विद्यावाचस्पति अश्विनी राय ‘अरुण’
बक्सर, बिहार
८०२१२८
१२ सितंबर, २०२४
प्रति,
परम आदरणीय,
श्री धर्मवीर भारती जी,
नमस्कार।
महोदय,
मुझे हाल ही में सर्वाधिक पढ़े जाने वाले उपन्यासों में से एक उपन्यास “गुनाहों का देवता“, जो आपकी ही रचना है, को पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मैं इस कालजई उपन्यास पर आपके साथ अपने कुछ विचार साझा करने के लिए कुछ समय निकालना चाहता था। क्योंकि यह उपन्यास मेरे हृदय के काफी करीब है।
आदरणीय! आपके इस उपन्यास में प्रेम के अव्यक्त और अलौकिक रूप का अन्यतम चित्रण से मैं तो मंत्रमुग्ध हो गया। आपने पात्रों के चरित्र का जो चित्रण किया है वो काबिले तारीफ है। कहने को तो श्रीमान यह उपन्यास प्रेम पर आधारित है, मगर मेरी नजर यह कोई सामान्य प्रेम नहीं है। यह तो भक्ति पर आधारित है। इसमें जो नायक है वो नायिका का देवता है और नायिका ने हमेशा एक भक्त की तरह ही नायक को सम्मान दिया है। नायक भी नायिका से प्रेम करता है, लेकिन नायिका के नजरों में वह भी देवता बने रहना चाहता है और होता भी यही है।
प्रेम को लेकर नायक के अंतर्मन में जो द्वंद्व आपने एक बार डाला है वह उसे उपन्यास के अंत तक निकाल नहीं पाता और नतीजा यह होता है कि नायिका की शादी कहीं और हो जाती है और अंत में, वह उसी गम में दुनिया छोड़कर चली जाती है। ओह! हृदयविदारक।
महोदय, एक व्यक्तिगत बात पूछने की हिमाकत कर रहा हूं कि क्या यह उपन्यास आपके निजी अनुभवों पर आधारित है? भगवान ना करे कि ऐसा हुआ हो। अगर हां ! तो माफ करिएगा ये बहुत भयावह अनुभव रहा होगा आपके लिए। इस पर आपने इस तरह की अनेकों रचनाएं कर डाली। आपकी जीवटता को प्रणाम। मुझे आशा ही नहीं वरन पूर्ण विश्वास है कि आप ऐसी ही रचना करते रहेंगे और हम पाठकों को उसका रसास्वादन कराते रहेंगे।
आपका ही,
एक शुभेच्छु पाठक
विद्यावाचस्पति अश्विनी राय ‘अरूण’