ध्यानचंद सिंह
२९ अगस्त, १९०५
बात वर्ष १९२८ एम्स्टर्डम ओलम्पिक की है, जो भारत का पहला ओलम्पिक था।
भारत ने आस्ट्रेलिया को ६-० से, बेल्जियम को ९-० से, डेनमार्क को ६-० से, स्विटज़लैंड को ६-० से हराया और इस प्रकार भारतीय टीम फाइनल में पहुँच गई। फाइनल में भारत और हालैंड का मुकाबला था। फाइनल मैच में भारत ने हालैंड को ३-० से हरा दिया।
वर्ष १९३२ में लास एंजिल्स में हुई ओलम्पिक में भी ध्यानचंद को टीम में शामिल कर लिया गया। इस बार फिर से चमत्कार, ध्यानचंद ने २६२ में से १०१ गोल किए। निर्णायक मैच में भारत ने अमेरिका को २४-१ से हराया।
वर्ष १९३६ के बर्लिन ओलपिक खेलों में ध्यानचंद को भारतीय टीम का कप्तान चुना गया। अपने जीवन का अविस्मरणिय संस्मरण सुनाते हुए वह कहते हैं कि “१७ जुलाई के दिन जर्मन टीम के साथ हमारे अभ्यास के लिए एक प्रदर्शनी मैच का आयोजन हुआ। यह मैच बर्लिन में खेला गया। हम इसमें चार के बदले एक गोल से हार गए। इस हार से मुझे जो धक्का लगा उसे मैं अपने जीते-जी नहीं भुला सकता। जर्मनी की टीम की प्रगति देखकर हम सब आश्चर्यचकित रह गए और हमारे कुछ साथियों को तो भोजन भी अच्छा नहीं लगा। बहुत-से साथियों को तो रात नींद नहीं आई।” भारत का हंगरी के साथ ओलम्पिक का पहला मुकाबला हुआ, जिसमें भारतीय टीम ने हंगरी को चार गोलों से हरा दिया। दूसरे मैच में, भारतीय टीम ने जापान को ९-० से हराया और उसके बाद फ्रांस को १० गोलों से हराया। १५ अगस्त के दिन भारत और जर्मन की टीमों के बीच फाइनल मुकाबला था। अभ्यास के दौरान जर्मनी की टीम ने भारत को हराया था, यह बात सभी के मन में बुरी तरह घर कर गई थी। तभी भारतीय टीम के मैनेजर पंकज गुप्ता को एक विचार आया। उन्होंने तिरंगा झण्डा हमारे सामने रखा और कहा कि इसकी लाज अब तुम्हारे हाथ है, और फिर तो भारतीय खिलाड़ी जमकर खेले और जर्मन की टीम को ४-१ से हरा दिया। उस दिन सचमुच तिरंगे की लाज रह गई। यह बात १५ अगस्त १९३६ की है, क्या कुछ खास है इस दिन में ?”
ध्यानचंद ने तीन ओलिम्पिक खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व किया तथा तीनों बार देश को स्वर्ण पदक दिलाया। आँकड़ों से भी पता चलता है कि वह वास्तव में हॉकी के जादूगर थे। अगर दूसरा विश्व युद्ध नहीं होता तो शायद वह छह ओलिंपिक में शिरकत करने वाले दुनिया के पहले खिलाड़ी होते, और इस बात में शक की क़तई गुंजाइश नहीं है कि इन सभी ओलिंपिक का गोल्ड मेडल भी भारत के ही नाम होता।
बात रावलपिंडी की है, विरोधी टीम का सेंटर-हाफ अपना संतुलन खो बैठा और असावधानी में उसके हाथों ध्यानचंद की नाक पर चोट लग गई। प्राथमिक चिकित्सा के बाद ध्यानचंद अपनी नाक पर पट्टी बंधवाकर मैदान में लौटे। उन्होंने चोट मारने वाले प्रतिद्वंदी की पीठ थपथपाई और मुस्कराकर कहा, “सावधानी से खेलो ताकि मुझे दोबारा चोट न लगे।” और फिर यह क्या…. ध्यानचंद प्रतिशोध पर उतर आए। उनका प्रतिशोध कितना आर्दश है, इसकी बस आप कल्पना ही कर सकते हैं, उन्होंने एक साथ ६ गोल कर दिए। क्या ये सचमुच एक महान् खिलाड़ी का गुण नही हैं ? ?
ध्यानचंद को हॉकी का जादूगर कहा जाता है। उन्होंने अपने खेल जीवन मे १००० से अधिक गोल दागे। जब वो मैदान में खेलने को उतरते थे तो गेंद मानों उनकी हॉकी स्टिक से चिपक-सी जाती थी। उन्हें १९५६ में भारत के प्रतिष्ठित नागरिक सम्मान पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था। अश्विनी उन्हे ‘भारतरत्न’ से सम्मानित करने की माँग कर रहा है।
२९ अगस्त को वह ध्यानचंद को नमन करने के लिए तैयार है, जिसे भारत में खेल दिवस के रूप में मनाया जाता है।