दोस्तों हर दिन की तरह आज फिर एक महान विभूति से हम आप को मिलवाने जा रहे हैं जिन्हें शायद आप लोगों ने भी इतिहास के साथ भुला दिया है। इसमे ना तो आप का कोई दोष है और ना ही इतिहास का, कारण कुछ खास ही है।

श्री बरिन्द्रनाथ घोष
जन्म – ५ जनवरी १८८०
स्थान – क्रोयदन (लंदन)

श्री बारिन घोष के परिवार, मित्र अथवा सहयोगी। इनमे इतने बड़े बड़े नाम थे जिनमे श्री घोष कहीं खो गए और जिन्हें शायद देश भी याद रखने की जहमत उठाना नहीं चाहता हो।

उनके पिता श्री कृष्नाधन घोष उस समय के सुप्रसिद्ध चिकित्सक व प्रतिष्ठित जिला सर्जन थे, उनकी माताश्री देवी स्वर्णलता प्रसिद्ध समाज सुधारक थीं एवं विद्वान श्री राजनारायण बासु की पुत्री थीं। श्री अरविन्द घोष को कौन नहीं जानता, देश के पहले क्रन्तिकारी और जो बाद में अध्यात्मवादी हो गए थे, वे उनके तीसरे बड़े भाई थे जबकि उनके दूसरे बड़े भाई श्री मनमोहन घोष अंग्रेजी साहित्य के प्रचंड विद्वान, कवि और कलकत्ता के प्रेसिडेंसी कॉलेज व ढाका यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी के प्रोफ़ेसर थे।

पढ़ाई के दौरान उन्हें अपने बड़े भाई श्री अरविन्द से प्रभावित होकर उनका झुकाव क्रांतिकारी आन्दोलन की तरफ हुआ, तो बारीन्द्र पटना से पढ़ाई छोड़ कर कलकत्ता वापस आ गए और श्री यतीन्द्रनाथ मुखर्जी (बाघा जतिन)(एक और बड़ा नाम जिनसे भगत सिंह जैसे वीर प्रेरणा लेते थे) के साथ मिलकर बंगाल में अनेक क्रांतिकारी समूहों को संगठित करना शुरू कर दिया। वारींद्र घोष ने भूपेन्द्र नाथ दत्त के सहयोग से कलकत्ता में अनुशीलन समिति का गठन किया जिसका प्रमुख उद्देश्य था – “खून के बदले खून”। प्रमथ नाथ मित्र इसके अध्यक्ष, चितरंजन दास व अरविन्द घोष इसके उपाध्यक्ष और सुरेन्द्रनाथ ठाकुर इसके कोषाध्यक्ष थे। इसकी कार्यकारिणी की एकमात्र शिष्य सिस्टर निवेदिता थीं। वारींद्र घोष और उनके मानने वाले लोगों का मानना था की सिर्फ राजनीतिक प्रचार ही काफी नहीं है और नौजवानों को अध्यात्मिक शिक्षा भी दी जानी चाहिए। उन्होंने अनेक जोशीले नोजवानों को तैयार किया जो लोगों को बताते थे की स्वतंत्रता के लिए लड़ना पावन कर्तव्य है।

अपने उद्देश्यों की पूर्ति हेतु उन्होंने भूपेन्द्र नाथ दत्त के साथ मिलकर “युगांतर” नमक साप्ताहिक पत्र बांगला भाषा में प्रकाशित करना शुरू किया और क्रांति के प्रचार में इस पत्र का सर्वाधिक योगदान रहा। वारींद्र घोष ने क्रांति से सम्बंधित “भवानी मंदिर ” नामक पहली किताब लिखी। इसमें “आनंद मठ ” का भाव था और क्रांतिकारियों को सन्देश दिया गया था की वह स्वाधीनता पाने तक संन्यासी का जीवन बिताएं। वारींद्र ने दूसरी पुस्तक ” वर्तमान रणनीति ” जिसे अविनाश चन्द्र भट्टाचार्य ने प्रकाशित किया। यह किताब बंगाल के क्रांतिकारियों की पाठ्य पुस्तक बन गयी, इसमें कहा गया था की भारत की आजादी के लिए फौजी शिक्षा और युद्ध जरूरी है।
उन्होने वाघा जतिन तथा अन्य क्रांतिकारियों ने मिलकर कलकत्ता के मानिकतला में ” मानीकतला समूह” बनाया। यह उनका एक गुप्त स्थान था जहाँ वे बम बनाते और हथियार इकठ्ठा करते थे।

मगर किस्मत को कुछ और ही मंजूर था, अंग्रेजों ने क्रांतिकारियों की धर-पकड़ शुरू कर दी और दुर्भाग्य से श्री बारिन घोष को भी उनके कई साथियों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर “अलीपुर बम केस” चलाया गया और प्रारंभ में ही उन्हें म्रत्युदंड की सजा दे दी गयी परन्तु बाद में उसे आजीवन कारावास कर दिया गया। उन्हें अंदमान की भयावह सेल्युलर जेल में भेज दिया गया जहाँ वह १९२० तक बन्दी रहे।

प्रथम विश्वयुद्ध के बाद दी गयी आम क्षमा में रिहा कर दिया गया जिसके बाद वह कलकत्ता आ गए और पत्रकारिता प्रारंभ कर दी, कुछ समय के लिए वे अपने बड़े भाई श्री अरविंद के पास उनके आश्रम(पांडिचेरी) चले गए। वापसी के बाद से लेकर अपने अंतिम समय तक वे पत्रकारिता में ही लगे रहे। उन्होंने “द डान ऑफ इण्डिया नामक अंग्रेजी साप्ताहिक पत्र शुरू किया। वह “द स्टेट्समैन से भी जुड़े रहे और साथ ही बांगला दैनिक “दैनिक बसुमती” के संपादक भी रहे।

श्री घोष ने कई पुस्तकों की भी रचना की थी, आज अर्थात, ५ जनवरी को उनके जन्मदिवस पर मैं अश्विनी राय “अरुण” उन्हें नमन करता हूँ।

धन्यवाद !

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