२८ अगस्त १८९६
उर्दू भाषा के प्रसिद्ध रचनाकार का जन्म गोरखपुर, उत्तर प्रदेश में कायस्थ परिवार में हुआ था। कला स्नातक में पूरे प्रदेश में चौथा स्थान पाने के बाद आई.सी.एस. में वो चुने गये थे मगर देशभक्ति के जुनून की वजह से नौकरी छोड़ दी तथा स्वराज्य आंदोलन में कूद पड़े और डेढ़ वर्ष की जेल की सजा भी काटी।
जेल से निकलने के बाद, कुछ दिन उन्होने अखिल भारतीय कांग्रेस के दफ्तर में अवर सचिव की नौकरी कर ली। वहां उनका मन नहीं लगा तो इलाहाबाद चले आए और फिर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में १९३० से लेकर १९५९ तक अंग्रेजी के अध्यापक रहे।
वो आँख ज़बान हो गई है
हर बज़्म की जान हो गई है।
आँखें पड़ती है मयकदों की,
वो आँख जवान हो गयी है।
उन्होने अपने साहित्यिक जीवन का श्रीगणेश गजल से किया था। अपने साहित्यिक जीवन के आरंभिक समय में ही ब्रिटिश सरकार के राजनैतिक बंदी बन गए। उर्दू शायरी का बड़ा हिस्सा रूमानियत, रहस्य और शास्त्रीयता से बँधा रहा है जिसमें लोकजीवन और प्रकृति के पक्ष बहुत कम उभर पाए हैं। नजीर अकबराबादी, इल्ताफ हुसैन हाली जैसे जिन कुछ शायरों ने इस परम्परा को तोड़ा है, उनमें एक और प्रमुख नाम उभर कर सामने आया, और वो नाम था, रघुपति सहाय का जिन्हे हम…
#फिराकगोरखपुरी भी कहते हैं।
यूँ माना ज़िन्दगी है चार दिन की
बहुत होते हैं यारो चार दिन भी
ख़ुदा को पा गया वायज़ मगर है
ज़रूरत आदमी को आदमी की
फिराक गोरखपुरी जी ने परंपरागत भावबोध और शब्द-भंडार का उपयोग करते हुए उसे नयी भाषा प्रदान की और नए विषयों से भी जोड़ा। उन्होने सामाजिक दुख-दर्द को व्यक्तिगत अनुभूति बनाकर शायरी में ढ़ाला है। दैनिक जीवन के कड़वे सच और आने वाले कल के प्रति उम्मीद, दोनों को भारतीय संस्कृति और लोकभाषा के प्रतीकों से जोड़कर फिराक ने अपनी शायरी का अनूठा महल खड़ा किया। फारसी, हिंदी, ब्रजभाषा और भारतीय संस्कृति की गहरी समझ के कारण उनकी शायरी में भारत की मूल पहचान रच-बस गई।
कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम
उस निगाह-ए-आशना को क्या समझ बैठे थे हम
रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गये
वाह री ग़फ़्लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम
होश की तौफ़ीक़ भी कब अहल-ए-दिल को हो सकी
इश्क़ में अपने को दीवाना समझ बैठे थे हम
बेनियाज़ी को तेरी पाया सरासर सोज़-ओ-दर्द
तुझ को इक दुनिया से बेगाना समझ बैठे थे हम
हर जवां दिलो की आवाज को सलाम….
फिराक तुझे सलाम…