गांव से बक्सर आते समय, बस से एक नजारा देखकर मन ब्यतिथ हो गया। कुंवर विजय सिनेमा हॉल अब मलबा बन गया था, जो कभी हमारे बचपन की शान हुआ करता था, आज आस्तित्व विहीन हो टुकड़ों में पड़ा था। इस बीच में यूं ही उड़ती सी आवाज आई, ‘कुंवर विजय अब मल्टी प्लेक्स बनेगा।’ मगर इस बदलते दौर के युवा पीढ़ी को क्या पता कि कभी जितने पैसों में पूरा परिवार गांव से शहर आकर सिनेमा देखकर चाय नाश्ता कर वापस गांव चला जाता था, आज उतने पैसों में शायद मल्टीप्लेक्स की पॉपकॉर्न भी नहीं आती होगी। कभी जो रौनक छोटे बड़े टाकिजों में नजर आती थी आज वो रौनक मल्टीप्लेक्स में दिखाई नहीं पड़ती।
कुंवर विजय के मलबे को देख हम बचपन की कई गलियों से गुजरते गुजरते, एक बार पुनः इसी सिनेमा हॉल में आ पहुंचे। उन दिनों उसमें ‘डर’ लगा था, अजी सच्ची वाला डर नहीं, सन्नी देओल, शाहरुख खान और जूही चावला अभिनीत फिल्म ‘डर’। यह फिल्म जितनी मजेदार थी, उससे कहीं ज्यादा हमारे द्वारा उस फिल्म को देखे जाने की घटना मजेदार थी।
हुआ यूं कि फूफाजी के परिचित थे सिनेमा हॉल के मालिक, तो हमने उनसे मिन्नत की कि वे हमे ‘डर’ दिखला दें। फूफाजी स्वयं भी सिनेमा के शौखिन थे, तो उन्होंने झट से हामी भर दी, मगर एक शर्त भी रख दी कि ये सारी ईंटे बाहर से अंदर रखनी होगी। हम सिनेमा जीवी थे, तो झट से मान गए। वे हमें काम सौंप कर स्वयं निकल लिए और हम लोग लग गए काम पर। उन दिनों हमें यह भी नहीं पता था कि सिनेमा कब चालू होता है, काम खत्म कर हम भी साइकिल पर निकल लिए, अपने छोटे भाई (बिकू) को बिठाकर। साइकिल भी नई नई सीखी थी, और रास्ते भीड़ से भरी हुई। कभी हमने किसी को ठोका, तो किसी ने हमें ठोका, जैसे तैसे कुंवर विजय सिनेमा हॉल पर हमारी सवारी पहुंच ही गई। उस समय सिनेमा हॉल का मेन गेट बंद था, इसका मतलब सिनेमा अपने आधे रास्ते को पार कर रहा था। हमने गेटकीपर को अपना परिचय दिया, फूफाजी का नाम बताया, तो उसने गेट खोल दिया। हम अंदर यानी एक बड़े से हाते के अंदर, उन दिनों चार फूटिए बच्चे थे हम, मगर उस समय हमारा सीना छप्पन इंच का हो गया था। विशालकाय खुले हाते को पार करने के बाद हम कुंवर विजय सिनेमा हॉल के मेन बिल्डिंग के पास पहुंचे, जहां फूफाजी पहले से ही उपस्थित थे और कुछ लोगों से गहन वार्तालाप में मशगूल थे, हमें देख उन्होंने सिनेमा हॉल के एक कर्मचारी से कहा, ‘पहलवान इन बच्चों को अंदर बैठा दो।’ एक गैलेरी में चलने के कुछ देर बाद हम अंदर प्रविष्ट हुए, जहां सिनेमा चल रहा था। दो खाली सीट पर अपना अधिकार बना हम जैसे ही बैठे इंटरवल हो गया।
हम चुपचाप बैठे रहे, कुछ देर के बाद फिल्म फिर से स्टार्ट हुई। अभी कुल मिलाकर फिल्म दस या पंद्रह मिनट चली ही थी कि फूफाजी आ गए, उन्होंने हमें भोज खाने के लिए चलने को कहा। मन मशोज कर हम चल दिए, शायद उस दिन सिनेमा हॉल की वर्षगांठ मनाई जा रही थी। हमने जल्दी जल्दी पूड़ी बुनिया और सब्जी का भोग लगाया और भागे फिर से फिल्म देखने। इस बार हमने बिना किसी व्यवधान के पूरी फिल्म को देख डाला। और वापस वैसे ही साइकिल चलाते हुए घर आ गए। यह थी कुंवर विजय सिनेमा हॉल से हमारी पहली मुलाकात।
उसके बाद तो जैसे दौर सा आ गया, कभी हम मुफ्त की जर्नी करते तो कभी चुपके से टिकट लेकर अंदर प्रवेश कर जाते। मगर कभी कभी पकड़े भी जाते, टिकट छीन ली जाती और वापस पैसे वापस कर, बिना टिकट के ही हॉल में अंदर बैठा दिया जाता। जब हम बड़े हुए तो बिना टिकट के जाना हमे नहीं भाता था तो हमने कुंवर विजय सिनेमा हॉल में जाना ही छोड़ दिया। कितनी ही फिल्में आती, उतर जाती मगर हम बस पोस्टर देखकर ही काम चला लेते।
“भाई, कहां उतरना है? किला आ गया!” अचानक बस कंडेक्टर की आवाज से मेरी तंद्रा टूटी। मेरे पास उस बस कंडेक्टर के लिए कोई जवाब नहीं था। कुंवर विजय सिनेमा हॉल के मलबे के बारे में सोचता हुआ मैं बस से उतर गया। उस दौर के बारे में सोचता हूं, कि कभी कभी हम टट्टुओं की झिड़की व डाँट खाकर भी खड़े-खड़े फ़िल्म देखने को तैयार थे और आज उसी टॉकीज का मलबा यूं ही ठोकरों में पड़ा हुआ है। मगर यह तो सच है कि पुरानी व्यवस्थाएं जब ढहेंगी, तभी तो नई व्यवस्थाएं बनेंगी। उसकी बात सुनने को मैं बस से उतरा तो नहीं मगर शायद वह कह रहा हो कि आज भले मेरा कोई वजूद ना हो पर लोगों के दिलों में उनकी यादों में हमेशा मेरा वजूद बना रहेगा। भले ही आज की ये युवा पीढ़ी मल्टीप्लेक्सेस में आनंदित होती हैं, मगर वह भूल जाती है कि जब किसी दरख़्त ने अपनी बाहें समेटी होंगी तभी जाकर उनपर नईं कोंपलें फूंटी होंगी।