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क्रान्तिकारियों द्वारा चलाए जा रहे स्वतन्त्रता आन्दोलन को गति प्रदान करने के लिए धन की तत्काल व्यवस्था के लिए शाहजहांपुर में हुई बैठक के दौरान पंडित श्री रामप्रसाद बिस्मिल ने अंग्रेजी सरकार का खजाना लूटने की एक खतरनाक योजना बनाई। योजनानुसार दल के ही एक प्रमुख सदस्य राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी ने ९ अगस्त १९२५ को लखनऊ जिले के काकोरी रेलवे स्टेशन से छूटी “आठ डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर ट्रेन” को चेन खींच कर रोका और पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में अशफाक उल्ला खां, चन्द्रशेखर आज़ाद व ६ अन्य सहयोगियों की सहायता से ट्रेन पर धावा बोलते हुए सरकारी खजाना लूट लिया। बाद में अंग्रेजी सत्ता उनकी पार्टी हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के कुल ४० क्रान्तिकारियों पर सरकार के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध छेड़ने, सरकारी खजाना लूटने व यात्रियों की हत्या करने का प्रकरण चलाया जिसमें राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां तथा ठाकुर रोशन सिंह को मृत्यु-दण्ड (फांसी की सजा) सुनाई गई। इस प्रकरण में १६ अन्य क्रान्तिकारियों को कम से कम ४ वर्ष की सजा से लेकर अधिकतम काला पानी (आजीवन कारावास) तक का दण्ड दिया गया था।

 

 

काकोरी केस की दुर्लभ जानकारी…

पंडित राम प्रसाद बिस्मिल काकोरी कांड के प्रमुख अभियुक्त थे और पण्डित जगत नारायण मुल्ला- ब्रिटिश सरकार की ओर से सरकारी वकील थे, जिन्होंने क्रांतिकारियों को फांसी दिलवाने के लिए जी जान लगा दिया। वर्ष १९२६ को ब्रिटिश सरकार से काकोरी केस के लिए इन्हे ५०० रुपया प्रतिदिन मिलता था। सेशन कोर्ट के बाद जब ये केस चीफ कोर्ट मे गया तब भी सरकारी वकील यही थे। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि ये मोतीलाल नेहरू के भाई नन्दलाल नेहरू के समधी थे। नन्दलाल नेहरू के पुत्र किशनलाल नेहरू का विवाह जगत नारायण की पुत्री स्वराजवती मुल्ला से हुआ था।

 

वर्ष १९१६ की लखनऊ कांग्रेस की स्वागत-समिति के अध्यक्ष वही थे। लगभग १५ वर्षों तक लखनऊ नगरपालिका के अध्यक्ष रहे। मांटेग्यू चेम्सफ़ोर्ड सुधारों के बाद उत्तरप्रदेश कौंसिल के सदस्य निर्वाचित हुए और प्रदेश के स्वायत्त शासन विभाग के मंत्री बने। जगत नारायण मुल्ला ३ वर्ष तक लखनऊ विश्वविद्यालय के उपकुलपति भी रहे। जीवन का अंतिम समय इन्होंने स्विट्जरलैंड मे बिताया। ये ब्रिटिश के इतने खास थे कि जलियांवाला बाग की जांच के लिए बने हंटर आयोग के सदस्य भी थे। इनके लड़के आनंद नारायण मुल्ला बाद मे हाईकोर्ट के जज बने। कांग्रेस ने उसे राज्यसभा का सदस्य भी बनाया।

 

यहां एक और नाम का उल्लेख भी बेहद जरूरी है। जवाहरलाल नेहरू के खास गोबिंद वल्लभ पन्त ने क्रांतिकारियों का वकील बनने से इंकार कर दिया क्योंकि उन्हे ब्रिटिश सरकार द्वारा दी जाने वाली फीस कम लगी। वर्ष १९५४ मे पन्त उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री थे। उस कुम्भ मे ये नेहरू की आवभगत मे इतने लीन रहे कि कुम्भ मे हैजा फैल गया। सैकड़ों लोग मर गए। पन्त ने लावारिस की तरह उनका सामूहिक दाह संस्कार करवा दिया। सौभाग्य से एक पत्रकार के उस सामूहिक दाह संस्कार का फोटो ले लिया और यह मामला सार्वजनिक हो गया।

 

 

चंद्रभानु गुप्ता…

काकोरी कांड केस के बहाने रामप्रसाद बिस्मिल सहित सभी क्रान्तिकारियों को फांसी दिलाने के लिए ब्रिटिश सरकार ने उस समय तीन लाख रूपए खर्च किए थे। यह वह दौर था यानी वर्ष १९२७ का जब क्रांतिकारियों की वकालत करने के लिए कोई वकील तैयार नहीं होता था, तब चंद्रभानु गुप्ता नामक एक राष्ट्रभक्त उनकी केस लड़ने के लिए आगे आया।

 

परिचय

चंद्रभानु गुप्ता का जन्म १४ जुलाई, १९०२ को अलीगढ़ के बिजौली के एक आर्यसमाजी श्री हीरालाल जी के यहां हुआ था। चंद्रभानु भी आर्यसमाजी थे और जीवन पर्यंत आर्यसमाज के दिखाए गए मार्ग पर चलते रहे। उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन किया और कभी शादी नहीं की। इनकी शुरुआती पढ़ाई लखीमपुर खीरी में हुई और आगे की पढ़ाई के लिए वे लखनऊ चले आए, जहां से उन्होंने लॉ पूरा किया। लॉ की पढ़ाई पूरा करने के बाद लखनऊ में ही वकालत शुरू कर दी। देखते ही देखते उनकी वकालत चल निकली और वे एक जाने-माने वकील बन गए। उनकी प्रसिद्धि का प्रमुख कारण साइमन कमीशन का विरोध करना रहा। वे जेल भी गए, और वो भी दस बार। यही वह समय था जब काकोरी काण्ड हुआ और वो क्रांतिकारियों के बचाव दल के वकीलों में शामिल हो गए।

 

 

चंद्रभानु बनाम नेहरू…

वर्ष १९३७ के चुनाव में वो उत्तरप्रदेश विधान सभा के सदस्य चुने गए। स्वतन्त्रता पूर्व वर्ष १९४६ में बनी पहली प्रदेश सरकार में वो गोविंद बल्लभ पंत के मंत्रिमंडल में पार्लियामेंट्री सेक्रेटरी के रूप में सम्मिलित हुए। वर्ष १९४८ से १९५९ तक उन्होंने कई विभागों के मंत्री के रूप में भी काम किया।

 

चंद्रभानु नेहरू के सोशलिज्म से बिलकुल प्रभावित नहीं थे, अतः नेहरू इनको बिल्कुल पसंद नहीं करते थे। परन्तु यूपी कांग्रेस में चंद्रभानु का इतना अधिक प्रभाव था कि विधायक पहले चंद्रभानु के सामने नतमस्तक होते थे, बाद में नेहरू के सामने साष्टांग।

 

वर्ष १९६३ में के. कामराज ने नेहरू को सलाह दी कि कुछ लोगों को छोड़कर सारे कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों को रिजाइन कर देना चाहिए, जिससे कि स्टेट सरकारों को फिर से ऑर्गेनाइज किया जा सके। कहा गया कि कुछ दिन के लिए पद छोड़ दीजिए, पार्टी के लिए काम करना है। परन्तु चंद्रभानु को यह पता था कि नेहरू जिसको पसंद नहीं करते उसे हटाने की साजिश हो रही है, उन्होंने साफ मना कर दिया। परन्तु पार्टी के बाकी नेताओं द्वारा इनको समझा लिया गया कि ये कुछ दिनों की बात है आपको फिर से मुख्यमंत्री बना दिया जाएगा, परन्तु वो दिन नहीं आया। उनके स्थान पर सुचेता कृपलानी को मुख्यमंत्री बना दिया गया, जबकि सुचेता कृपलानी का उत्तरप्रदेश से दूर दूर तक कोई संबंध नहीं था। और दूसरी तरफ यह हवा उड़ाई गई कि गुप्ता ने खूब पैसा बनाया है, जबकि सच्चाई यह थी कि जब वे मरे तो उनके अकाउंट में मात्र दस हजार रुपए थे। यह थी नेहरू के विरुद्ध खड़े होने की सजा।

 

काकोरी कांड

 

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