November 21, 2024

भारत का हर एक नागरिक चाहे वह बच्चा हो या बड़ा, स्त्री हो या पुरुष १५ अगस्त, १९४७ के दिन से भली भांति परिचित है, उस दिन जहां देशवासियों में आजादी की बेपनाह खुशी थी तो वहीं बंटवारे का बेइंतहा दर्द भी था। और ये दर्द तब और भी बढ़ गया, जब स्वतंत्र होने के बाद भी भारत को यह पता चला कि वह एक राष्ट्र के बजाय स्वतंत्र रियासतों में अब भी बंटा हुआ है, जो एक षड़यंत्र के तहत जान बूझकर लार्ड लुई माउण्टबेटन का किया धरा था, जिससे स्वतंत्र हुए सारे भूखंड, खण्ड खण्ड में बंटे रहें और उनकी आपसी सीमा विवाद वर्षो तक चलती रहे और ये मजबूती से कभी भी खड़े ना हो सकें, जैसे कि आज भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश की स्थिति है। परंतु उन्हें यह कहां पता था कि सरदार पटेल लगभग ५६५ देशी रियासतों को एक दिन भारत में मिलाकर भारत को एक सूत्र में बांध लेंगे और भारत को मौजूदा स्वरूप दे पाएंगे। इसीलिए कृतज्ञ राष्ट्र अपने कुशल प्रशासक यानी सरदार वल्लभ भाई पटेल को ’लौह पुरुष‘ के रूप में आज भी याद करता है।

रियासतों का विलय…

स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देश में तकरीबन ५६५ देशी रियासतें थीं। उस समय सरदार पटेल अंतरिम सरकार में उपप्रधानमंत्री के साथ देश के गृहमंत्री भी थे। जूनागढ, हैदराबाद और कश्मीर को छोड़कर सभी ५६२ रियासतों ने स्वेच्छा से भारतीय परिसंघ में शामिल होने की स्वीकृति दी थी।

वास्तव में, माउण्टबैटन ने जो प्रस्ताव भारत की आजादी को लेकर जवाहरलाल नेहरू के सामने रखा था उसमें ये प्रावधान था कि भारत के ५६५ रजवाड़े भारत या पाकिस्तान में से किसी एक में विलय को चुनेंगे और वे चाहें तो दोनों के साथ न जाकर अपने को स्वतंत्र भी रख सकेंगे। इन ५६५ रजवाड़ों जिनमें से अधिकांश प्रिंसली स्टेट यानी ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य का हिस्सा थे, में से भारत के हिस्से में आए रजवाड़ों ने एक-एक करके विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए, या यूँ कह सकते हैं कि सरदार वल्लभ भाई पटेल तथा वीपी मेनन ने हस्ताक्षर करवा लिए और बचे रह गए – हैदराबाद, जूनागढ़, कश्मीर और भोपाल।

जूनागढ़, काश्मीर तथा हैदराबाद तीनों राज्यों को सेना की मदद से विलय करवाया गया किन्तु भोपाल में इसकी आवश्यकता नहीं पड़ी, क्योंकि पटेल और वीपी मेनन को पता था कि भोपाल को अंतत: मिलना ही होगा। और भोपाल का विलय हुआ भी, किंतु सबसे अंत में।

हैदराबाद…

हैदराबाद सभी रियासतों में सबसे बड़ी एवं सबसे समृद्धशाली रियासत थी, जो दक्कन पठार के अधिकांश भाग तक फैली थी। इस रियासत की अधिसंख्यक जनसंख्या हिंदू थी, जिस पर एक मुस्लिम शासक निजाम मीर उस्मान अली का शासन था। इसने एक स्वतंत्र राज्य की मांग की एवं भारत में शामिल होने से मना कर दिया, उसके पीछे जिन्ना का आश्वासन प्राप्त था, कि जरूरत पड़ने पर हम तुम्हारे साथ रहेंगे। दूसरी तरफ निजाम लगातार यूरोप से हथियारों के आयात को जारी रखे हुए था। इस प्रकार भारत और पटेल की उलझनें लगातार बढ़ती ही जा रही थी। पटेल ने कई बार मध्यस्थों से निवेदन प्रस्ताव भेजा तथा कई बार तो निजाम को धमकियाँ भी दी, मगर वे सफल ना हो सके। परिस्थितियाँ तब और भी भयावह हो गईं, जब सशस्त्र कट्टरपंथियों ने हैदराबाद की हिंदू प्रजा पर हिंसक वारदातें शुरू कर दीं। अब पटेल को पास कोई चारा नहीं रह गया सिवाय सशस्त्र संघर्ष के। और एक दिन वो समय आ ही गया, यानी १३ सितंबर, १९४८ को ‘ऑपरेशन पोलों’ के तहत भारतीय सैनिकों को हैदराबाद भेजा गया।

हैदराबाद राज्य का संक्षिप्त इतिहास…

आजादी के उपरांत सरदार पटेल अगर सैन्य कार्रवाई शुरू ना करते, तो आज भारत के ठीक मध्य में एक दूसरा देश होता, जिसका क्षेत्रफल २३९३१४ वर्ग किलोमीटर होता, यानी उत्तरप्रदेश के लगभग बराबर।

हैदराबाद का निजाम एक तुर्की मुसलमान था, जो मुगल शासकों के अधीन दक्षिण की जिम्मेदारी संभालता था। कालांतर में जब मुगल कमजोर पड़ने लगे तो निजाम ने स्वयं को सेनापति घोषित कर दिया, मगर यह उसकी एक राजनीतिक चाल थी। वो मुगलों के बजाय स्वयं को मजबूत करने लगा। और फिर वर्ष १७२० को कमरुद्दीन खान ने मुगलिया राज्य से अलग हैदराबाद राज्य का ऐलान कर दिया, जिसमे अविभाजित आंध्रप्रदेश समेत कर्नाटक और महाराष्ट्र के कुछ हिस्से भी आते थे। धीरे धीरे हैदराबाद भारत का सबसे अमीर राज्य बन गया और उसका निजाम सारे संसार का सबसे अमीर आदमी। निजाम को अमीर बनाने में गोलकुंडा के हीरे की खानों का काफी योगदान था। हैदराबाद राज्य ने कालांतर में अपनी अलग रेलवे लाइन, अपनी निजी एयरलाइंस, अपना अलग रेडियो स्टेशन आदि सब कुछ तैयार कर लिया था।

हैदराबाद के इतिहास में एक समय ऐसा भी आया था, जब मराठों ने निजाम से चौथ वसूली थी, लेकिन वह समय इतिहास के काल खंड के बहुत ही छोटा था और बाजीराव के जाने के बाद जब मराठे कमजोर हो गए तो वह फिर से हैदराबाद अपनी शक्ति के साथ राज्य करने लगा, मगर वर्ष १७९८ में उसे ब्रिटिश आधिपत्य को स्वीकारना पड़ा। निजाम आसफ अली द्वितीय ने अंग्रेजों के साथ संधि पर हस्ताक्षर कर दिए। और हैदराबाद अंग्रेजी मिल्कियत बन गई।

समय तेजी से गुजरा और जब भारत के स्वतंत्रता की बात हो रही थी, तो हैदराबाद स्वयं को स्वतंत्र रखने की चाहत लिए हुए था। वहां उस समय ८५ फीसदी हिंदू थे, परंतु प्रशासन में ९० फीसदी मुसलमान थे। हैदराबाद ही वह विषय था, जिसे लेकर सावरकर और गांधीजी के रिश्ते कभी भी मीठे नहीं हो सके। जहां एक तरफ हैदराबाद शासन में हिंदुओं की संख्या बढ़ाने के लिए सावरकर ने आंदोलन किया, तो गांधीजी ने आंदोलन में भाग लेने से साफ मना कर दिया, इसके जवाब में सावरकर ने भी भारत छोड़ो आंदोलन में सहयोग करने से मना कर दिया।

इधर एक साल के लिए स्टेंडस्टिल एग्रीमेंट के बावजूद सरदार पटेल को निजाम उस्मान अली पर भरोसा नहीं था। उन्होंने एक सीक्रेट इन्वेस्टीगेशन टीम को निजाम के मन की थाह लेने के काम पर लगाया। तो पता चला कि निजाम पाकिस्तान से दोस्ती बढ़ा रहा है, उनके कराची पोर्ट को इस्तेमाल करने का एग्रीमेंट करने जा रहा और पाकिस्तान को बिना ब्याज के बीस करोड़ का कर्ज देने वाला है और पाकिस्तान उस पैसे को भारत के साथ कश्मीर की जंग में इस्तेमाल करने वाला था ताकि उससे हथियार खरीद सके। पटेल ने फौरन एक्शन लिया और निजाम को एग्रीमेट की याद दिलाई, जो नवम्बर तक लागू था। निजाम ने पैसे की मदद तो पाकिस्तान को रोक दी, लेकिन एक नए तरीके से जंग छेड़ दी। आज जिसे आप ओबेसी के संगठन एआईएमआईएम के तौर पर जानते हैं, वो संगठन कभी मजलिस एक इत्तिहादुल मसलिमीन यानी एमआईएम के नाम से शुरू हुआ था। रजाकारों का ये संगठन उन मुस्लिमों का था, जो हैदराबाद को खलीफा के राज्य के तौर पर देखना चाहते थे। इसके सिपाहियों को रजाकार कहा जाता था। उस वक्त इस संगठन का मुखिया कासिम रिजवी था। रिजवी ने दो लाख ऐसे रजाकारों को सैन्य ट्रेनिंग देनी शुरू की, जो हैदराबाद रियासत के लिए अपनी जान दे सकें। इधर राज्य के हिंदू यह सोचकर परेशान थे कि हैदराबाद अगर भारत में नहीं मिला तो उनका भविष्य क्या होगा?

ऑपरेशन पोलो…

ऑपरेशन शुरू करने से पहले सरदार पटेल ने एक बार रिजवी से मुलाकात भी की, तो रिजवी ने उनसे काफी रूखा व्यवहार किया। अब तो वो स्वयं को जिन्ना की तरह समझने लगा, उसने अपने भाषणों में दूसरे डायरेक्ट एक्शन की बातें करने लगा। जिसका सीधा असर यह हुआ कि हिंदुओं के खिलाफ हिंसा होने लगी, पूरे हैदराबाद राज्य में हिंदू आतंक के साए में जीने लगे, जुलाई अगस्त के महीने में ही हजार के लगभग बलात्कार और तकरीबन ५०० लोगों की हत्या की गई, अनगिनत लूट और दंगे की वारदातें हुईं तो पटेल अब रुक नहीं पाए। सितम्बर के पहले हफ्ते में इंडियन आर्मी के आला अफसरों के साथ सरदार पटेल ने मीटिंग रखी। जबकि नेहरू पुलिस एक्शन के खिलाफ थे, मगर पटेल ने नेहरू की राय को दरकिनार करते हुए एक्शन लेने का जो मन बना लिया था, उस पर वे कायम रहे और सेना को हरी झंडी दिखा दी।

मेजर जनरल चौधरी की अगुवाई में ३६००० भारतीय सैनिक १३ सितम्बर को सुबह ४ बजे राज्य में प्रवेश किया। पहली लड़ाई सोलापुर सिकंदराबाद राजमार्ग पर नालदुर्ग किले में पहली हैदराबाद इन्फैंट्री के बचाव दल और सातवीं ब्रिगेड के हमलावारों के मध्य लड़ी गई। गति का आश्चर्यजनक उपयोग करते हुए, भारतीय सेना ने अव्यवस्थित और नकारा हैदराबादी सेना को हरा दिया और नालदुर्ग किले को अपने अधीन सुरक्षित कर लिया। पहले दिन का हाल समाचार यह रहा कि भारतीयों द्वारा पश्चिमी मोर्चे पर हैदराबादी सेना को भारी नुकसान हुआ और उनके हाथ से एक बड़ा क्षेत्र निकल गया।

१४ सितंबर को, उमरगे में डेरा डालने वाला बल ४८ किमी पूर्व में राजेश्वर शहर के लिए रवाना हुआ, जिसे पहले से ही हवाई टोही के टेम्पेस्ट विमानों ने रास्ता बना दिया था। भूमि बलों को यह आदेश था कि दोपहर तक राजेश्वर पहुंचना है और उसे अपने अधीन सुरक्षित करना है। सेना ने आदेशानुसार कार्य को सही तरह से अंजाम दिया। उसके बाद जालना शहर पर कब्जा करने के लिए ३/११ गोरखाओं की एक कंपनी को छोड़कर, शेष बल लातूर चले गए, और उसके बाद वे वहां से मोमिनाबाद को निकल लिए, जहां उन्हें गोलकुंडा लांसर्स के खिलाफ कार्रवाई का सामना करना पड़ा।

१५ सितंबर को, आत्मसमर्पण करने से पूर्व गोलकुंडा लांसर्स प्रतिरोध किया था, जिनमें से अधिकांश प्रतिरोध रजाकार इकाइयों से था जिन्होंने शहरी क्षेत्रों से गुजरते हुए भारतीयों पर घात लगाकर हमला किया था।

१६ सितंबर को, भारतीय सेना के समक्ष रजाकार इकाइयों सहित गोलकुंडा लांसर्स ने समर्पण कर दिया।

१७ सितंबर की तड़के भारतीय सेना बीदर में प्रवेश कर गई। इस बीच, सेना की पहली बख़्तरबंद रेजिमेंट हैदराबाद से लगभग ६० किलोमीटर दूर चित्याल शहर में अपना डेरा जमा चुकी थी, जबकि एक अन्य दल ने हिंगोली शहर पर कब्जा कर लिया था।

जब पूरी तरह से स्पष्ट हो गया कि हैदराबादी सेना सहित रजाकारों का सभी मोर्चों पर भारी नुकसान हो चुका है और अब वे उस स्थिति में नहीं हैं कि भारतीय सेना से सामना कर सकें तो, १७ सितंबर को शाम पांच बजे निज़ाम ने युद्धविराम की घोषणा कर दी। इस प्रकार भारतीय सेना की सशस्त्र कार्रवाई समाप्त हो गई।

ऑपरेशन बमुश्किल १०८ घंटे तक चला था। १७ सितंबर को लाइक अली और उनके मंत्रिमंडल ने अपना इस्तीफा दे दिया। मेजर-जनरल चौधरी ने १८ सितंबर को सैन्य गवर्नर के रूप में कार्यभार संभाला। लाइक अली मंत्रालय के सदस्यों को नजरबंद रखा गया। एमआईएम के चीफ रिजवी को १९ सितंबर को गिरफ्तार किया गया। रिजवी को उम्रकैद की सजा दी गई, लेकिन एक राहत भी दी गई कि अगर वो पाकिस्तान चला जाए तो उसकी सजा कम भी हो सकती है। ९ वर्ष बाद १९५७ को वो पाकिस्तान चला गया, लेकिन जाने से पूर्व एक हरकत कर गया। वह एक बार हैदराबाद आया और अब्दुल वाहिद ओबेसी को एमआईएम की जिम्मेदारी सौंप गया। ओबैसी ने उसमें ऑल इंडिया शब्द जोडकर AIMIM बना दिया। आज भी पार्टी वही ओबैसी परिवार चला रहा है। ऑपरेशन के दौरान पूरे भारत में एक भी सांप्रदायिक घटना घटित नहीं हुई थी। हैदराबाद प्रकरण के तेजी से और सफलतापूर्वक समाप्त होने पर विश्वभर में हर्ष का माहौल था और देश के सभी हिस्सों से भारत सरकार को बधाई संदेश आने लगे।

विद्यावाचस्पति अश्विनी राय ‘अरुण’

महामंत्री, अखिल भारतीय साहित्य परिषद्, बक्सर (बिहार)

ग्राम : मांगोडेहरी, डाक : खीरी

जिला: बक्सर (बिहार)

पिन कोड : ८०२१२८

मो. : ७७३९५९७९६९

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