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अपने बेटों से परेशान होकर एक महोदय कैंट स्टेशन के एक बैंच पर सोए हुए थे। उन्हें कहीं जाना था, मगर कहां यह उन्हें भी पता नहीं था। बस जाना था, तो जाना था। उनकी पांच फुट आठ या नौ इंच स्थूल शरीर पर अच्छे कपड़े थे और वे गेहूवें रंग के रौबदार चेहरे वाले थे, मगर उनके दांत गंदे थे, जैसे; पान, मसाला, सुपारी आदि खाए हुए से हों। साठ या पैंसठ वर्ष की उम्र रही होगी उनकी, जब वाराणसी कैंट पर हमारे मामाजी से उनकी मुलाकात हुई थी। 

मामाजी को लखनऊ जाना था और वे अपनी छुक छुक गाड़ी का इंतजार करने के लिए, उसी बैंच के पास आ गए जहां श्रीमान गुमशुदा अथवा माननीय खफा अपनी नींद ले रहे थे। मामाजी ने उनसे गुजारिश की, ‘श्रीमान, आप या तो बैठ जाएं अथवा पीछे वाले बैंच पर सो जाएं, जिससे मैं यहां बैठकर अपनी गाड़ी का इंतजार कर सकूं।’ बेचारे भले मानस थे, अपने दर्द को लेकर भी मुस्कुरा दिए और बोले, ‘जी! आइए हम भी गाड़ी का ही इंतजार कर रहे हैं।’

दोनों जन अपनी अपनी गाड़ी का इंतजार करने लगे या यूं कहें कि एक ही गाड़ी का। अब आप यह सोच रहे होंगे कि एक ही गाड़ी का इंतजार वो दोनों कर रहे थे यह हम कैसे जानते हैं? तो साहब! श्रीमान गुमशुदा जी ने मामाजी से स्वयं ही बताया था कि जो भी गाड़ी स्टेशन पर पहले आयेगी मुझे उसी से जाना है। इस पर मामाजी चौंक गए, उनके मन में उत्सुकता और डर का मिला जुला भाव अंगड़ाई लेने लगा। कुछ देर तक वे चुप रहे, मगर जब उनके मन में व्यग्रता बढ़ने लगी तो उन्होंने महोदय से पूछा, ‘अगर आप बुरा ना माने तो, एक बात जानना चाहता हूं।’ महोदय ने धीरे से कहा, ‘पूछिए’ जैसे वो पहले से ही जानते हों कि वो क्या पूछने वाले हैं। मामाजी ने कहा, ‘आपने यह क्यों कहा कि जो भी पहली गाड़ी आएगी मैं उसी से जाऊंगा?’ महोदय ने कहा, ‘मैं घर छोड़कर जा रहा हूं।’ इसपर मामाजी ने चौंकते हुए पूछा, ‘क्यों? कोई परेशानी है क्या? या पैसे की किल्लत है? या फिर घर में कोई झगड़ा वैगरह कुछ हुआ है?’ एक साथ इतने सारे सवाल सुन, महोदय ने कहा, ‘जी, ऐसी कोई बात नहीं है, मैं बनारस का ही रहने वाला हूं, मेरी यहां एक कपड़े की बहुत बड़ी दुकान है, जिसे मैंने स्वयं अपने खून पसीने से बनाया है। मगर आज उस दुकान का कोई और मालिक बनने की ख्वाईश रखता है और उसके लिए रोज घर में कोहराम मचा रहता है, उसी वजह से मैं आज घर छोड़कर जा रहा हूं। मैने मोबाइल भी घर पर ही छोड़ दिया है। इतना कह वे चुप हो गए। 

मामाजी, उन्हें एक टक निहारते रहे, फिर धीरे से पूछा, ‘वह कौन व्यक्ति है जो आपसे आपकी जीवन भर की कमाई, आपकी दुकान का मालिकाना छीनना चाहता है?’ और कौन जी? मेरे अपने बेटे, उन्होंने थोड़ा खीझते हुए कहा। इस बार थोड़ी देर के लिए दोनो चुप रहे। फिर से चुप्पी को तोड़ते हुए मामाजी ने कहा, ‘आपने अपनी पत्नी को बताया है कि आप कहां जा रहे हैं।’ नहीं! उनका संक्षिप्त जवाब। तब मामाजी ने उन्हें समझते हुए कहा, ‘आप अपनी जिम्मेदारियों से बच कर भाग नहीं सकते, आपने यह सोचा कि आपके भाग जाने से उन पर क्या गुजरेगी या अभी क्या गुजर रही होगी। जो बेटे आपके नहीं हुए, क्या वो आपकी पत्नी को यानी अपनी मां के प्रति समर्पित रह पाएंगे। क्या उन्हें वे खुश रख पाएंगे। या फिर आपके ना रहने से आपकी पत्नी खुश रह पाएंगी? जरा विचार कीजिए। चलिए, मैं आपको आपके घर छोड़ देता हूं। इस पर वे महोदय बोले, ‘आप पान खाते हैं?’ जी नहीं! मैं पान आदि का शौक नहीं रखता।’ मामाजी ने कहा। वे महोदय खड़े हो गए और फिर कुछ सोच कर अपना मोबाइल नंबर उन्हें दे एक ओर निकल गए। मामा जी उन्हें ताकते रह गए।

अरे भाई! जरा ठहरो, बात यहां खत्म कहां हुई है…

कुछ विचारों के धमक से मामाजी एकाएक चौंकते हुए उठ खड़े हुए। उनके दिमाग में दो बातें एक साथ मिलकर उन्हें परेशान करने लगीं, पहली यह कि कहीं मैं किसी बात से ट्रैप तो नहीं हो रहा और दुसरी बात यह कि अगर वह व्यक्ति सच बोल रहा हो और कहीं चला गया तो मैं स्वयं को जीवन पर्यंत तो नहीं, मगर कुछ दिन जरूर माफ नहीं कर पाऊंगा और यह बात हमेशा सलता रहेगा, मैंने सच का पता नहीं लगाया। इसके लिए उन्होंने पहले उस नंबर पर फोन लगाया, जिसे श्रीमान गुमशुदा ने दिया था। फोन लगा, तो दूसरी तरफ से किसी महिला ने फोन उठाया। फोन पर पहले परिचय तत्पश्चात श्रीमान गुमशुदा जी के बारे में कुछ बातें हुईं। मामाजी ने उन्हें यह भी बताया की आपके पति कैंट स्टेशन पर हैं और कहीं जाने का विचार कर रहे हैं, अतः आप उनसे जितनी जल्दी हो सके आकर मिल लें।

उसके बाद मामाजी ने फोन काट दिया। फोन कटने के दो तीन मिनट के अंदर ही माननीय खफाजी के किसी बेटे का फोन आया, ‘सर! अभी आप कहां हैं? और मेरे पापा कहां हैं? क्या वो अभी आपके पास हैं? आदि आदि।’ इसपर मामाजी ने कहा, ‘भाई! वो हमारे पास नहीं हैं, वो अभी अभी पांच मिनट हुए, कहीं चले गए हैं।’ इसपर बेटे ने कराहते हुए कहा, ‘अंकल जी! कृपया कर आप उन्हें ढूंढें, हम अभी वहां आते हैं। जब वो मिल जाएं तो, उन्हें रोके रहिएगा। जितनी जल्दी हो सकेगा हम वहां पहुंचते हैं।

अब मामाजी असमंजस में पड़ गए कि एक तरफ गाड़ी आने वाली है, उसे पकड़ें या फिर उन महोदय को खोजें। आखिर कैंट स्टेशन कोई छोटा भी तो नहीं है। फिर एकाएक मामाजी को ख्याल आया कि महोदय को पान खाने की बड़ी तलब लगी थी, तभी तो वो उन्हें पान खाने का ऑफर दे रहे थे। चलकर बाहर देखा जाए, शायद कहीं दिख जाएं। इतना सोच, बाहर की ओर वे तेजी से भागे। और किस्मत तो देखिए, श्रीमान गुमशुदा जी ठीक स्टेशन के मुख्य द्वार के सामने से आते दिख पड़े। मामाजी ने उन्हें वहीं पकड़ा, बातों में फंसाया, वहीं बैठाया, और वैसे ही उलझाए रखा। कुछ अपनी आपबीती कही तो कुछ उनकी बातें सुनी। कुछ दर्द उनके थे, जो बाहर आ निकले तो कुछ दर्द मामाजी के थे, जो माननीय खफा जी के घाव भरने में सहायक हो रहे थे। दोनों के दर्द मिलकर हमदर्द बन गए। इस बीच दो बार श्रीमान गुमशुदा जी के बेटे का फोन आया, तो मामाजी ने उन्हें अपने स्थान का विवरण उन्हें बता दिया, जहां वे दोनों आपसी खट्टी मीठी बातों में मशगूल थे। 

दोनो ही बेटे आ धमके, आते ही उन्होंने अपने पापा की कुछ विशेष प्रकार की गालियां खाई, तो कुछ आंसू भी बहाए। बेटे उनके पैरों में गिर उन्हें मनाने लगे। वे मामाजी के शुक्रगुजार थे, जिसे उनके आंसुओं ने गवाही दी। उन्होंने मामाजी के पैर को भी अपनी जागीर समझ रखा था और बेहद आत्मीयता से अपना हक जताने लगे। यह देख कैसे किसी बाप का दिल पिघल ना जाता, वो चलने को तैयार हो गए। इधर मामाजी के गाड़ी का समय भी होने वाला था, तो मामाजी बाप और बेटों को छोड़ और उनसे विदा ले अपनी गाड़ी पकड़ने चल दिए।

विद्यावाचस्पति अश्विनी राय ‘अरुण’

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