November 21, 2024

वर्ष १९०५ में हुए ‘बंगाल विभाजन’ के शोक में भारत माता अनगिनत सपूतों का जन्म हुआ था। उन्हीं सपूतों में एक थे, ‘कनाईलाल दत्त’, जिन्होंने सर्वप्रथम बंगाल विभाजन के विरोध में आंदोलन किया, तत्पश्चात उससे आगे बढ़कर स्वतंत्रता आंदोलन में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। वे अमर पुरोधा सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के प्रमुख सहयोगी थे।

परिचय…

कनाईलाल दत्त का जन्म ३० अगस्त, १८८८ को बंगाल के हुगली जिला अंतर्गत चंद्रनगर में हुआ था। उनके पिता चुन्नीलाल दत्त ब्रिटिश सरकार के एक मुलाजिम और बंबई (मुंबई) में कार्यरत थे, जिस कारण पांच वर्ष की आयु में ही कनाईलाल बंबई आ गए और वहीं उनकी आरम्भिक शिक्षा हुई। परंतु जब वे बड़े हुए तो वापस चंद्रनगर आ गए। वहीं पर उन्होंने हुगली कॉलेज से स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की। परन्तु राजनीतिक गतिविधियों के कारण ब्रिटिश सरकार ने उनकी डिग्री रोक ली।

क्रांतिकारी जीवन…

विद्यार्थी जीवन में ही कनाईलाल दत्त प्रोफ़ेसर चारुचंद्र राय के प्रभाव में आ गए थे। प्रोफ़ेसर राय ने चंद्रनगर में ‘युगांतर पार्टी’ की स्थापना की थी। कुछ अन्य क्रान्तिकारियों से भी उनका सम्पर्क हुआ, जिनके सहयोग से उन्होंने बंदूक चलाना और निशाना साधना सीखा। वर्ष १९०५ के ‘बंगाल विभाजन’ विरोधी आन्दोलन में कनाईलाल ने आगे बढ़कर भाग लिया तथा वे इस आन्दोलन के नेता सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के भी सम्पर्क में आये।

गिरफ़्तारी…

बी.ए. की परीक्षा समाप्त होते ही कनाईलाल कोलकाता चले गए और प्रसिद्ध क्रान्तिकारी बारीन्द्र कुमार घोष के दल में सम्मिलित हो गए और वहां वे उसी मकान में रहने लगे, जिस में क्रान्तिकारियों के लिए अस्त्र-शस्त्र और बम आदि रखे जाते थे। बात अप्रैल, १९०८ की है, जब खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने मुजफ्फरपुर में किंग्सफ़ोर्ड पर आक्रमण किया था। उसी सिलसिले में बौखलाई अंग्रेज सरकार ने २ मई, १९०८ को कनाईलाल दत्त, अरविन्द घोष, बारीन्द्र कुमार आदि गिरफ्तार कर लिया, जो कि इतना आसान भी नहीं था। परंतु इस मुकदमें में नरेन गोस्वामी नाम का एक अभियुक्त सरकारी मुखबिर बन गया।

बदला…

क्रान्तिकारियों ने इस मुखबिर से बदला लेने का विचार बनाया, उसके मद्देनजर उन्होंने चुपचाप बाहर से रिवाल्वर मंगवाए। कनाईलाल दत्त और सत्येन बोस ने नरेन गोस्वामी को जेल के अंदर ही अपनी गोलियों का निशाना बनाने का निश्चय किया। पहले सत्येन बीमार बनकर जेल के अस्पताल में भर्ती हुए, फिर कनाईलाल भी बीमार पड़ गये। सत्येन ने मुखबिर नरेन गोस्वामी के पास संदेश भेजा कि मैं जेल के जीवन से ऊब गया हूँ और तुम्हारी ही तरह सरकारी गवाह बनना चाहता हँ। इस बात को जानकर नरेन गोस्वामी प्रसन्नता से सत्येन से मिलने जेल के अस्पताल जा पहुँचा। फिर क्या था, उसे देखते ही पहले सत्येन ने और फिर कनाईलाल दत्त ने उसे अपनी गोलियों से वहीं ढेर कर दिया। दोनों पकड़ लिये गए। जो होना था, सो तो हो गया। वे जानते थे कि अब जो होगा वह सर्वविदित है। दोनों ने स्वयं को मृत्युदंड के लिए तैयार कर लिया था।

और अंत में…

कनाईलाल के फैसले में लिखा गया था कि उन्हें आगे अपील करने की इजाजत नहीं होगी। १० नवम्बर, १९०८ को कनाईलाल कलकत्ता (कोलकाता) में फाँसी के फंदे पर लटकर शहीद हो गए। जेल में उनका वजन बढ़ गया था। फाँसी के दिन जब जेल के कर्मचारी उन्हें लेने के लिए उनकी कोठरी में पहुँचे, उस समय कनाईलाल दत्त निफिक्र होकर गहरी नींद में सोये हुए थे। मृत्युदंड सुनाए जाने के बाद भी किसी ने उन्हें कभी भी चिंतित, परेशान अथवा डरा हुआ नहीं देखा था। मात्र बीस वर्ष की अल्प आयु में ही शहीदी को प्राप्त करने वाले अमर शहीद कनाईलाल दत्त की कुर्बानी को देश कभी भुला ना सकेगा।

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