November 24, 2024

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के निर्माण के दौरान महामना मदन मोहन मालवीय जी का एक क़िस्सा बड़ा मशहूर है। बीएचयू निर्माण के लिए मालवीय जी देशभर से चंदा इकट्ठा करने निकले थे। इसी सिलसिले में वे हैदराबाद के निजाम के पास आर्थिक मदद की आस में पहुंचे। मालवीय जी ने निजाम से कहा कि वो बनारस में यूनिवर्सिटी बनाने के लिए आर्थिक सहयोग दें, मगर निजाम ने आर्थिक मदद देने से साफ इनकार कर दिया। इसके उलट निजाम ने बेइज्जती करते हुए कहा कि दान में देने के लिए उनके पास सिर्फ जूती है। मालवीय जी बिना कुछ कहे निजाम की जूती ही दान में लेकर चले गए। इसके बाद भरे बाजार में मालवीय जी ने निजाम की जूती नीलाम करने की कोशिश की। हैदाराबाद के निजाम को जब इस बात की जानकारी हुई तो उन्हें लगा कि उनकी इज्जत नीलाम हो रही है। इसके बाद निजाम ने मालवीय जी को बुलाकर उन्हें भारी भरकम दान देकर विदा किया। इस बीच आपको यह भी बताते चलें कि बीएचयू निर्माण के लिए मालवीय जी को १३६० एकड़ जमीन दान में मिली थी। इसमें ११ गांव, ७० हजार पेड़, १०० पक्के कुएं, २० कच्चे कुएं, ४० पक्के मकान, ८६० कच्चे मकान, एक मंदिर और एक धर्मशाला शामिल थी।

परिचय…

“सिर जाय तो जाय प्रभु! मेरो धर्म न जाय” का जीवन व्रत पालन करने वाले मालवीयजी का जन्म २५ दिसम्बर, १८६१ को प्रयागराज के पं० ब्रजनाथ व मूनादेवी के यहाँ हुआ था। वे अपने माता-पिता से उत्पन्न कुल सात भाई बहनों में पाँचवें पुत्र थे। मध्य भारत के मालवा प्रान्त से प्रयाग आ बसे उनके पूर्वज मालवीय कहलाते थे। आगे चलकर यही जाति सूचक नाम उन्होंने भी अपना लिया। पंडित इनको और इनके पिता जी को उपाधि मे मिली पिता पण्डित ब्रजनाथजी संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड विद्वान थे। वे श्रीमद्भागवत की कथा सुनाकर अपनी आजीविका अर्जित किया करते थे। पाँच वर्ष की आयु में उन्हें संस्कृत भाषा में प्रारम्भिक शिक्षा लेने हेतु पण्डित हरदेव धर्म ज्ञानोपदेश पाठशाला में भर्ती कराया गया, जहाँ से उन्होंने प्राइमरी परीक्षा उत्तीर्ण की। उसके पश्चात वे एक अन्य विद्यालय में भेज दिये गये जिसे प्रयाग की विद्यावर्धिनी सभा संचालित करती थी। यहाँ से शिक्षा पूर्ण कर वे इलाहाबाद के जिला स्कूल पढने गये। यहीं उन्होंने मकरन्द के उपनाम से कवितायें लिखनी प्रारम्भ की। उनकी कवितायें पत्र-पत्रिकाओं में खूब छपती थीं। लोग उन्हें बड़े चाव से पढ़ते थे। वर्ष १८७९ में उन्होंने म्योर सेण्ट्रल कॉलेज से (जो अब इलाहाबाद विश्वविद्यालय के नाम से जाना जाता है) दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की। उसके बाद हैरिसन स्कूल के प्रिंसपल ने उन्हें छात्रवृत्ति देकर कलकत्ता विश्वविद्यालय पढ़ने के लिए भेज दिया, जहाँ से उन्होंने वर्ष १८८४ में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। इस बीच अखाड़े में व्यायाम और सितार पर शास्त्रीय संगीत की शिक्षा वे बराबर लेते रहे। उनका व्यायाम करने का नियम इतना अद्भुत था कि साठ वर्ष की आयु तक वे नियमित व्यायाम करते रहे। आर्थिक विपन्नता की वजह से स्नातक करने के बाद ही मालवीयजी ने एक सरकारी विद्यालय में ४० रुपए मासिक वेतन पर अध्यापन कार्य शुरू कर दिया। मालवीय जी का विवाह मीरजापुर के पं. नन्दलाल जी की पुत्री कुन्दन देवी के साथ १६ वर्ष की आयु में हुआ था।

राजनीतिक पड़ाव…

जीवनकाल के प्रारम्भ से ही मालवीय जी राजनीति में रुचि लेने लगे और वर्ष १८८६ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन में सम्मिलित हुए। मालवीय जी दो बार वर्ष १९०९ तथा वर्ष १९१८ में कांग्रेस के अध्यक्ष हुए। वर्ष १९०२ में मालवीय जी उत्तरप्रदेश ‘इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल’ के सदस्य और बाद में ‘सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली’ के सदस्य चुने गये। मालवीय जी ब्रिटिश सरकार के निर्भीक आलोचक थे और उन्होंने पंजाब की दमन नीति की तीव्र आलोचना की, जिसकी चरम परिणति जलियांवाला बाग़ काण्ड में हुई। वे कट्टर हिन्दू थे, परन्तु शुद्धि (हिन्दू धर्म को छोड़कर दूसरा धर्म अपना लेने वालों को पुन: हिन्दू बना लेते) तथा अस्पृश्यता निवारण में विश्वास करते थे। वे तीन बार हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गये। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि वर्ष १९१५ में ‘काशी हिन्दू विश्वविद्यालय’ की स्थापना है। विश्वविद्यालय स्थापना के लिए उन्होंने सारे देश का दौरा करके देशी राजाओं तथा जनता से चंदा की भारी राशि एकत्रित की।

सम्पादक…

बालकृष्ण भट्ट के ‘हिन्दी प्रदीप’ में हिन्दी के विषय में उन्होंने उन दिनों बहुत कुछ लिखा वर्ष १८८६ में कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन के अवसर पर कालाकांकर के राजा रामपाल सिंह से उनका परिचय हुआ तथा मालवीय जी की भाषा से प्रभावित होकर राजा साहब ने उन्हें दैनिक ‘हिन्दुस्तान’ का सम्पादक बनने पर राजी कर लिया। मालवीय जी के लिए यह एक यशस्वी जीवन का शुभ श्रीगणेश सिद्ध हुआ।

रचनाएँ…

अभ्युदय : वर्ष १९०५ में मालवीय जी की हिन्दू विश्वविद्यालय की योजना प्रत्यक्ष रूप धारण कर चुकी थी। इसी के प्रचार की दृष्टि से उन्होंने वर्ष १९०७ में ‘अभ्युदय’ की स्थापना की। मालवीय जी ने दो वर्ष तक इसका सम्पादन किया। प्रारम्भ में यह पत्र साप्ताहिक रहा, फिर वर्ष १९१५ से दैनिक हो गया।

लीडर और हिन्दुस्तान टाइम्स : ‘लीडर’ और ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ की स्थापना का श्रेय भी मालवीय जी को ही है। ‘लीडर’ के हिन्दी संस्करण ‘भारत’ का आरम्भ वर्ष १९२१ में हुआ और ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ का हिन्दी संस्करण ‘हिन्दुस्तान’ भी वर्षों से निकल रहा है। इनकी मूल प्रेरणा में मालवीय जी ही थे।

मर्यादा : ‘लीडर’ के एक वर्ष बाद ही मालवीय जी ने ‘मर्यादा’ नामक पत्रिका निकलवाने का प्रबन्ध किया था। इस पत्र में भी वे बहुत दिनों तक राजनीतिक समस्याओं पर निबन्ध लिखते रहे। यह पत्रिका कुछ दिनों तक वाराणसी के ज्ञानमण्डल लिमिटेड से प्रकाशित होती रही।

सनातन धर्म : वर्ष १९०६ में इलाहाबाद के कुम्भ के अवसर पर उन्होंने सनातन धर्म का विराट अधिवेशन कराया, जिसमें उन्होंने ‘सनातन धर्म-संग्रह’ नामक एक बृहत ग्रंथ तैयार कराकर महासभा में उपस्थित किया। कई वर्ष तक उस सनातन धर्म सभा के बड़े-बड़े अधिवेशन मालवीय जी ने कराये। अगले कुम्भ में त्रिवेणी के संगम पर इनका सनातन धर्म सम्मेलन भी इस सभा से मिल गया। सनातन धर्म सभा के सिद्धांतों के प्रचारार्थ काशी से २० जुलाई, १९३३ को मालवीय जी की संरक्षता में ‘सनातन धर्म’ नामक साप्ताहिक पत्र भी प्रकाशित होने लगा और लाहौर से ’मिश्रबन्धु’ निकला यह सब मालवीय जी के प्रयत्नों का ही फल था।

इनके अलावा भी मालवीय जी ने अन्य पत्रों के भी सदा सहायक रहे। वे पत्रों द्वारा जनता में प्रचार करने में बहुत विश्वास रखते थे। और स्वयं वर्षों तक कई पत्रों के सम्पादक रहे। पत्रकारिता के अतिरिक्त वे विविध सम्मेलनों, सार्वजनिक सभाओं आदि में भी भाग लेते रहे। कई साहित्यिक और धार्मिक संस्थाओं से उनका सम्पर्क हुआ तथा उनका सम्बन्ध आजीवन बना रहा। इसके अतिरिक्त ‘सनातन धर्म सभा’ के नेता होने के कारण देश के विभिन्न भागों में जितने भी सनातन धर्म महाविद्यालयों की स्थापना हुई, वह मालवीय जी की सहायता से ही हुई। इनमें कानपुर, लाहौर, अलीगढ़, आदि स्थानों के सनातन धर्म महाविद्यालय उल्लेखनीय हैं।

मालवीय जी प्राचीन संस्कृति के घोर समर्थक थे। सार्वजनिक जीवन में उनका पदार्पण विशेषकर दो घटनाओं के कारण हुआ…

१. अंग्रेज़ी और उर्दू के बढ़ते हुए प्रभाव के कारण हिन्दी भाषा को क्षति न पहुँचे, इसके लिए जनमत संग्रह कराया।
२. भारतीय सभ्यता और संस्कृति के मूल तत्वों को प्रोत्साहन दिया।

आर्य समाज से मतभेद…

आर्य समाज के प्रवर्तक तथा अन्य कार्यकर्ताओं ने हिन्दी की जो सेवा की थी, मालवीय जी उसकी कद्र करते थे किंतु धार्मिक और सामाजिक विषयों पर उनका आर्य समाज से मतभेद था। समस्त कर्मकाण्ड, रीतिरिवाज, मूर्तिपूजन आदि को वे हिन्दू धर्म का मौलिक अंग मानते थे। इसलिए धार्मिक मंच पर आर्यसमाज की विचार धारा का विरोध करने के लिए उन्होंने जनमत संगठित करना आरम्भ किया। इन्हीं प्रयत्नों के फलस्वरूप पहले ‘भारतधर्म महामण्डल’ और पीछे ‘अखिल भारतीय सनातन धर्म’ सभा की नींव पड़ी। धार्मिक विचारों को लेकर दोनों सम्प्रदायों में चाहे जितना मतभेद रहा हो किंतु हिन्दी के प्रश्न पर दोनों को कोई मतभेद नहीं था। शिक्षा और प्रचार के क्षेत्र में सनातन धर्म सभा ने हिन्दी को उन्नत करने के लिए जो कुछ किया, उसका श्रेय मालवीय जी को ही है।

हिन्दी के विकास में योगदान…

मालवीय जी एक सफल पत्रकार थे और हिन्दी पत्रकारिता से ही उन्होंने जीवन के कर्मक्षेत्र में पदार्पण किया। वास्तव में मालवीय जी ने उस समय पत्रों को अपने हिन्दी-प्रचार का प्रमुख साधन बना लिया और हिन्दी भाषा के स्तर को ऊँचा किया था। धीरे-धीरे उनका क्षेत्र विस्तृत होने लगा। पत्र सम्पादन से धार्मिक संस्थाएँ और इनसे सार्वजनिक सभाएँ विशेषकर हिन्दी के समर्थनार्थ और यहाँ से राजनीति की ओर इस क्रम ने उनसे सम्पादन कार्य छुड़वा दिया और वे विभित्र संस्थाओं के सदस्य, संस्थापक अथवा संरक्षक के रूप में सामने आने लगे। पत्रकार के रूप में उनकी हिन्दी सेवा की यही सीमा है, यद्यपि लेखक की हैसियत से वे भाषा और साहित्य की उत्रति के लिए सदा प्रयत्नशील रहे। हिन्दी के विकास में उनके योगदान का तब दूसरा अध्याय आरम्भ हुआ।

हिन्दी की सबसे बड़ी सेवा मालवीय जी ने यह की कि उन्होंने उत्तरप्रदेश की अदालतों और दफ़्तरों में हिन्दी को व्यवहार योग्य भाषा के रूप में स्वीकृत कराया। इससे पहले केवल उर्दू ही सरकारी दफ़्तरों और अदालतों की भाषा थी। यह आन्दोलन उन्होंने वर्ष १८९० में आरम्भ किया था। तर्क और आँकडों के आधार पर शासकों को उन्होंने जो आवेदन पत्र भेजा उसमें लिखा कि “पश्चिमोत्तर प्रदेश तथा अवध की प्रजा में शिक्षा का फैलना इस समय सबसे आवश्यक कार्य है और गुरुतर प्रमाणों से यह सिद्ध किया जा चुका है कि इस कार्य में सफलता तभी प्राप्त होगी जब कचहरियों और सरकारी दफ़्तरों में नागरी अक्षर जारी किये जायेंगे। अतएव अब इस शुभ कार्य में जरा-सा भी विलम्ब न होना चाहिए।” वर्ष १९०० में गवर्नर ने उनका आवेदन पत्र स्वीकार किया और इस प्रकार हिन्दी को सरकारी कामकाज में हिस्सा मिला। ‘काशी हिन्दू विश्वविद्यालय’ के कुलपति की स्थिति में उपाधि वितरणोंत्सवों पर प्राय: मालवीय जी हिन्दी में ही भाषण करते थे। शिक्षा के माध्यम के विषय में मालवीय जी के विचार बड़े स्पष्ट थे। अपने एक भाषण में उन्होंने कहा था, “भारतीय विद्यार्थियों के मार्ग में आने वाली वर्तमान कठिनाईयों का कोई अंत नहीं है। सबसे बड़ी कठिनता यह है कि शिक्षा का माध्यम हमारी मातृभाषा न होकर एक अत्यंत दुरुह विदेशी भाषा है। सभ्य संसार के किसी भी अन्य भाग में जन-समुदाय की शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा नहीं है।”

काशी नागरी प्रचारिणी सभा…

वर्ष १८९३ में मालवीय जी ने काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना में पूर्ण योग दिया। वे सभा के प्रवर्तकों में थे और आरम्भ से ही सभा को उनकी सहायता का सम्बल रहा। सभा के प्रकाशन, शोध और हिन्दी प्रसार-कार्य में मालवीय जी की रुचि बराबर बनी रही और अंतिम दिन तक वे उसका मार्गदर्शन करते रहे।

अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन…

हिन्दी आन्दोलन के सर्वप्रथम नेता होने के कारण मालवीय जी पर हिन्दी साहित्य की अभिवृद्धि का दायित्व भी आ गया। इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति हेतु हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्थापना १ मई, १९१० को नागरी प्रचारिणी सभा के तत्वावधान में हुआ था, उसी दिन वाराणसी की एक बैठक में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का एक आयोजन करने का निश्चय किया गया। इसी के निश्चयानुसार १० अक्टूबर, १९१० को वाराणसी में ही पण्डित मदनमोहन मालवीय के सभापतित्व में पहला सम्मेलन हुआ। मालवीय जी विशुद्ध हिन्दी के पक्ष में थे।

हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान…

लोकमान्य तिलक, राजेन्द्र बाबू, और जवाहरलाल नेहरू के मौलिक या अनुदित साहित्य की तरह मालवीय जी की रचनाओं से हिन्दी की साहित्य निधि भरित नहीं हुई। इसलिए उनके सम्पूर्ण कृतित्व को आँकते हुए यह मानना होगा कि हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में मालवीय जी का योगदान क्रियात्मक अधिक है, रचनात्मक साहित्यकार के रूप में कम है। महामना मालवीय जी अपने युग के प्रधान नेताओं में थे। जिन्होंने हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान को सर्वोच्च स्थान पर प्रस्थापित कराया।

महामना…

महात्मा गांधी ने मदन मोहन मालवीय जी को ‘महामना’ की उपाधि दी थी। गाँधी जी उन्हें अपने बड़े भाई की तरह मानते थे। उन्होंने मालवीय के सरल स्वभाव का जिक्र करते हुए कहा था, “जब मैं मालवीय जी से मिला… वो मुझे गंगा की धारा की तरह निर्मल और पवित्र लगे। मैंने तय किया, मैं उसी निर्मल धारा में गोता लगाऊंगा”। महामना मदन मोहन मालवीय जी ने ही ‘सत्यमेव जयते’ को लोकप्रिय बनाया था। यह बाद में चलकर राष्ट्रीय आदर्श वाक्य बना और इसे राष्ट्रीय प्रतीक के नीचे अंकित किया गया। हालांकि इस वाक्य को हजारों साल पहले उपनिषद में लिखा गया था। लेकिन इसे लोकप्रिय बनाने के पीछे मदन मोहन मालवीय जी का हाथ था।

अस्तांचल…

अपने हृदय की महानता के कारण सम्पूर्ण भारतवर्ष में ‘महामना’ के नाम से पूज्य मालवीय जी का निधन १२ नवम्बर, १९४६ को इलाहाबाद में हो गया। उन्हें संसार में सत्य, दया और न्याय पर आधारित सनातन धर्म सर्वाधिक प्रिय था। करुणामय हृदय, भूतानुकम्पा, मनुष्यमात्र में अद्वेष, शरीर, मन और वाणी के संयम, धर्म और देश के लिये सर्वस्व त्याग, उत्साह और धैर्य, नैराश्यपूर्ण परिस्थितियों में भी आत्मविश्वासपूर्वक दूसरों को असम्भव प्रतीत होने वाले कर्मों का संपादन, वेशभूषा और आचार विचार में भारतीय संस्कृति के प्रतीक तथा ऋषियों के प्राणवान स्मारक थे।

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