धर्मराजिका स्तूप का निर्माण अशोक ने करवाया था। दुर्भाग्यवश १७९४ ई. में जगत सिंह के आदमियों ने काशी का प्रसिद्ध मुहल्ला जगतगंज बनाने के लिए इसकी ईंटों को खोद डाला था। खुदाई के समय ८.२३ मी. की गहराई पर एक प्रस्तर पात्र के भीतर संगरमरमर की मंजूषा में कुछ हड्डिया: एवं सुवर्णपात्र, मोती के दाने एवं रत्न मिले थे, जिसे उन्होंने विशेष महत्त्व का न मानकर गंगा में प्रवाहित कर दिया। यहाँ से प्राप्त महीपाल के समय के १०२६ ई. के एक लेख में यह उल्लेख है कि स्थिरपाल और बसंतपाल नामक दो बंधुओं ने धर्मराजिका और धर्मचक्र का जीर्णोद्धार किया।
१९०७-०८ ई. में मार्शल के निर्देशन में खुदाई से इस स्तूप के क्रमिक परिनिर्माणों के इतिहास का पता चला। इस स्तूप का कई बार परिवर्द्धन एवं संस्कार हुआ। इस स्तूप के मूल भाग का निर्माण अशोक ने करवाया था। उस समय इसका व्यास १३.४८ मी. यानी ४४ फुट ३ इंच था। इसमें प्रयुक्त कीलाकार ईंटों की माप १९.५ इंच X १४.५ इंच X २.५ इंच और १६.५ इंच X १२.५ इंच X ३.५ इंच थी। सर्वप्रथम परिवर्द्धन कुषाण-काल या आरंभिक गुप्त-काल में हुआ। इस समय स्तूप में प्रयुक्त ईंटों की माप १७ इंच X १०.५ इंच X २.७५ इंच थी। दूसरा परिवर्द्धन हूणों के आक्रमण के पश्चात् पाँचवी या छठी शताब्दी में हुआ। इस समय इसके चारों ओर १६ फुट यानी ४.६ मीटर चौड़ा एक प्रदक्षिणा पथ जोड़ा गया। तीसरी बार स्तूप का परिवर्द्धन हर्ष के शासन-काल में हुआ। उस समय स्तूप के गिरने के डर से प्रदक्षिणा पथ को ईंटों से भर दिया गया और स्तूप तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ लगा दी गईं। चौथा परिवर्द्धन बंगाल नरेश महीपाल ने महमूद ग़ज़नवी के आक्रमण के दस वर्ष बाद करवाया। अंतिम पुनरुद्धार लगभग १११४ ई. से ११५४ ई. के मध्य हुआ। इसके पश्चात् मुसलमानों के आक्रमण ने सारनाथ को नष्ट कर दिया।
उत्खनन से इस स्तूप से दो मूर्तियाँ मिलीं। ये मूर्तियाँ सारनाथ से प्राप्त मूर्तियों में मुख्य हैं। पहली मूर्ति कनिष्क के राज्य संवत्सर ३ में स्थापित विशाल बोधिसत्व प्रतिमा और दूसरी धर्मचक्रप्रवर्तन मुद्रा में भगवान बुद्ध की मूर्ति। ये मूर्तियाँ सारनाथ की सर्वश्रेष्ठ कलाकृतियाँ हैं।