आइये आइये…
आज हम लजीज व्यंजन बनाते हैं,
पहले एक सूखा खेत लेते हैं…
बदन पर फटा गमछा या लुंगी लपेट लेते हैं,
और मेड़ पर बैठ ऊपर देखते हैं…
मिन्नत करते हैं…
और फिर नीचे देखते हैं।
नम आंखों के साथ लिए..
खेत के चारों ओर चक्कर लगाते हैं,
और फिर सोचते हैं…
काम कहाँ से शुरू करूं?
हैरान, परेशान…
सरकार की भांति,
क्या कुदरत भी बेईमान?
चलो कोई नई बात नहीं है…
शुरू करो अन्ताक्षरी…
ले के हरी का नाम,
समय ना बीत जाए..
करते हैं कुछ काम।
पानी चलाते हैं…
गर पास हो मशीन,
वर्ना भाड़े पर पानी लो किन।
व्यंजन के खातिर तेल तो लगेगा न..
कर लो तेल(डीजल ) की व्यवस्था,
हो कितना भी महंगा चाहे हो सस्ता।
कैसे होगी जुताई,
बीज कहाँ से,
खाद कहाँ से,
कीटनाशक और पानी कहाँ से आई।
कर्ज ले लूं या बीवी के गहने बेचूँ,
एक टुकड़ा या पूरा खेत ही बेचूँ,
मैं बैठे बैठे यही सोचूँ।
जैसे तैसे करली खेती…
अब इंतजार करते हैं,
क्यूंकि इस व्यंजन को बनने में
चार पांच माह जो लगते हैं।
पानी की व्यवस्था करते हैं,
वर्ना व्यंजन जल जाएगा,
खाद चाहिए,
कीटनाशक भी चाहिए,
नहीं तो, वैसा स्वाद नहीं आयेगा।
मेहरबान कदरदान…
लीजिए व्यंजन तैयार है,
तो बनिया भी तैयार है,
खाने वाले भी तैयार हैं,
सरकार भी तैयार,
और नेता जी भी तैयार हैं।
बस बनाने वाला लाचार है॥
महलों में पेश है,
होटलों में पेश है।
पेट भरा तो स्वाद गायब,
व्यंजन खत्म तो महफिल गायब।
पतीला (खेत) खाली हो के रोता है,
उसका बेटा काहे भूखे पेट सोता है।
आज एक बात समझ आई है,
गईया काहे चिल्लाई है।
किसी के बचवा के हिस्सा,
जब कोई खाता है,
गईया के भांति ओ भी चिल्लाता है।
आज बचवा फिर से ऊपर देखता है…
यही कहानी फिर से शुरू होगी,
महफिल फिर से जमेगी।
मगर!! किसान की..
नो-नो, नो – एंट्री॥
Umda