November 21, 2024

सारनाथ यानी सारंगनाथ काशी से लगभग दस किलोमीटर दूर पूर्वोत्तर में स्थित एक तीर्थस्थल है, जो कि बौद्ध एवम हिन्दू समाज के सभ्यता और संस्कृति में अहम स्थान रखता है। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात महात्मा बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश यहीं दिया पर दिया था, जिसे “धर्म चक्र प्रवर्तन” के नाम से जाना जाता है और जो बौद्ध मत के प्रचार-प्रसार का आरंभ भी था। सारनाथ बौद्ध धर्म के चार प्रमुख तीर्थों, लुम्बिनी, बोधगया, कुशीनगर और सारनाथ में से एक है। बौद्ध धर्म के अलावा जैन धर्म एवं हिन्दू धर्म में भी सारनाथ का उतना ही महत्व है। जैन ग्रन्थों में इसे ‘सिंहपुर’ कहा गया है और माना जाता है कि जैन धर्म के ग्यारहवें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ का जन्म यहाँ से थोड़ी दूर पर हुआ था। यहां पर सारंगनाथ महादेव का मन्दिर भी है जहां सावन के महीने में मेला लगता है।

दर्शनीय स्थल…

सारनाथ में अशोक का चतुर्मुख सिंह स्तम्भ, महात्मा बुद्ध का मन्दिर, धामेख स्तूप, चौखन्डी स्तूप, राजकीय संग्राहलय, जैन मन्दिर, चीनी मन्दिर, मूलंगधकुटी और नवीन विहार इत्यादि दर्शनीय हैं। भारत का राष्ट्रीय चिह्न यहीं के अशोक स्तंभ के मुकुट की द्विविमीय अनुकृति है। वर्तमान समय में सारनाथ भारत के प्रमुख तीर्थ स्थलों और पर्यटन स्थलों के रूप में लगातार अपनी उपस्थिति एवम वृद्धि को बनाए हुए है।

परिचय…

जहां आज सारनाथ है, कभी वहां घना वन हुआ करता था और लोग मृग-विहार के लिए जाया करते थे। उस समय इसका नाम ऋषिपत्तन और मृगदाय था। ज्ञान प्राप्त करने के बाद गौतम बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश यहीं पर दिया था। सम्राट अशोक के शासन काल में यहाँ बहुत से निर्माण-कार्य हुए। सिंहों की मूर्ति वाला भारत का राजचिह्न सारनाथ के अशोक के स्तंभ के शीर्ष से ही लिया गया है। यहाँ का ‘धमेक स्तूप’ सारनाथ की प्राचीनता का आज भी बोध कराता है। मृगदाय में सारंगनाथ महादेव की मूर्ति की स्थापना के बाद इस स्थान का नाम सारनाथ हो गया।

प्राचीन नाम…

इसका प्राचीन नाम ऋषिपतन (इसिपतन) या मृगदाव (हिरनों का जंगल) था। ऋषिपतन से तात्पर्य ‘ऋषि का पतन’ से है जिसका आशय है वह स्थान जहाँ किसी एक बुद्ध ने गौतम बुद्ध भावी संबोधि को जानकर निर्वाण प्राप्त किया था। मृगों के विचरण करने वाले स्थान के आधार पर इसका नाम मृगदाव पड़ा, जिसका वर्णन निग्रोधमृग जातक में भी आया है। आधुनिक नाम सारनाथ की उत्पत्ति सारंगनाथ (मृगों के नाथ) अर्थात् गौतम बुद्ध से हुई। जिसका संबंध बोधिसत्व की एक कथा से भी जोड़ा जाता है। वोधिसत्व ने अपने किसी पूर्वजन्म में, जब वे मृगदाव में मृगों के राजा थे, अपने प्राणों की बलि देकर एक गर्भवती हिरणी की जान बचाई थी। इसी कारण इस वन को सारंग (मृग)-नाथ या सार-नाथ कहा जाने लगा, जबकि इतिहासकार दयाराम साहनी के अनुसार शिव को पौराणिक साहित्य में सारंगनाथ कहा गया है और महादेव शिव की नगरी काशी की समीपता के कारण यह स्थान भी शिवोपासना की स्थली रही है। सारनाथ में इस तथ्य को पुष्टि करता है, भगवान शिव शंकर महादेव का सारंगनाथ मंदिर।

इतिहास…

महात्मा बुद्ध के प्रथम उपदेश यानी लगभग ५३३ ई.पू. से लेकर ३०० वर्ष बाद तक का सारनाथ का इतिहास अज्ञात है: क्योंकि उत्खनन से इस काल का कोई भी अवशेष नहीं प्राप्त हुआ है। सारनाथ की समृद्धि और बौद्ध धर्म का विकास सर्वप्रथम अशोक के शासनकाल में दृष्टिगत होता है। उसने सारनाथ में धर्मराजिका स्तूप, धमेख स्तूप एवं सिंह स्तंभ का निर्माण करवाया। अशोक के उत्तराधिकारियों के शासन-काल में पुन: सारनाथ अवनति की ओर अग्रसर होने लगा। पुष्यमित्र शुंग के शासन काल में भी यहां का कोई लेख प्राप्त नहीं होता है। उत्तर भारत में बौद्ध धर्म की पुनः उन्नति का समय कुषाण वंश की स्थापना के साथ हुई। कनिष्क के राज्यकाल के तीसरे वर्ष में भिक्षु बल ने यहाँ एक बोधिसत्व प्रतिमा की स्थापना की। कनिष्क ने अपने शासन-काल में न केवल सारनाथ में वरन् भारत के विभिन्न भागों में बहुत-से विहारों एवं स्तूपों का निर्माण करवाया। इस बार कुठारा घात हिंदू धर्म पर हुआ, क्योंकि बौद्ध धर्म के प्रचार के पूर्व सारनाथ शिवोपासना का प्रमुख केंद्र हुआ करता था।

इसे इस प्रकार समझा जा सकता है। प्राचीन काल में विशाल नगरों के उपनगर या नगरोद्यान हुआ करते थे (जैसे प्राचीन विदिशा का साँची, अयोध्या का साकेत आदि) उसी प्रकार सारंगनाथ भी काशी के निकट ऋषियों या तपस्वियों के आश्रम स्थली हुआ करती थी।

गौरवपूर्ण काल…

सारनाथ के इतिहास में सबसे गौरवपूर्ण समय गुप्तकाल था। उस समय यह मथुरा के अतिरिक्त उत्तर भारत में कला का सबसे बड़ा केंद्र था। हर्षवर्धन के शासन-काल में ह्वेनसांग भारत आया था। उसने सारनाथ को अत्यंत खुशहाल बताया था। हर्षवर्धन के बाद कई सौ वर्ष तक सारनाथ विभिन्न शासकों के अधिकार में था लेकिन इनके शासनकाल में कोई विशेष उपलब्धि नहीं हो पाई। वर्ष १०१७ ई. में महमूद गजनवी के वाराणसी आक्रमण के समय सारनाथ को अत्यधिक क्षति पहुँची। इसके बाद पुन: १०२६ ई. में सम्राट महीपाल के शासन काल में स्थिरपाल और बसन्तपाल नामक दो भाइयों ने सम्राट की प्रेरणा से काशी के देवालयों के उद्धार के साथ-साथ धर्मराजिका स्तूप एवं धर्मचक्र का भी उद्धार किया। गाहड़वाल वेश के शासन-काल में गोविंदचंद्र की रानी कुमार देवी ने सारनाथ में एक विहार बनवाया था। उत्खनन से प्राप्त एक अभिलेख से भी इसकी पुष्टि होती है। इसके पश्चात् सारनाथ की वैभव का अंत हो गया।

सारनाथ का उत्खनन 

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