“भारत में रहने वाला और इसके प्रति ममत्व की भावना रखने वाला मानव समूह एक जन हैं। उनकी जीवन प्रणाली, कला, साहित्य, दर्शन सब भारतीय संस्कृति है। इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद का आधार यह संस्कृति है। इस संस्कृति में निष्ठा रहे तभी भारत एकात्म रहेगा।”
संस्कृतिनिष्ठा दीनदयाल उपाध्याय जी द्वारा निर्मित राजनैतिक जीवनदर्शन का यह पहला सूत्र है।उन्होंने भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकूल रूप में प्रस्तुत करते हुए देश को एकात्म मानववाद नामक विचारधारा दी। वे एक समावेशित विचारधारा के समर्थक थे जो एक मजबूत और सशक्त भारत चाहते थे। आईए हम उनसे आपको मिलावाते हैं, उनके विचारों से परिचय कराते हैं…
परिचय…
पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का जन्म २५ सितम्बर, १९१६ को मथुरा जिले के नगला चन्द्रभान नामक गांव के रहने वाले श्री भगवती प्रसाद उपाध्याय जी एवं माता रामप्यारी जी के यहां हुआ था। माता जी धार्मिक प्रवृत्ति की थीं और पिताजी रेलवे में जलेसर रोड स्टेशन के सहायक स्टेशन मास्टर थे। रेल की नौकरी होने के कारण उनके पिता का अधिक समय बाहर ही बीतता था। छुट्टी मिलने पर ही वे घर आ पाते थे। दीनदयाल के जन्म के दो वर्ष बाद उनके भाई का जन्म हुआ़ था, जिनका नाम शिवदयाल रखा गया। पिताजी श्री भगवती प्रसाद जी ने बच्चों को ननिहाल भेज दिया। उस समय उपाध्याय जी के नाना चुन्नीलाल शुक्ल धानक्या (जयपुर, राज०) में स्टेशन मास्टर थे। नाना का परिवार बहुत बड़ा था अतः दीनदयाल जी अपने ममेरे भाइयों के साथ ही बड़े हुए। नानाजी आगरा जिले में फतेहपुर सीकरी के पास ‘गुड़ की मँढई’ नामक गांव के रहने वाले थे।
दीनदयाल जी अभी मात्र तीन वर्ष के भी नहीं हुये थे, तभी उनके सर से उनके पिता का साया उठ गया। पति के देहांत से माँ रामप्यारी को इतना सदमा लगा कि वे अत्यधिक बीमार रहने लगीं। उन्हें क्षय रोग हो गया और जिसके कारण ८ अगस्त, १९२४ को वो भी दुनिया को अलविदा कह गईं। उस समय बालक दीनदयाल की आयु मात्र सात वर्ष था। उसके दो वर्ष बाद ही यानी १९२६ में नानाजी भी नहीं रहे। इसी क्रम में उनके सर से उठते हाथों में वर्ष १९३१ में उनका पालन पोषण करने वाली ममतामई उनकी मामी का भी निधन हो गया। मगर इतने पर भी ईश्वर को उन पर दया नहीं आई, १८ नवम्बर,१९३४ को अनुज शिवदयाल को भी काल ले भागा। और क्रम जारी रहा १८३५ में स्नेहमयी नानी भी स्वर्ग सिधार गयीं। १९ वर्ष की अवस्था तक आते आते युवा उपाध्याय ने मृत्यु-दर्शन से गहन साक्षात्कार कर लिया था। यह थी उनके जीवन के शुरुआत की लड़ाई।
८वीं की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उपाध्याय जी ने कल्याण हाईस्कूल, सीकर, राजस्थान से दसवीं बोर्ड की परीक्षा को प्रथम स्थान के साथ पास किया। वर्ष १९३७ में पिलानी से इंटरमीडिएट की परीक्षा में पुनः बोर्ड में प्रथम स्थान प्राप्त किया। १९३९ में कानपुर के सनातन धर्म कालेज से बी०ए० की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। अंगरेजी से एम०ए० करने के लिए सेंट जॉन्स कालेज, आगरा में प्रवेश लिया और पूर्वार्द्ध में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुये। बीमार बहन रामादेवी की शुश्रूषा में लगे रहने के कारण उत्तरार्द्ध न कर सके, इस बार बहन की मृत्यु ने उन्हें झकझोर कर रख दिया। मामाजी के बहुत आग्रह पर उन्होंने प्रशासनिक परीक्षा दी, उत्तीर्ण भी हुये परन्तु अंगरेज सरकार की नौकरी नहीं की। १९४१ में प्रयाग से बी०टी० की परीक्षा उत्तीर्ण की। बी०ए० और बी०टी० करने के बाद भी उन्होंने नौकरी नहीं की।
वर्ष १९३७ में जब वह कानपुर से बी०ए० कर थे, तभी सहपाठी बालूजी महाशब्दे की प्रेरणा से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आये। संघ के संस्थापक डॉ० हेडगेवार का सान्निध्य कानपुर में ही मिला। उपाध्याय जी ने पढ़ाई पूरी होने के बाद संघ का द्वितीय वर्ष का प्रशिक्षण पूर्ण किया और संघ के जीवनव्रती प्रचारक हो गये। आजीवन संघ के प्रचारक रहे। संघ के माध्यम से ही उपाध्याय जी राजनीति में आये। २१ अक्टूबर, १९५१ को डॉ० श्यामाप्रसाद मुखर्जी की अध्यक्षता में ‘भारतीय जनसंघ’ की स्थापना हुई। गुरुजी यानि गोलवलकर जी की प्रेरणा इसमें निहित थी। वर्ष १९५२ में इसका प्रथम अधिवेशन कानपुर में हुआ। उपाध्याय जी इस दल के महामंत्री बने। इस अधिवेशन में पारित १५ प्रस्तावों में से ७ उपाध्याय जी ने प्रस्तुत किये। डॉ० मुखर्जी ने उनकी कार्यकुशलता और क्षमता से प्रभावित होकर कहा- “यदि मुझे दो दीनदयाल मिल जाएं, तो मैं भारतीय राजनीति का नक्शा बदल दूँ।” वर्ष १९६७ तक उपाध्याय जी भारतीय जनसंघ के महामंत्री रहे। तत्पश्चात कालीकट अधिवेशन में उपाध्याय जी भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। वह मात्र ४३ दिन जनसंघ के अध्यक्ष रहे।
कारण…
१०/११ फरवरी, १९६८ की रात्रि में मुगलसराय स्टेशन पर उनकी हत्या कर दी गई। ११ फरवरी को प्रातः पौने चार बजे मुगलसराय के सहायक स्टेशन मास्टर को खंभा नं० १२७६ के पास कंकड़ पर पड़ी हुई लाश की सूचना मिली। जब शव प्लेटफार्म पर रखा गया तो लोगों की भीड़ में से किसी ने चिल्लाया – “अरे, यह तो भारतीय संघ के अध्यक्ष दीनदयाल उपाध्याय हैं।” इतना सुनते ही पूरे देश में यह बात फैल गई और शोक की लहर पूरे देश में दौड़ गयी?
उपाध्याय जी पत्रकार होने के साथ-साथ चिन्तक और लेखक भी थे। उनकी असामयिक मृत्यु से यह बात स्पष्ट है कि जिस धारा में वे भारतीय राजनीति को ले जाना चाहते थे वह धारा हिन्दुत्व की थी। इसका संकेत उन्होंने अपनी कुछ कृतियों में भी दे दिया था। इसीलिए कालीकट अधिवेशन के बाद मीडिया का ध्यान उनकी ओर गया। इसके उदाहरण और गवाह आज भी उनकी कुछ पुस्तकें हैं। उनमें से कुछ प्रमुख पुस्तकों के नाम हम नीचे दे रहे हैं…
रचनाएं…
दो योजनाएँ
राजनीतिक डायरी
भारतीय अर्थनीति का अवमूल्यन
सम्राट चन्द्रगुप्त
जगद्गुरु शंकराचार्य
एकात्म मानववाद (अंग्रेजी: Integral Humanism)
राष्ट्र जीवन की दिशा
एक प्रेम कथा
वे सदा कहा करते थे, “वसुधैव कुटुम्बकम् भारतीय सभ्यता से प्रचलित है। इसी के अनुसार भारत में सभी धर्मों को समान अधिकार प्राप्त हैं। संस्कृति से किसी व्यक्ति, वर्ग, राष्ट्र आदि की वे बातें, जो उसके मन, रुचि, आचार, विचार, कला-कौशल और सभ्यता की सूचक होती हैं, पर विचार होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो यह जीवन जीने की शैली है।”