद का २१% और ऑइलसीड उत्पाद का सिर्फ १८% ही है।

९. FCI सुधारों में देरी
भारत सरकार के द्वारा नियुक्त एक पैनल ने सुझाव दिया है कि FCI गेहूं और धान की खरीद के सभी अधिकारों को उन राज्यों को सौंप दे, जिन राज्यों कों इस क्षेत्र का अनुभव है और जिन्होंने खरीद प्रक्रिया के लिए पर्याप्त आधार तैयार कर लिया हो। जिनमे से चार राज्य पूरी तरह आज तैयार हैं, जो हैं आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा और मध्य प्रदेश। सुझाव दिया गया है कि FCI की कायापलट की जाए और किसानों को सीधे कैश सब्सिडी दी जाए और उर्वरक क्षेत्र को विनियमित किया जाए।

१०. GDP में कमी
GDP में कृषि क्षेत्र का हिस्सा १९९० में २९% से २०१६ में १७% पर आ गया है मगर फिर भी यह क्षेत्र रोजगार का सबसे बड़ा जरिया है।

इनके अलावा और भी ना जाने कितने अवरोध हैं जो भारत के किसानों के विकास में बाधा बनते हैं। सबसे बड़ी बाधा तो कर्ज में डूबे किसान स्वयं हैं और उसपर से नेताओं के लोकलुभावन वादे, जो ना कभी पूरे हुवे हैं और शायद ना कभी पूरे हों।

धन्यवाद !

अश्विनी राय ‘अरूण’

नोट : यह लेख हमने सिर्फ कल के बारिश की वजह से लिखा है। धान के पके और कटे फसल को प्रकृति ने पूरी तरह से खलिहान में भीगा दिया जो अब सड़ने की अवस्था में आ गया है। दूसरी ओर गेहूं की बुवाई वाले पूरे खेत पानी से भर गए हैं। ये सभी जानते हैं गेहूँ बुवाई के इक्कीस दिन के बाद पानी सहता है। सो वह भी सड़ने की स्थित में है, मसूर चना आदि सभी फसल बर्बाद हो गए।

एक तरफ सरकार का अन्याय तो दूसरी ओर भगवान की दादागिरी… एन वक्त पर, एक साथ दोनों फसल बर्बाद।

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