November 21, 2024

बात ४ जनवरी, १९९० की है, जब कश्मीर के प्रत्येक हिंदू घरों पर एक नोट चिपकाया गया था, और जिस पर मोटे मोटे अक्षरों में लिखा हुआ था- कश्मीर छोड़ के नहीं गए तो मारे जाओगे।

और फिर शुरु हुआ मौत का तांडव, सबसे पहले हिंदू नेता और उच्च अधिकारी मारे गए। फिर हिंदुओं की स्त्रियों को उनके परिवार के सामने सामूहिक दुष्कर्म कर जिंदा जला दिया गया या निर्वस्त्र अवस्था में पेड़ से टांग दिया गया। बालकों को पीट-पीट कर मार डाला गया। यह खौफनाक मंजर देखकर कश्मीर से ३.५ लाख हिंदू पलायन कर गए। मगर संसद, सरकार, नेता, अधिकारी, लेखक, बुद्धिजीवी, समाजसेवी और पूरा देश सभी चुप रहे। और इधर कश्मीरी पंडितों पर जुल्म पे जुल्म होते रहे। हम भी चुप रहे, तुम भी चुप रहे, समूचा राष्ट्र खुली आंखों से सोता रहा और हमारी राष्ट्रीय सेना हांथ बांधे देखती रही। राज्य सरकार की बात तो जाने ही दो केंद्र में भी सरकारें बदलीं मगर काश्मीर में बेघर कर दिए कश्मीरी पंडितों का जीवन नहीं बदला, आज ३२ वर्षों के बाद भी। हां कुछ लोग गाहे बगाहे इस विषय को उठाते हैं, चाहे आलेख लिखकर, चाहे फिल्म और टेलीविजन धारावाहिक बना कर या महफिल में उठाकर तो जानते हैं उस विषय पर हमारे देशवासी क्या करते हैं, आलेख अथवा आर्टिकल वाले पेज पर चना बादाम खाकर किसी कचरे के डब्बे में फेंक देते हैं। उस फिल्म या डाक्यूमेंट्री को देखने के बजाय शाहरुख और सलमान आदि की फिल्म देखन ज्यादा पसंद करते हैं। सीरियल को सास बहू, फूहड़ हास्य धारावाहिकों से बदल लेते हैं। महफिल के दौरान क्रिकेट, राजनीति, फिल्म और चाटुकारिता अथवा चुगलाखोरी को उस गंभीर विषय के आगे रख अपनी शान समझते हैं। मगर फिर भी कुछ दिनों के अंतराल पर ही सही, एक पागल उठता और जोर से चिल्ला चिल्ला कर लोगों को जगाता है, कश्मीरी पंडितों के हालातों से एक बार पुनः बताता है, आइए आज हम आपको बताते हैं, देश की दुखती रग पर हाथ रखते हैं….

इतिहास…

कश्मीरी पंडित; मुस्लिम प्रभाव क्षेत्र में प्रवेश करने से पूर्व कश्मीर घाटी के मूल निवासी थे, जो कालांतर में जान, मान और परिवार की कीमत पर बड़ी संख्या में इस्लाम में परिवर्तित हो गए। और जो किसी तरह बच गए, वे कश्मीर में केवल शेष कश्मीरी हिंदू समुदाय के मूल निवासी मात्र बन कर रह गए हैं। उनके इतिहास को हम तीन भागों में बांट कर देखेंगे…

१. आरंभिक इतिहास…

अत्याचार की यह कहानी शुरू होती है १४वीं शताब्दी से, जब तुर्किस्तान से आये एक क्रूर आतंकी आक्रमणकारी दुलुचा ने साठ हजार की संख्या वाली सेना के साथ कश्मीर पर आक्रमण कर दिया और कश्मीर में सर्वप्रथम मुस्लिम पैठ की शुरुआत की। दुलुचा ने नगरों और गाँव को नष्ट किया। हिन्दुओ को जबरदस्ती मुस्लिम बनाया और जो हिन्दू इस्लाम कबूल करना नहीं चाहते थे उनका नरसंहार किया। अथवा उन्होंने स्वयं ही जहर खा ली या भाग गए। आज कश्मीर में जो भी मुस्लिम हैं उन सभी के पूर्वज अत्याचार पूर्वक जबरदस्ती मुस्लिम बनाए गए थे।

२. आजादी के बाद…

भारत के विभाजन के तुरंत बाद ही कश्मीर पर पाकिस्तान ने कबाइलियों के साथ मिलकर आक्रमण कर दिया और बेरहमी से कई दिनों तक कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार किए गए, क्योंकि पंडित नेहरू ने सेना को आदेश देने में बहुत देर कर दी थी। इस देरी के कारण जहां पकिस्तान ने कश्मीर के एक तिहाई भू-भाग पर कब्जा कर लिया, वहीं उसने कश्मीरी पंडितों का कत्लेआम कर उसे पंडित विहीन कर दिया। अब जो भाग रह गया वह अब भारत के जम्मू और कश्मीर प्रांत का एक खंड है और जो पाकिस्तान के कब्जे वाला है, उसे पाक अधिकृत कश्मीर या गुलाम कश्मीर कहा जाता है, जहां से कश्मीरी युवकों को धर्म के नाम पर भारत के खिलाफ भड़काकर कश्मीर में आतंकवाद फैलाया जाता है।

अब बारी आती है बाकी के कश्मीर की, तो कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार का सिलसिला ८० के दशक में ही शुरू हुआ, जब वर्ष १९८६ में गुलाम मोहम्मद शाह ने अपने बहनोई फारुख अब्दुल्ला से सत्ता छीन ली और जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बन गया। खुद को सही ठहराने के लिए उसने एक खतरनाक निर्णय लिया। उसने ऐलान कराया कि जम्मू के न्यू सिविल सेक्रेटेरिएट एरिया में एक पुराने मंदिर को गिराकर भव्य शाह मस्जिद बनवाई जाएगी। तो लोगों ने प्रदर्शन किया, कि ये नहीं होगा। जवाब में कट्टरपंथियों ने नारा दे दिया कि इस्लाम खतरे में है। इसके बाद कश्मीरी पंडितों पर धावा बोल दिया गया। साउथ कश्मीर और सोपोर में सबसे ज्यादा हमले हुए। जोर इस बात पर रहता था कि प्रॉपर्टी लूट ली जाए। हत्यायें और रेप तो आम बात हो गई थी।

कश्मीर को भारत से अलग करने के लिए जुलाई १९८८ को जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट बनाया गया। कश्मीरियत अब सिर्फ मुसलमानों की रह गई। पंडितों की कश्मीरियत को भुला दिया गया। १४ सितंबर, १९८९ को भाजपा के नेता पंडित टीका लाल टपलू को कई लोगों के सामने मार दिया गया। हत्यारे पकड़ में नहीं आए। ये कश्मीरी पंडितों को वहां से भगाने को लेकर पहली हत्या थी। जुलाई से नवंबर १९८९ के मध्य ७९ अपराधियों को जेल से रिहा किया गया। इसका जवाब नेशनल कॉन्फ्रेंस की सरकार के मुखिया फारुख अब्दुल्ला से पुछा गया तो उसने कोई जवाब नहीं दिया। नारे लगाए जाते थे- हम क्या चाहते हैं…आजादी। आजादी का मतलब क्या, ला इलाहा इल्लाह। अगर कश्मीर में रहना होगा, अल्लाहु अकबर कहना होगा। ऐ जालिमों, ऐ काफिरों, कश्मीर हमारा है। यहां क्या चलेगा? निजाम-ए-मुस्तफा रालिव, गालिव या चालिव। (हमारे साथ मिल जाओ, मरो या भाग जाओ)।

३. वर्ष १९९० का पलायन…

कश्मीर के प्रत्येक हिंदू घर पर ४ जनवरी, १९९० को एक नोट चिपकाया गया, जिस पर लिखा था- कश्मीर छोड़ के नहीं गए तो मारे जाओगे। सबसे पहले हिंदू नेता एवं उच्च अधिकारी मारे गए। फिर हिंदुओं की स्त्रियों को उनके परिवार के सामने सामूहिक दुष्कर्म कर जिंदा जला दिया गया या निर्वस्त्र अवस्था में पेड़ से टांग दिया गया। बालकों को पीट-पीट कर मार डाला। यह मंजर देखकर कश्मीर से ३.५ लाख हिंदू पलायन कर गए। जिसे देखकर भी हिंदुस्तानी संसद, भारत सरकार, तथाकथित हिंदू नेता, ताकतवर अधिकारी, प्रबुद्ध लेखक, बुद्धिजीवी समाज, मशहूर समाजसेवी और देश की बड़बोली जनता सभी की जबान तलवे से चिपक गए थे। कश्मीरी पंडितों पर जुल्म पर जुल्म होते रहे परंतु समूचा महान राष्ट्र और हमारी तमगेदार राष्ट्रीय सेना बस देखती रही।

यह विडंबना देखिए कि उसी दिन यानी ४ जनवरी, १९९० को उर्दू अखबार आफताब में हिज्बुल मुजाहिदीन ने छपवाया कि सारे पंडित कश्मीर की घाटी छोड़ दें। यह पत्रकारिता की हद थी कि अखबार अल-सफा ने इसी चीज को दोबारा छापा। चौराहों और मस्जिदों में लाउडस्पीकर लगाकर कहा जाने लगा कि पंडित यहां से चले जाएं, नहीं तो बुरा होगा। इसके बाद लोग लगातार हत्यायें औऱ रेप करने लगे। कहते कि पंडितो, यहां से भाग जाओ, पर अपनी औरतों को यहीं छोड़ जाओ – असि गछि पाकिस्तान, बटव रोअस त बटनेव सान (हमें पाकिस्तान चाहिए। पंडितों के बगैर, पर उनकी औरतों के साथ।) गिरजा टिक्कू का गैंगरेप कर मार दिया गया। ऐसी ही अनेक घटनाएं वहां होने लगी। पर सरकारी रिकॉर्ड में उसका कहीं पता नहीं। एक आतंकवादी बिट्टा कराटे ने अकेले २० लोगों को मारा था, जिसे वह बड़े घमंड से सुनाया करता। जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट इन सारी घटनाओं में सबसे आगे था। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक ६० हजार परिवार कश्मीर छोड़कर भाग गये। १९ जनवरी, १९९० को सबसे ज्यादा लोग यानी लगभग ४ लाख लोग विस्थापित हुए थे।

खोखले दावे…

विस्थापित परिवारों के लिए तमाम राज्य सरकारें और केंद्र सरकार तरह-तरह के पैकेज निकालती रहती हैं। कभी घर देने की बात करते हैं, तो कभी पैसा। मगर उनका हक दिलाने की बात कोई नहीं करता है। ३२ वर्षों में मात्र एक परिवार वापस लौटा है। क्योंकि १९९० के बाद भी कुछ लोगों ने वहां रुकने का फैसला किया था। पर १९९७, १९९८ और २००३ में फिर नरसंहार हुए। हालांकि नरेंद्र मोदी की सरकार ने वर्ष २०१५ में कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास के लिए २ हजार करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा की थी, परंतु इतने लोगों का इससे क्या होगा। कितने फ्लैट मिलेंगे और कितनी नौकरियां बटेंगी। सबसे बड़ी बात कि अपराधियों के बारे में कोई बात नहीं होती है।

विस्थापित कश्मीरी पंडितों के संगठन पनुन कश्मीर के नेता डॉ. अजय चरंगु का कहना है कि कश्मीरी पंडितों की कश्मीर की सियासत में कोई निर्णायक भूमिका नहीं रह गई है। हम लोगों को बडे़ ही सुनियोजित तरीके से हाशिये पर धकेला गया है। डॉ. चरंगु के अनुसार कश्मीरी पंडितों को वादी में बसाने लायक जिस माहौल की जरूरत है वह कोई तैयार नहीं कर रहा है। प्रधानमंत्री का कश्मीरी पंडितों की वापसी के लिए घोषित पैकेज भी सरकारी लालफीताशाही के फेर में ही फंसा हुआ है। बेरोजगारी और मुफलिसी के बीच जी रहे कश्मीरी पंडित पहले अपनी जान बचाएंगे या सियासी हक के लिए लड़ेंगे? एक अन्य कश्मीरी नेता चुन्नी लाल कौल के अनुसार सभी को कश्मीरियत का शब्द बड़ा अच्छा लगता है, लेकिन हमारे लिए यह कोई मायने नहीं रखता।

पनुन कश्मीर…

ये विस्थापित हिंदुओं का संगठन है। इसकी स्थापना वर्ष १९९९ के दिसंबर माह में की गई थी। संगठन की मांग है कि कश्मीर के हिंदुओं के लिए घाटी में अलग राच्य का निर्माण किया जाए। पनुन कश्मीर का अर्थ है हमारे खुद का कश्मीर। वह कश्मीर जिसे हमने खो दिया है उसे फिर से हासिल करने के लिए संघर्ष करना। पनुन कश्मीर, कश्मीर का वह हिस्सा है, जहां घनीभूत रूप से कश्मीरी पंडित रहते थे। पनुन कश्मीरी यूथ संगठन एक अलगाववादी संगठन है, जो सात लाख से अधिक कश्मीरी पंडितों के हक के लिए लड़ाई लड़ रहा है।

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