पिंजर चंद्र प्रकाश द्विवेदी द्वारा निर्देशित २००३ की फिल्म है। फिल्म भारत के विभाजन के दौरान हिंदुओं और मुसलमानों की समस्याओं के बारे में है। फिल्म पंजाबी उपन्यास पर आधारित है। इस उपन्यास को लिखा है, पंजाबी के सबसे लोकप्रिय लेखकों में से एक अमृता प्रीतम ने। जिनका जन्म पंजाब के गुजराँवाला में ३१ अगस्त, १९१९ को हुआ था।
अमृता प्रीतम को पंजाबी भाषा की पहली कवयित्री माना जाता है। उन्होंने कुल मिलाकर लगभग १०० पुस्तकें लिखी हैं जिनमें उनकी चर्चित आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ भी शामिल है। अमृता प्रीतम उन साहित्यकारों में थीं जिनकी कृतियों का अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। अपने अंतिम दिनों में अमृता प्रीतम को भारत का दूसरा सबसे बड़ा सम्मान पद्मविभूषण भी प्राप्त हुआ। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से पहले ही अलंकृत किया जा चुका था।
अज्ज आखाँ वारिस शाह नूँ अमृता प्रीतम जी के द्वारा रचित एक प्रसिद्ध कविता है जिसमे १९४७ के भारत विभाजन के समय हुए पंजाब के भयंकर हत्याकांडों का अत्यंत दुखद वर्णन उन्होने कीया है। यह कविता ऐतिहासिक मध्यकालीन पंजाबी कवि वारिस शाह को संबोधित करते हुए है, जिन्होंने मशहूर पंजाबी प्रेमकथा हीर-राँझा का सब से विख्यात प्रारूप लिखा था। वारिस शाह से कविता आग्रह करती है के वे अपनी क़ब्र से उठे, पंजाब के गहरे दुःख-दर्द को कभी न भूलने वाले छंदों में अंकित कर दें और पृष्ठ बदल कर इतिहास का एक नया दौर शुरू करें क्योंकि वर्तमान का दर्द सहनशक्ति से बाहर है। उन्होने यह कविता गुरुमुखी में लिखी थी। अश्विनी आप के सामने उसका हिंदी अनुवाद पेश करता है।
आज मैं वारिस शाह से कहती हूँ,
अपनी क़ब्र से बोल,
और इश्क़ की किताब का कोई नया पन्ना खोल,
पंजाब की एक ही बेटी (हीर) के रोने पर
तूने पूरी गाथा लिख डाली थी,
देख,
आज पंजाब की लाखों रोती बेटियाँ तुझे बुला रहीं हैं,
उठ!
दर्दमंदों को आवाज़ देने वाले!
और अपना पंजाब देख,
खेतों में लाशें बिछी हुईं हैं
और चेनाब लहू से भरी बहती है।
अपनी जीवनी ‘रसीदी टिकट’ में अमृता एक दौर का जिक्र करते हुए बताती हैं कि किस तरह साहिर (साहिर लुधियानवी) लाहौर में उनके घर आया करते थे और लगातार सिगरेट पिया करते थे। अमृता को साहिर की लत थी। साहिर का चले जाना उन्हें नाकाबिल-ए-बर्दाश्त था। अमृता का प्रेम साहिर के लिए इस कदर परवान चढ़ चुका था कि उनके जाने के बाद वह साहिर के पिए हुए सिगरेट की बटों को जमा करती थीं और उन्हें एक के बाद एक अपने होटो से लगाकर साहिर को महसूस किया करती थीं। ये वो आदत थी जिसने अमृता को सिगरेट की लत लगा दी थी। ये बहुत कम लोग जानते हैं कि अमृता, साहिर की मां से मिलने भी आईं थीं। उनके जाने के बाद दोस्तों के सामने साहिर ने अपनी मां से कहा कि मां जी, ये अमृता थी, जानती हो न? ये आपकी बहू बन सकती थी। साहिर ने ताउम्र शादी नहीं की। लोग कहते हैं कि साहिर के लिखे गीत, अमृता के लिए उनकी मोहब्बत बयां करते हैं। सिर्फ अमृता ही उनकी सिगरेट नहीं संभलाती थी बल्कि साहिर भी उनकी पी हुई चाय की प्याली संभाल कर रखते थे। अपने अंतिम समय तक साहिर ने उस पी हुई, काली पड़ गई प्याली को उस टेबल से नहीं हटाया था। साहिर की इस मुलाकात को अमृता कुछ इस कदर बयां करती हैं।
“मुझे नहीं मालूम के साहिर के लफ्जो की जादूगरी थी या उनकी खामोश नजर का कमाल था लेकिन कुछ तो था जिसने मुझे अपनी तरफ खींच लिया। आज जब उस रात को मुड़कर देखती हूं तो ऐसा समझ आता है कि तकदीर ने मेरे दिल में इश्क की बीज डाला जिसे बारिश खी फुहारों ने बढ़ा दिया।”