देखने, जानने अथवा सुनने में श्रद्धा और भक्ति समान ही लगते हैं, परंतु इनमे सूत भर का अंतर है। कभी तो ऐसा जान पड़ता है कि दोनों में कोई अंतर ही नहीं है और कभी तो ये आपस में दूध-पानी की तरह इस प्रकार मिल जाते हैं कि उन्हें अलग से पहचानना कठिन हो जाता है। जबकी इसके उलट श्रद्धा अपने से श्रेष्ठ के प्रति होती है और भक्ति आराध्य के प्रति। अगर खुली आखों से जब देखा जाए तो दोनों में अति सूक्ष्म अंतर होते हैं और इनके अर्थ और भाव में भी काफी असमानता होती है। गुरु के प्रति किसी की श्रद्धा भी होती है और भक्ति भी, परंतु आराध्य के प्रति व्यक्ति की भक्ति ही रहती है। श्रद्धा अनुशासन में बंधी होती है और भक्ति दृढ़ता और अनन्यता के साथ अपने को न्योछावर करने को कहती है। श्रद्धा में आदर की सरिता बहती है, तो भक्ति में प्रेम का सागर लहराता रहता है।
श्रद्धा के भाव स्थिर होते हैं और भक्ति लहराती है। दोनों में विनय के भाव हैं, परंतु श्रद्धा भाव तर्क के ताने-बाने बुनता रहता है वहीं भक्ति अपने आराध्य के प्रति संपूर्ण समर्पण के साथ नतमस्तक होता है। अगर जुड़ाव की बात करें तो जिस प्रकार बादल के साथ पानी की बूंदे जुड़ी होती हैं, उसी प्रकार भक्ति के साथ श्रद्धा जुड़ी होती है। यहां भक्ति का पलड़ा सिर्फ इसलिए भारी है कि इसके साथ प्रेम का जुड़ाव भी है।
अब यहां एक और शब्द आ गया प्रेम, तो हम ‘प्रेम’ ,’श्रद्धा’ और ‘भक्ति’ ये तीनों शब्दों पर प्रकाश डालेंगे। देखने सुनने में ये तीनों एक जैसे अर्थ वाले हैं, पर ये बहुत ही सूक्ष्म अंतर लिए हुए हैं। आध्यात्म की नजर में ये तीनो शब्द गहरे अर्थ रखते हैं, असमानता होते हुए भी इनमे एक समनता है, वह यह की तीनो में दो पक्षों का होना ज़रूरी है। चाहे वे समान लिंग वाले हों अथवा विपरीत लिंगीय।
‘प्रेम’ भाई-भाई में होता है, भाई-बहन में होता है, माँ बाप से होता है, सम लिंगीय या विषम लिंगीय मित्र में होता है।
‘श्रद्धा’ में दो पक्षों में दोनों ही सम लिंगी या विषम लिंगी हो सकते हैं। इनमे एक श्रद्धालु और दूसरा श्रद्धेय है। इनके मध्य कि कड़ी को श्रद्धा कहते हैं। इसके बिना श्रद्धालु कभी भी श्रद्धेय के करीब नहीं पहुँच सकता। श्रद्धा रखने वाले (श्रद्धालु) के आगे तर्क का कोई स्थान नहीं होता और वह बिना सोचे समझे अपने श्रद्धेय को समर्पित हो जाता है। वह आँख मूँद कर अपने श्रद्धेय के कहने पर चलता है। प्रेम और श्रद्धा में अंतर, विद्वानों के अनुसार प्रेम मे घनत्व (गहराई) होता है जब की श्रद्धा में विस्तार (फैलाव) होता है, अर्थात आप जिससे प्रेम करते है,आप चाहेंगे की उससे कोई और प्रेम न करे वह सिर्फ मेरी ही होकर रहे, आप अपनी प्रेमिका के लिए जान भी दे सकते है। यदि आपकी प्रेमिका पर कोई और नजर डालता है तो आप उसका खून तक करने को भी तैयार हो जायेंगे या लडकी ने आपसे धोखा कर किसी और से प्यार करने की कोशिश की, तो आप उसे मार भी सकते हैं। कहने का मतलब यह है कि प्रेम में एक और एक का ही अनुपात चलता है। हिन्दी के रीति बद्ध और रीति मुक्त कवि ‘घनानंद’ राजदरबारी कवि थे और शाही रक्कासा (नर्तकी) ”सुजान” का प्यार इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। ठीक इसके विपरीत श्रद्धा मे आप जिसके प्रति श्रद्धा रखते है आप चाहेंगे की उनके श्रद्धालु ज्यादा हो उतना ही आपको अच्छा लगेगा। क्योंकि यहाँ यह मनोविज्ञान काम करता है कि श्रद्धालु को बेहद खुशी होती है कि वह जिसके प्रति श्रद्धा रखता है उसके तमाम श्रद्धालु या अनुयायी हों। संख्या बढ़ने से उसका मान जो बढ़ता है। श्रद्धा में एक और अनेक का अनुपात रहता है। आजकल के तथाकथित साधू और संतो के श्रद्धालुओ की भीड़ का उद्धाहरण लिया जा सकता है।
अब हम ‘भक्ति’ को लेंगे कि यह ‘भक्ति’ क्या है? अक्सर तो यह भक्त और भगवान में होता है अर्थात इसमे यह भी कहा जाता है की दो अलग-अलग स्तरों के लोगो के मध्य भी भक्त और भगवान वाला रिश्ता होता है इसलिए कभी कभी हम कहते सुने जाते है की फलां उसका भक्त है, परंतु यह स्वार्थो के कारण होता है, इसलिए हम केवल यहां भगवान और भक्त की भक्ति को ही ले कर चलेंगे। भक्त, भक्ति के सहारे जब करते-करते भगवान के इतने तो नजदीक आ जाता है की वह भगवान् को कुछ भी कह सकता है और भगवान उस भक्त का बुरा नहीं मानता। यह स्थिति तब बनती है जब भक्ति करते- करते भक्त ही भगवान बन जाता है, और वह भगवान् को कुछ भी कहने को स्वतंत्र हो जाता है। राम के भक्त तुलसीदास ऐसे ही भक्तो की श्रेणी में रखे गए है। भगवान् और भक्त का एक नमूना और है, अष्टछाप के कवियों में कुम्भनदास जी का नाम, वे कृषण भक्त थे जिनका नाम बड़े आदर और विश्वास से लिया जाता है। बताते है की वे भक्ति में ऐसे लीन हो जाते थे की उनकी पत्नी नहाने और खाना खाने के लिए उन पर पानी की भरी बाल्टी डालती थी तब उनका ध्यान टूटता था। तभी तो फतेहपुर सीकरी (आगरा) में अकबर राजा तक को उन्होंने कह दिया था की राजन आगे से मुझे अपने दरबार में कभी न बुलाना, क्योंकि इससे मेरी भक्ति में खलल पड़ता है। क्या कोई साधारण आदमी हिन्दोस्तान के सम्राट को ऐसा कह सकने का साहस कर सकता है? यह है उत्तम भक्ति का अनोखा उद्धाहरण।