InShot_20251003_194128777

निराला के जीवन और साहित्य से जुड़े किस्सों में उनकी दरियादिली के कई उदाहरण मिलते हैं, जैसे कि एक मद्रासी युवक को चादर उधार देना और बाद में उसका वापस मिलना, जो उन्हें “कला का जीवित रूप” देखने का अनुभव देता है। उनके अख़बार से जुड़े संघर्ष, ‘मतवाला’ और ‘समन्वय’ पत्रिकाओं का संपादन, चित्रकूट में साहित्य साधना, ‘टूटती पत्थर’ में एक महिला मजदूर के यथार्थ चित्रण, और अपनी पुत्री सरोज की याद में ‘सरोज स्मृति’ कविता लिखना, ये सभी निराला के जीवन के महत्वपूर्ण किस्से हैं, उन्हीं किस्सों में से कुछ किस्सों को हम यहां संकलित कर रहे हैं…

 

रजाई…

महाकवि निराला अक्सर उत्तरप्रदेश के शीर्ष शिक्षाधिकारी रहे साहित्यकार श्रीनारायण चतुर्वेदी के ठिकाने पर लखनऊ पहुंच जाया करते थे। और वहां कब तक रहेंगे और कब अचानक कहीं और चले जाएंगे, कोई समय सीमा तय नहीं था। श्रीनारायण चुतर्वेदी के साथ निरालाजी के कई प्रसंग जुड़े हैं। लोग चतुर्वेदीजी को सम्मान से ‘भैयाजी’ कहते थे। वह कवि-साहित्यकारों को मंच दिलाने से लेकर उनकी रचनाओं के प्रकाशन, आतिथ्य, निजी आर्थिक जरूरतें पूरी कराने तक में हर वक्त तत्पर रहते थे।

 

बात किन्हीं सर्दियों की है, कवि-सम्मेलन खत्म होने के बाद एक बार भैयाजी बनारसी, श्याम नारायण पांडेय, चोंच बनारसी समेत चार-पांच कवि सुबह-सुबह चतुर्वेदी जी के आवास पर पहुंचे। सीढ़ियों से सीधे उनके कमरे में पहुंचते ही एक स्वर में पूछ बैठे – ‘भैयाजी नीचे के खाली कमरे में फर्श पर फटी रजाई ओढ़े कौन सो रहा है? सिर तो रजाई में लिपटा है और पायताने की फटी रजाई से दोनों पांव झांक रहे हैं।’ चतुर्वेदी जी ने ठहाका लगाया – ‘अरे और कौन होगा! वही महापुरुष हैं।… निराला जी। क्या करें जो भी रजाई-बिछौना देता हूं, रेलवे स्टेशन के भिखारियों को बांट आते हैं। अभी लंदन से लौटकर दो महंगी रजाइयां लाया था। उनमें एक उनके लिए खरीदी थी, दे दिया। पिछले दिनो पहले एक रजाई और गद्दा दान कर आए। दूसरी अपनी दी, तो उसे भी बांट आए। फटी रजाई घर में पड़ी थी। दे दिया कि लो, ओढ़ो। रोज-रोज इतनी रजाइयां कहां से लाऊं कि वो दान करते फिरें, मैं इंतजाम करता रहूं।’

 

इसके बाद छत की रेलिंग पर पहुंचकर मुस्कराते हुए चतुर्वेदी जी ने मनोविनोद के लिए इतने जोर से नीचे किसी व्यक्ति को कवियों के नाश्ते के लिए जलेबी लाने को कहा, ताकि आवाज निराला जी के भी कानों तक पहुंच जाए। जलेबी आ गई। निराला जी को किसी ने नाश्ते के लिए नहीं बुलाया। गुस्से में फटी रजाई ओढ़े वह स्वयं धड़धड़ाते हुए कमरे से बाहर निकले और मुंह उठाकर चीखे – ‘मुझे नहीं खानी आपकी जलेबी।’ और तेजी से जलेबी खाने रेलवे स्टेशन निकल गए। इसके बाद ऊपर जोर का ठहाका गूंजा। लौटे तो वह फटी रजाई भी दान कर आए थे।

 

दान…

सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ की एक कविता है, ‘दान’, जो गरीब और दु:खी मानवों को आधार बनाती है। इस कविता में वानरों, कौओं आदि को भोजन खिलाने वाले मनुष्यों पर व्यंग्य किया गया है। ‘दान’ कविता का सारांश निम्न प्रकार है कि एक दिन प्रात:काल निराला घूमते-घूमते नदी के पुल पर जा पहुंचे और सोचने लगे कि यह प्रकृति-जो जैसा करता है, उसे वैसा ही फल देती है। संसार का सौन्दर्य, गीत, भाषा आदि सभी किसी-न-किसी रूप में प्रकृति का दान पाते हैं और सभी यही कहते हैं कि मनुष्य सर्वश्रेष्ठ है। निराला ने देखा कि पुल के ऊपर बहुत से बन्दर बैठे हैं और मार्ग में एक ओर काले रंग का मरा हुआ-सा अत्यन्त दुर्बल भिखारी बैठा हुआ है। जैसे ही उन्होंने झुककर नीचे की ओर देखा तो उन्हें वहां पर शिवजी के ऊपर चावल, तिल और जल चढ़ाते हुए एक ब्राह्मण दिखलाई दिया तत्पश्चात् वह ब्राह्मण एक झोली लेकर ऊपर आया। बन्दर उसे देखकर वहां आ गए। उसने बंदरों को झोली से निकालकर पुए दे दिए और उसने भिखारी की ओर मुड़कर भी नहीं देखा। यह देखकर निराला को बेहद दुःख हुआ। वह व्यंग्य के साथ बोले–हे मानव, तू धन्य है।

 

कविता…

 

वासन्ती की गोद में तरुण,

सोहता स्वस्थ-मुख बालारुण;

चुम्बित, सस्मित, कुंचित, कोमल

तरुणियों सदृश किरणें चंचल;

किसलयों के अधर यौवन-मद

रक्ताभ; मज्जु उड़ते षट्पद।

 

खुलती कलियों से कलियों पर

नव आशा–नवल स्पन्द भर भर;

व्यंजित सुख का जो मधु-गुंजन

वह पुंजीकृत वन-वन उपवन;

हेम-हार पहने अमलतास,

हँसता रक्ताम्बर वर पलास;

कुन्द के शेष पूजार्ध्यदान,

मल्लिका प्रथम-यौवन-शयान;

खुलते-स्तबकों की लज्जाकुल

नतवदना मधुमाधवी अतुल;

 

निकला पहला अरविन्द आज,

देखता अनिन्द्य रहस्य-साज;

सौरभ-वसना समीर बहती,

कानों में प्राणों की कहती;

गोमती क्षीण-कटि नटी नवल,

नृत्यपर मधुर-आवेश-चपल।

 

मैं प्तातः पर्यटनार्थ चला

लौटा, आ पुल पर खड़ा हुआ;

सोचा–“विश्व का नियम निश्चल,

जो जैसा, उसको वैसा फल

देती यह प्रकृति स्वयं सदया,

सोचने को न कुछ रहा नया;

सौन्दर्य, गीत, बहु वर्ण, गन्ध,

भाषा, भावों के छन्द-बन्ध,

और भी उच्चतर जो विलास,

प्राकृतिक दान वे, सप्रयास

या अनायास आते हैं सब,

सब में है श्रेष्ठ, धन्य, मानव।”

 

फिर देखा, उस पुल के ऊपर

बहु संख्यक बैठे हैं वानर।

एक ओर पथ के, कृष्णकाय

कंकालशेष नर मृत्यु-प्राय

बैठा सशरीर दैन्य दुर्बल,

भिक्षा को उठी दृष्टि निश्चल;

अति क्षीण कण्ठ, है तीव्र श्वास,

जीता ज्यों जीवन से उदास।

 

ढोता जो वह, कौन सा शाप?

भोगता कठिन, कौन सा पाप?

यह प्रश्न सदा ही है पथ पर,

पर सदा मौन इसका उत्तर!

जो बडी दया का उदाहरण,

वह पैसा एक, उपायकरण!

मैंने झुक नीचे को देखा,

तो झलकी आशा की रेखा:-

विप्रवर स्नान कर चढ़ा सलिल

शिव पर दूर्वादल, तण्डुल, तिल,

लेकर झोली आये ऊपर,

देखकर चले तत्पर वानर।

 

द्विज राम-भक्त, भक्ति की आश

भजते शिव को बारहों मास;

कर रामायण का पारायण

जपते हैं श्रीमन्नारायण;

दुख पाते जब होते अनाथ,

कहते कपियों से जोड़ हाथ,

मेरे पड़ोस के वे सज्जन,

करते प्रतिदिन सरिता-मज्जन;

झोली से पुए निकाल लिये,

बढ़ते कपियों के हाथ दिये;

देखा भी नहीं उधर फिर कर

जिस ओर रहा वह भिक्षु इतर;

चिल्लाया किया दूर दानव,

बोला मैं–“धन्य श्रेष्ठ मानव!”

 

 

 

About The Author

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *