मदनलाल ढींगरा का जन्म पंजाब प्रान्त के एक सम्पन्न सिविल सर्जन दित्तामल जी के यहां 18 फ़रवरी, 1883 ई. हुआ था जो पुरी तरह से अंग्रेजी रंग में रंगे हुए थे। जिनके कारण उनका परिवार अंग्रेजों का विश्वासपात्र था। किन्तु उनके उलट माताजी अत्यन्त धार्मिक एवं भारतीय संस्कारों से परिपूर्ण महिला थीं, जिनका प्रभाव मदनलाल पर पड़ा।
जब मदनलाल को भारतीय स्वतन्त्रता सम्बन्धी क्रान्ति के आरोप में लाहौर के एक कालेज से निकाल दिया गया तो परिवार ने उनके पिता के दबाव मे मदनलाल से नाता तोड़ लिया। मदनलाल को जीवन यापन के लिये पहले एक क्लर्क के रूप में, फिर एक तांगा-चालक के रूप में और अन्त में एक कारखाने में श्रमिक के रूप में काम करना पड़ा।
बड़े भाई की सलाह और सहयोग पर उच्च शिक्षा प्राप्त करने इंग्लैण्ड चले गये जहाँ उन्होंने यांत्रिकी अभियांत्रिकी में प्रवेश ले लिया। बड़े भाई के साथ-साथ इंग्लैण्ड में रह रहे कुछ राष्ट्रवादी कार्यकर्ताओं ने भी आर्थिक मदद दी।
जिस समय वे इंग्लैड मे पढ़ाई कर रहे थे उसी समय खुदीराम बोस, कन्हाई लाल दत्त, सतिन्दर पाल और काशी राम जैसे क्रान्तिकारियों को भारत मे मृत्युदण्ड दिया गया जिस वजह से वे बहुत क्रोधित हो गए और प्रख्यात राष्ट्रवादी विनायक दामोदर सावरकर एवं श्यामजी कृष्ण वर्मा के सम्पर्क में आये।
एक शाम को इण्डियन नेशनल ऐसोसिएशन के वार्षिकोत्सव में भाग लेने के लिये भारी संख्या में भारतीय और अंग्रेज इकठे हुए। जैसे ही भारत सचिव के राजनीतिक सलाहकार विलियम हट कर्जन वायली जिसकी सलाह पर भारत मे क्रांतिकारियों को मृत्युदंड दिया गया था, वह अपनी पत्नी के साथ हॉल में आया। मदनलाल ढींगरा ने उसके चेहरे पर पाँच गोलियाँ दाग दीं। इसमें से चार सही निशाने पर लगीं। उसके बाद धींगड़ा ने अपने पिस्तौल से स्वयं को भी गोली मारनी चाही किन्तु उन्हें पकड़ लिया गया, और उसकी सुनवाई पुराने बेली कोर्ट में हुई। जहां अदालत ने उन्हें मृत्युदण्ड का आदेश दिया। १७ अगस्त, १९०९ को लन्दन की पेंटविले जेल में फाँसी पर लटका दिया गया।