सहानुभूति में तीन शब्द हैं -सह , अनु और भूति। ‘ भूति ‘ यानी होना अर्थात अस्तित्व। मैं हूं , यह मेरा अस्तित्व है , मेरा व्यक्तित्व है। अध्यात्म में वैयक्तिकता होती है। मैं हूं , यह भूति है , शुद्ध अस्तित्व है। ‘ मैं अमुक हूं ‘ यह सामाजिक अस्तित्व है। मैं विद्वान हूं , धनी हूं , धार्मिक हूं। ‘ हूं ‘ के पहले विशेषण लगा कि व्यक्ति भूति से अनुभूति के जगत में आ गया। अनुभूति स्वतंत्र नहीं होती। वह ऐन्द्रिक हो या मानसिक , उसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता। हमारे सामाजिक जीवन की स्वतंत्रता सापेक्ष होती है। इंद्रिय और मानसिक जगत निरपेक्ष नहीं हो सकता। निरपेक्षता या स्वतंत्रता वहां होती है जहां केवल क्रिया हो , प्रतिक्रिया के लिए अवकाश न हो। लेकिन अनुभूति में क्रियाएं नहीं होतीं, सारी प्रतिक्रियाएं होती हैं। एक बच्चा मिट्टी का ढेला फेंकता है। दूसरा वापस ढेला फेंकता है। यह क्रिया की प्रतिक्रिया है। लेकिन पहले ने ढेला फेंका, क्या वह निरपेक्ष क्रिया नहीं है? नहीं, वह भी प्रतिक्रिया ही है। हमारी हर सामाजिक क्रिया संस्कार और स्मृति से बंधी होती है, उसकी परतंत्र होती है। स्मृति से बाधित या प्रेरित कोई भी क्रिया स्वतंत्र हो ही नहीं सकती है। प्रतिक्रिया का अर्थ है -व्यक्तित्व का प्रतिबंध। अनुभूति सामाजिकता है। एक शब्द ‘सह’ और लगा, फिर तो वह शुद्ध सामाजिकता हो गई। जैसे सहशिक्षा, सहचिंतन, सहभोज आदि-आदि। सहानुभूति सामाजिकता का बड़ा गुण है। जहां अनुभूति ‘सह’ नहीं होती, वहां स्वार्थ को विकसित होने का अवसर मिलता है।
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