जब जब हिन्दी साहित्य में राष्ट्रीयता की खोज करने की बात आती है तब मन आशंकित हो उठता है और तब इस बात का अहसास भी हो जाता है कि इस विशाल भू-भाग पर और उससे भी कहीं ज्यादा उत्तर और पश्चिम में स्थित यह भाग, जो सबसे अधिक उठापटक का केन्द्र रहा है, उस पर विदेशी आक्रांताओं ने तो सीधे-सीधे अपना आधिपत्य जमाया है। तब यह सोचना जायज लगता है की कहीं कलमकार की मौनवृत्ति एक बार फिर कहीं गुलामी की जंजीरों का आवाहन तो नहीं कर रहा और कुछ राष्ट्रवादियों ने शायद फिर से बीड़ा उठाया हो मौन कलमकारों को जगाने का।
बर्बर, यवन अथवा यूनानियों ने इस सम्पूर्ण भू-भाग पर आक्रमण कर लूटा और तत्पश्चात उस पर राज भी किया। कालांतर में आजादी की लडाई लड़ी गई और फिर हमें आजादी मिल भी गई, यह सिर्फ दो शब्दों की बात है मगर क्या इसे सच में दों शब्दों में समेटा जा सकता है अथवा कभी समेटा गया है। नहीं, कभी नहीं! गुलामी से बचने से लेकर आजादी पाने की लड़ाई में सारे देश ने योगदान दिया था लेकिन निर्णायक लड़ाई, कल का समृद्ध हिन्दी भाषी एवं आज के इसी तथाकथित पिछड़ी धरती ने लड़ी थी। इसलिये तो यह माटी राष्ट्रीयता का धड़कता हृदय बन गया। राम और कृष्ण को मानने वाले और गंगा यमुना के जल से पोषित और उसकी आंचल के साए में बसे इस भारतीय संस्कृति ने इतनी गहरी छाप छोडी है कि इकबाल जैसे अलगाववादी कवि को भी यह स्वीकार करना पड़ा, ‘यूनानो मिश्रो रोमा सब मिट गए जहाँ से, कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।’
प्रत्येक देश का साहित्य अपने देश की भौगोलिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक परिस्थिति से जुड़ा होता है। साहित्यकार अपने देश की अतीत से प्राप्त विरासत पर गर्व करता है, वर्तमान का मूल्यांकन करता है और भविष्य के लिए रंगीन सपने बुनता है और इस प्रकार कहा जा सकता है कि वह राष्ट्रीय आकांक्षाओं से परिचालित होता है। भारत में राष्ट्रवाद का उदय उन परिस्थितियों में हुआ है, जो परिस्थितियों को राष्ट्रवाद में बढ़ावा देने के बजाए बाधाएं पैदा करती हैं, परंतु आधुनिक साहित्य ने राष्ट्रवाद को विकास करने में अहम भूमिका निभाई है। यही कारण है कि भारत की जनसंख्या बहुधर्मी-बहुजातीय एवं बहुभाषी होने के बाद भी राष्ट्रवाद की ओर अग्रसर है। इसका श्रेय आधुनिक हिन्दी साहित्य को जाता है। वर्तमान साहित्य में लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना को लेकर छटपटाहट यहां देखी जा सकती है। राष्ट्रवाद हिन्दी साहित्य में आरंभिक काल से ही विद्यमान है।आदिकाल अथवा वीरगाथाकाल। भक्तिकाल में राष्ट्रवाद सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के रुप, कबीर, सूर, जायसी, तुलसी आदि में प्रकट होता है तो रीतिकाल में भूषण के माध्यम से। भारतेंदु युग, द्विवेदी युग, से छायावाद के दौर में राष्ट्रवाद की भावना और अधिक प्रबल हुई है।
मगर जब भारतीय संस्कृति की बात आती है तब कई पश्चिम के विद्वान इस व्याख्या को भूलकर यह मानने लगते हैं कि ब्रिटिश लोगों के कारण ही भारत में राष्ट्रवाद की भावना ने जन्म लिया; राष्ट्रीयता की चेतना ब्रिटिश शासन की देन है और उससे पहले भारतीय इस चेतना से अनभिज्ञ थे, मगर यह सत्य नहीं है। माना की भारत के लम्बे इतिहास में, आधुनिक काल में, भारत में अंग्रेजों के शासनकाल मे राष्ट्रीयता की भावना का विशेषरूप से विकास अवश्य हुआ। भारत में अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार से एक ऐसे विशिष्ट वर्ग का निर्माण हुआ जो स्वतन्त्रता को मूल अधिकार समझता था और जिसमें अपने देश को अन्य पाश्चात्य देशों के समकक्ष लाने की प्रेरणा थी। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि भारत के प्राचीन इतिहास से नई पीढ़ी को राष्ट्रवादी प्रेरणा नहीं मिली है।
वस्तुतः भारत की राष्ट्रीय चेतना वेदकाल से अस्तित्वमान है। अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में धरती माता का यशोगान किया गया हैं। माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः (भूमि माता है और मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ)।
विष्णुपुराण में तो राष्ट्र के प्रति का श्रद्धाभाव अपने चरमोत्कर्ष पर दिखाई देता है। इस में भारत का यशोगान ‘पृथ्वी पर स्वर्ग’ के रूप में किया गया है।
अत्रापि भारतं श्रेष्ठं जम्बूद्वीपे महागने।
यतोहि कर्म भूरेषा ह्यतोऽन्या भोग भूमयः॥
गायन्ति देवाः किल गीतकानि धन्यास्तु ते भारत-भूमि भागे।
स्वर्गापस्वर्गास्पदमार्गे भूते भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात् ॥
इसी प्रकार वायुपुराण में भारत को अद्वितीय कर्मभूमि बताया है। भागवतपुराण में तो भारतभूमि को सम्पूर्ण विश्व में ‘सबसे पवित्र भूमि’ कहा है। इस पवित्र भारतभूमि पर तो देवता भी जन्म धारण करने की अभिलाषा रखते हैं, ताकि सत्कर्म करके वैकुण्ठधाम प्राप्त कर सकें।
कदा वयं हि लप्स्यामो जन्म भारत-भूतले।
कदा पुण्येन महता प्राप्यस्यामः परमं पदम्।
महाभारत के भीष्मपर्व में भारतवर्ष की महिमा का गान इस प्रकार किया गया है;
अत्र ते कीर्तिष्यामि वर्ष भारत भारतम्
प्रियमिन्द्रस्य देवस्य मनोवैवस्वतस्य।
अन्येषां च महाराजक्षत्रियारणां बलीयसाम्।
सर्वेषामेव राजेन्द्र प्रियं भारत भारताम्॥
गरुड पुराण में राष्ट्रीय स्वतन्त्रता की अभिलाषा कुछ इस प्रकार व्यक्त हुई है,
स्वाधीन वृत्तः साफल्यं न पराधीनवृत्तिता।
ये पराधीनकर्माणो जीवन्तोऽपि ते मृताः॥
रामायण में रावणवध के पश्चात राम, लक्ष्मण से कहते हैं,
अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते ।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥
अर्थ : हे लक्ष्मण! यद्यपि यह लंका स्वर्णमयी है, तथापि मुझे इसमें रुचि नहीं है। (क्योंकि) जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान हैं।
मगर यह बात तो हुई पश्चिमी देशों के विद्वानों, उनके चाटूकारों के द्वारा कहे गए उन वाक्यो का जवाब जिसमें उन्होंने कहा की, ‘भारत में राष्ट्रवाद की भावना का जन्म ब्रिटिश लोगों के कारण ही हुआ।’
अब बात करते हैं हिन्दी साहित्यकारों के द्वारा राष्ट्र सेवा हेतू उनकी निर्भीक लेखनी की, जिसमें भूषण के काव्य में राष्ट्रवाद, भारतेंदु हरिशचंद्र, मैथिलीशरण गुप्त, महावीरप्रसाद द्विवेदीजी, निराला जी, दिनकर जी, माखनलाल चतुर्वेदी, सुभद्रा कुमारी चौहान, सोहनलाल द्विवेदी, प्रतापनारायण मिश्र, माखनलाल चतुर्वेदी, नरेश मेहता आदि तो कथा साहित्य में प्रेमचंद, यशपाल, अमरकांत आदि साहित्यकारों की कृतियां साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत की जा सकती हैं।
भूषण रीतिकाल के कवि हैं परंतु उन्होने वीररस में ही रचनाएं की हैं। भूषण की कविताओं की भाषा बृज भाषा है। भूषण जी के ६ ग्रंथ माने जाते हैं परंतु उनमें से सिर्फ तीन ग्रंथ शिवराज भूषण, छत्रसाल दशक व शिवा बावनी ही उपलब्ध हैं। भूषण जी के नायक वीर शिवाजी थे। शिवाजी का महिमा मंडन भूषण के काव्य में सर्वत्र दिखता है। शिवाजी का वर्णन करते हुए वे कहते हैं,
इन्द्र जिमि जंभ पर , वाडव सुअंभ पर ।
रावन सदंभ पर , रघुकुल राज है ॥१॥
पौन बरिबाह पर , संभु रतिनाह पर ।
ज्यों सहसबाह पर , राम व्दिजराज है ॥२॥
दावा द्रुमदंड पर , चीता मृगझुंड पर ।
भूषण वितुण्ड पर , जैसे मृगराज है ॥३॥
तेजतम अंस पर , कान्ह जिमि कंस पर ।
त्यों म्लेच्छ बंस पर , शेर सिवराज है ॥४॥
रीतिकाल में भी वीर रस का सुंदर काव्य लिखने के कारण हिंदी साहित्य में कविवर भूषण का विशिष्ट स्थान है।
तत्पश्चात हिन्दी साहित्य में आया आधुनिक काल जिसका प्रारम्भ भारतेन्दु हरिशचन्द्र माना जाता है। भारतेन्दु ने आपने लेखन में देश की गरीबी,पराधीनता के दंश,शासकों के अमानवीय शोषण का चित्रण किया है। हिन्दी पत्रकारिता,नाटक,काव्य के क्षेत्र में भारतेन्दु का विशेष योगदान है। भारतेन्द एक उत्कृठ कवि, व्यंगकार, नाटकार, पत्रकार, ओजस्वी गद्यकार, सम्पादक, निबंन्धकार और कुशल वक्ता थे। हिन्दी भाषा की उन्नति के संदर्भ में भारतेन्दु जी ने कहा है। निज भाषा उन्नति लहै सब उन्नति को मूल, बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को शूल। यह भारतेन्दु हरिश्चन्द के हिन्दी के प्रति अनुराग और राष्ट्रवाद का परिचायक है। भारतेन्दु जी के पश्चात आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के हिन्दी साहित्य के उत्थान में दिये गये योगदान हिन्दी साहित्य का दूसरा युग द्विवेदी युग के नाम से जाना जाता है। आधुनिक साहित्य का यही युग राष्ट्रवाद का शंखनाद करता है।
राष्ट्रवादी विचारधारा के साहित्यिक आयाम