युयुत्सु महाभारत के पात्रों में से एक तथा हस्तिनापुर नरेश धृतराष्ट्र के होनहार पुत्र थे। युयुत्सु महाभारत में इसलिए भी विशेष हैं, क्योंकि महाभारत युद्ध आरम्भ होने से पूर्व धर्मराज युधिष्ठिर के आह्वान पर उन्होंने कौरवों की सेना का साथ छोड़कर पांडव सेना में मिलने और उन्हीं की ओर से युद्ध का निर्णय लिया।
जन्म…
यह बात तब की है जब गांधारी गर्भवती थी, तो उस समय धृतराष्ट्र की सेवा आदि कार्य करने के लिए एक वणिक वर्ग की दासी रखी गई थी, जो गांधारी की ही दासी थी। धृतराष्ट्र ने कामावेश हो कर उस दासी से ही सहवास कर लिया। सहवास के कारण दासी भी गर्भवती हो गई। उस दासी से एक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम युयुत्सु रखा गया। युयुत्सु को राजकुमार जैसा सम्मान, शिक्षा और अधिकार मिला था, क्योंकि वे धृतराष्ट्र के पुत्र थे।
पांडव पक्षीय योद्धा…
युयुत्सु महात्मा विदुर की भांति एक धर्मात्मा थे, इसलिए दुर्योधन की अनुचित चेष्टाओं को बिल्कुल पसन्द नहीं करते थे और साथ ही उनका विरोध भी करते थे। इस कारण दुर्योधन और उसके अन्य भाई उन्हें सदा अनादर करते थे और उनका हास्य भी उड़ाते थे। युयुत्सु ने महाभारत युद्ध रोकने का अपने स्तर पर बहुत प्रयास किया परन्तु उनकी नहीं चलती थी। जब युद्ध प्रारंभ हुआ तो पहले तो वह कौरवों की ओर ही थे परन्तु युद्ध के प्रारंभ होने से पूर्व युधिष्ठिर कहने मात्र से युयुत्सु ने विचार किया और वह डंका बजाते हुए कौरवों की सेना से पांडवों की सेना की ओर आ गए। हालांकि किस्सा यह था कि युद्ध प्रारम्भ होने से ठीक पहले युधिष्ठिर ने कौरव सेना को सुनाते हुए घोषणा की- “मेरा पक्ष धर्म का है। जो धर्म के लिए लड़ना चाहते हैं, वे अभी भी मेरे पक्ष में आ सकते हैं। मैं उनका स्वागत करूंगा।” इस घोषणा को सुनकर केवल युयुत्सु कौरव पक्ष से निकलकर आए और पांडव के पक्ष में शामिल हो गए। युधिष्ठिर ने गले लगाकर उनका स्वागत किया।
युयुत्सु का कार्य…
युधिष्ठिर ने एक विशेष रणनीति के तहत युयुत्सु को सीधे युद्ध के मैदान में नहीं उतारा बल्कि एक महत्वपूर्ण कार्य सौंपा। युधिष्ठिर जानते थे कि वह इस कार्य में सबसे योग्य है। युधिष्ठिर ने उसकी योग्यता को देखते हुए उसे योद्धाओं के लिए हथियारों और रसद की आपूर्ति व्यवस्था का प्रबंध देखने के लिए नियुक्त किया। पांडवों की ७ अक्षौहिणी (९ लाख के आसपास) सेना थी। युयुत्सु ने अपने इस दायित्व को बहुत जिम्मेदारी के साथ निभाया और अभावों के बावजूद पांडव पक्ष को हथियारों और रसद की कमी नहीं होने दी। उल्लेखनीय है कि उडुपी के राजा को भोजन व्यवस्था सौंपी गई थी।
महाभारत युद्ध से पूर्व पांडवों ने अपनी सेना का पड़ाव कुरुक्षेत्र के पश्चिमी क्षेत्र में सरस्वती नदी के दक्षिणी तट पर बसे समंत्र पंचक तीर्थ के पास हिरण्यवती नदी (सरस्वती नदी की सहायक नदी) के तट पर डाला। कौरवों ने कुरुक्षेत्र के पूर्वी भाग में वहां से कुछ योजन की दूरी पर एक समतल मैदान में अपना पड़ाव डाला। दोनों ओर के शिविरों में सैनिकों के भोजन और घायलों के इलाज की उत्तम व्यवस्था थी। हाथी, घोड़े और रथों की अलग व्यवस्था थी। हजारों शिविरों में से प्रत्येक शिविर में प्रचुर मात्रा में खाद्य सामग्री, अस्त्र-शस्त्र, यंत्र और कई वैद्य और शिल्पी वेतन देकर रखे गए। दोनों सेनाओं के बीच में युद्ध के लिए ५ योजन (१ योजन= ८ किमी की परिधि, विष्णु पुराण के अनुसार ४ कोस = १ योजन = १३ किमी से १६ किमी)= ४० किमी का घेरा छोड़ दिया गया था।
युद्ध में बच गए १८ योद्धाओं में युयुत्सु भी एक थे। युद्ध के बाद महाराजा युधिष्ठिर ने उन्हें अपना मंत्री बनाया था। जब युधिष्ठिर सशरीर स्वर्ग जाने लगे तब उन्होंने परीक्षित को राजा और युयुत्सु को उनका संरक्षक बना दिया था। धृतराष्ट्र की मृत्यु के उपरान्त युयुत्सु ने ही उन्हें मुखाग्नि दे कर पुत्र धर्म निभाया।
वंशज…
यह माना जाता है कि उत्तरप्रदेश के पश्चिमी और राजस्थान के पूर्वी भागों में रहने वाले जाट जाति के लोग उन्हीं महात्मा युयुत्सु के वंशज हैं।