सिक्खों में युद्ध का उत्साह…
गुरु गोबिन्द सिंह ने सिक्खों में युद्ध का उत्साह बढ़ाने के लिए हर एक कदम उठाया। वीरता से भरी काव्य और संगीत का सृजन उन्होंने किया। उन्होंने अपने लोगों में कृपाण जो उनकी लौह कृपा था, के प्रति प्रेम विकसित किया। खालसा को पुर्नसंगठित सिक्ख सेना का मार्गदर्शक बनाकर, उन्होंने दो मोर्चों पर सिक्खों के शत्रुओं के ख़िलाफ़ क़दम उठाये।
१. पहला मुग़लों के ख़िलाफ़ एक फ़ौज और
२. दूसरा विरोधी पहाड़ी जनजातियों के ख़िलाफ़।
“सवा लाख से एक लड़ाऊँ चिड़ियों सों मैं बाज तड़ऊँ तबे गोबिंदसिंह नाम कहाऊँ”
उनकी सैन्य टुकड़ियाँ सिक्ख आदर्शो के प्रति पूरी तरह समर्पित थीं और सिक्खों की धार्मिक तथा राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार थीं। लेकिन गुरु गोबिन्द सिंह को इस स्वतंत्रता की भारी कीमत चुकानी पड़ी थी। अंबाला के पास एक युद्ध में उनके चारों बेटे मारे गए।
वीरता और बलिदान…
गुरु गोबिन्द सिंह ने धर्म, संस्कृति व राष्ट्र की आन-बान और शान के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया था। गुरु गोबिन्द सिंह जैसी वीरता और बलिदान इतिहास में कम ही देखने को मिलता है। इसके बावज़ूद इस महान् शख़्सियत को इतिहासकारों ने वह स्थान नहीं दिया जिसके वे हक़दार हैं। कुछ इतिहासकारों का मत है कि गुरु गोबिन्द सिंह ने अपने पिता का बदला लेने के लिए तलवार उठाई थी। क्या संभव है कि वह बालक स्वयं लड़ने के लिए प्रेरित होगा जिसने अपने पिता को आत्मबलिदान के लिए प्रेरित किया हो। गुरु गोबिन्द सिंह जी को किसी से बैर नहीं था, उनके सामने तो पहाड़ी राजाओं की ईर्ष्या पहाड़ जैसी ऊँची थी, तो दूसरी ओर औरंगज़ेब की धार्मिक कट्टरता की आँधी लोगों के अस्तित्व को लील रही थी। ऐसे समय में गुरु गोबिन्द सिंह ने समाज को एक नया दर्शन दिया। उन्होंने आध्यात्मिक स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए तलवार धारण की।
बहादुर शाह प्रथम से भेंट…
८ जून, १७०७ में आगरा के पास जांजू के पास एक लड़ाई लड़ी गई थी, जिसमें बहादुरशाह की जीत हुई। इस लड़ाई में गुरु गोबिन्द सिंह की हमदर्दी अपने पुराने मित्र बहादुरशाह के साथ थी। कहा जाता है कि गुरुजी ने अपने सैनिकों द्वारा जांजू की लड़ाई में बहादुरशाह का साथ दिया और उनकी मदद की। इससे बादशाह बहादुरशाह की जीत हुई। बादशाह ने गुरु गोबिन्द सिंह जी को आगरा बुलाया। उसने एक बड़ी क़ीमती सिरोपायो (सम्मान के वस्त्र) एक धुकधुकी (गर्दन का गहना) जिसकी क़ीमत ६९ हज़ार रुपये थी, गुरुजी को भेंट की। मुग़लों के साथ एक युग पुराने मतभेद समाप्त होने की सम्भावना थी। गुरु साहब की तरफ से २ अक्टूबर, १७०७ को और धौलपुर की संगत तरफ लिखे हुक्मनामा के कुछ शब्दों से लगता है कि गुरुजी की बादशाह बहादुरशाह के साथ मित्रतापूर्वक बातचीत हो सकती थी। जिसके खत्म होने से गुरुजी आनंदपुर साहिब वापस आ जांएगे, जहाँ उनको आस थी कि खालसा लौट के इकट्ठा हो सकेगा। पर हालात के चक्कर में उनको दक्षिण दिशा में पहुँचा दिया। जहाँ अभी बातचीत ही चल रही थी। बादशाह बहादुरशाह कछवाहा राजपूतों के विरुद्ध कार्रवाई करने कूच किया था कि उसके भाई कामबख़्श ने बग़ावत कर दी। बग़ावत दबाने के लिए बादशाह दक्षिण की तरफ़ चला और विनती करके गुरुजी को भी साथ ले गया।