April 9, 2025

बहरों को सुनाने के लिये विस्फोट के बहुत ऊँचे शब्द की आवश्यकता होती है।

यह उस पर्चे पर लिखा हुआ था, जो आज ही के दिन यानी ८ अप्रैल, १९२९ को सेन्ट्रल असेंबली बमकाण्ड के बाद दमनकारी कानून के विरोध में फेंका गया था। आईए हम आज के दिन के इस इतिहास को याद करते हैं…

अंग्रेज़ सरकार दिल्ली की असेंबली में ‘पब्लिक सेफ्टी बिल’ और ‘ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल’ लाने की तैयारी में थी। ये दोनों बहुत ही दमनकारी क़ानून थे और सरकार इन्हें पास करने का फैसला कर चुकी थी। शासकों का इस बिल को क़ानून बनाने के पीछे उद्देश्य था कि जनता में क्रांति का जो बीज पनप रहा है, उसे अंकुरित होने से पहले ही समाप्त कर दिया जाए। गंभीर विचार-विमर्श के पश्चात् ८ अप्रैल, १९२९ का दिन असेंबली में बम फेंकने के लिए तय हुआ और इस कार्य के लिए भगत सिंह एवं बटुकेश्र्वर दत्त निश्चित किए गए।

वैसे तो असेंबली के तकरीबन सभी सदस्य इस अत्याचारी कानून के खिलाफ थे, मगर वायसराय अपने विशेषाधिकार से पास करना चाहता था। इसलिए तय हुआ कि जब वायसराय पब्लिक सेफ्टी बिल को कानून बनाने के लिए प्रस्तुत करे, ठीक उसी समय धमाका किया जाए और ऐसा हुआ भी। जैसे ही बिल संबंधी घोषणा की गई तभी भगत सिंह ने बम फेंका। इसके पश्चात् क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास की सजा दी गई। भगत सिंह और उनके साथियों पर लाहौर षडयंत्र का मुकदमा भी उनके जेल में रहते ही चलने लगा। भागे हुए क्रांतिकारियों में प्रमुख राजगुरु पूना से गिरफ़्तार करके लिए गए। इस बमकांड का उद्देश्य किसी को हानि पहुँचाने का नहीं था, अतः बम असेम्बली के खाली स्थान पर ही फेंका गया था। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त बम फेंकने के बाद वहाँ से भागे भी नहीं थे अपितु स्वेच्छा से अपनी गिरफ्तारी भी उन्होंने दे दी। गिरफ्तारी से पहले तक उन्होंने वहाँ पर्चे भी बाटें। सुराग मिलने का बहाना बना कर अथवा झूठा केस बनाने के बाद लाहौर षड़यन्त्र केस के नाम से मुकदमा चलाया गया। ७ अक्टूबर, १९३० को फैसला आया, जिसके अनुसार राजगुरु, सुखदेव और भगत सिंह को फाँसी की सज़ा दी गई।

२३ मार्च, १९३१ की रात को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फाँसी पर लटका दिया गया। जानकारों के अनुसार मृत्युदंड के लिए २४ मार्च की सुबह ही तय थी, किन्तु जनाक्रोश से डरी अंग्रेजी सरकार ने २३-२४ मार्च की मध्य रात्रि को ही…. और रात के अंधेरे में ही सतलुज नदी के किनारे उनका अंतिम संस्कार भी कर दिया गया।

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