वनस्थली विद्यापीठ का नाम आज हर कोई जानता है, और अगर नहीं जानता है तो जान लें कि यह संस्था आज के समय में शिशु कक्षा से लेकर स्नातकोत्तर शिक्षण एंव अनुसंधान कार्य तक के लिए पूरे भारत में महिला शिक्षा की राष्ट्रीय संस्था है जो राजस्थान के टोंक जिले की निवाई में स्थित है। विद्यापीठ को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अधिनियम की धारा ३ के अधीन भारत सरकार द्वारा समविश्वविद्यालय घोषित किया गया है। विद्यापीठ भारतीय विश्वविद्यालय संघ तथा एसोसिएशन ऑफ कॉमनवेल्थ यूनिवर्सिटीज का सदस्य है।
स्थापना…
इसके स्थापना पर एक नजर डालते हैं, बात उन दिनों की है जब ग्राम पुननिर्माण का कार्यक्रम प्रारम्भ करने और साथ ही रचनात्मक कार्यक्रम के माध्यम से सार्वजनिक कार्यकर्ता तैयार करने की इच्छा, विचार और योजना मन में लिए हुए, वनस्थली विद्यापीठ के संस्थापक स्व. पं॰ हीरालाल शास्त्री जी ने वर्ष १९२९ में भूतपूर्व जयपुर राज्य सरकार में गृह तथा विदेश विभाग के सचिव के सम्मानपूर्ण पद को त्याग कर बन्थली (आज का वनस्थली) जैसे सुदूर गाँव को अपने भावी कार्यक्षेत्र के रूप में चुना। उनके साथ उनकी पत्नी स्व. श्रीमती रतन शास्त्री जी भी इस कार्य के लिये आगे आईं।
यहाँ यह कार्य करते हुए पं॰ हीरालाल शास्त्री जी एवं श्रीमती रतन शास्त्री जी की अपनी प्रतिभावान पुत्री जो उस समय १२.५ वर्ष की थी, का अचानक अस्वस्थता के पश्चात निधन हो गया। इस अपूर्ण आभाव और रिक्तता की भावनात्मक पूर्ति के लिए उन्होनें अपने परिचितों, मित्रों की ५,६ बच्चियों को बुला कर उनके शिक्षण का कार्य आरम्भ कर दिया और इसके लिये उन्होंने ६ अक्टूबर, १९३५ को श्रीशान्ता बाई शिक्षा-कुटीर की स्थापना की, जो आज की वनस्थली विद्यापीठ के रूप में विकसित हुई।
संस्थापक का परिचय…
आज २४ नवंबर को उनके जन्मदिवस के दिन हम हीरालाल शास्त्री जी को याद करेंगे। २४ नवम्बर, १८९९ को जयपुर जिले के जोबनेर गावं के किसान परिवार में जन्में हीरालाल शास्त्री जी की प्रारम्भिक शिक्षा जोबनेर में ही हुई थी। वर्ष १९२० में उन्होंने साहित्य-शास्त्री की डिग्री प्राप्त की और १९२१ में जयपुर के महाराजा कालेज से कला स्नातक परीक्षा में सर्वप्रथम आए।
हीरालाल जी की बचपन से ही यह उत्कट अभिलाषा थी कि वे किसी गाँव में जाकर दीन-दलितों की सेवा में अपना सारा जीवन लगा दें। हालाँकि १९२१ में वे जयपुर राज के राज्य सेवा में आ गए थे और बड़ी तेजी से उन्नति करते हुए गृह तत्पश्चात विदेश विभागों में सचिव बनते चले गए, लेकिन १९२७ में उन्होंने इस पद से इस्तीफा दे दिया। प्रशासनिक सेवा के दौरान उन्हेंने बड़ी मेहनत, कार्यकुशलता और निर्भीकता से काम किया था। स्वतंत्रता के पश्चात वे ३० मार्च, १९४८ से लेकर ५ जनवरी, १९५१ तक राजस्थान के प्रथम मुख्यमंत्री के पद को सुशोभित किया। २८ दिसम्बर, १९७४ के महाप्रयाण तक वे वनस्थली विद्यापीठ के कार्य को संगठित करते रहे।