November 21, 2024

महाकवि बाणभट्ट सातवीं शताब्दी के राजा हर्षवर्धन के कार्यकाल में संस्कृत भाषा के महान गद्यकार और विलक्षण कवि थे।

परिचय…

महाकवि बाणभट्ट संस्कृत के ऐसे गिने-चुने लेखकों में से एक हैं जिनके जीवन एवं काल के विषय में निश्चित रूप से ज्ञात है। कादम्बरी की भूमिका में तथा हर्षचरितम् के प्रथम दो उच्छ्वासों में बाण ने अपने वंश के सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक सूचना दी है।

बाण का जन्म प्राचीन हिरण्यबाहु (सोन नदी) के तट पर स्थित प्रीतिकूट नाम के ग्राम में वात्स्यायनगोत्रीय विद्वद्ब्राह्मण कुल हुआ था। विद्वानों ने प्रितिकूट को वर्तमान में बिहार के औरंगाबाद जिलान्तर्गत पीरू नामक गाँव के रूप में पहचा है, जो गंगा और सोन नदियों के संगम के दक्षिण में सोन नद के पूर्वी तट पर स्थित है (औरंगाबाद की कहानी)। बाण अपने वंश का उद्भव सरस्वती तथा महर्षि दधीचि के पुत्र सारस्वत के भाई वत्स के वंश में बताते हैं। वत्स के वंश में कुबेर थे, जिनके चतुर्थ पुत्र पाशुपत बाण के प्रपितामह थे। बाण के पितामह अर्थपति थे, जिनके ग्यारह पुत्र हुए, उनमें से चित्रभानु बाण के पिता थे।

बाण के शैशवकाल में ही उनकी माता राज्यदेवी की मृत्यु हो गई, जिससे उनके पालन-पोषण की सारी जिम्मेदारी उनके पिता पर आ गई। बाण की आयु मात्र चौदह वर्ष की थी कि उनके पिता भी उनके लिए काफी सम्पत्ति छोड़कर चल बसे। यौवन का प्रारम्भ एवं आवश्यकता से अधिक सम्पत्ति होने के कारण, बाण संसार को स्वयं देखने के लिए घर से निकल गए। उन्होंने विभिन्न प्रकार के लोगों से सम्बन्ध स्थापित किया। उनके समवयस्क मित्रों में बाण ने प्राकृत के कवि ईशान, दो भाट, एक चिकित्सक का पुत्र, एक पाठक, एक सुवर्णकार, एक रत्नाकर, एक लेखक, एक पुस्तकावरक, एक मार्दगिक, दो गायक, एक प्रतिहारी, दो वंशीवादक, एक गान के अध्यापक, एक नर्तक, एक आक्षिक, एक नट, एक नर्तकी, एक तांत्रिक, एक धातुविद्या में निष्णात और एक ऐन्द्रजालिक आदि थे। कई देशों का भ्रमण करने के पश्चात वे अपनी मातृभूमि प्रीतिकूट लौट आए।

सम्राट हर्षवर्धन से भेंट…

प्रीतिकूट में रहते हुए उन्हें सम्राट हर्षवर्धन के चचेरे भाई कृष्ण का एक सन्देश मिला कि कुछ चुगलखोरों ने राजा से आपकी निन्दा की है। इसलिए वे तुरन्त ही राजा से मिलने के लिए निकल पड़े। दो दिन की यात्रा के पश्चात् अजिरावती के तट पर राजा से उनकी प्रथम भेंट हुई। प्रथम साक्षात्कार में बाण को बहुत ही निराशा हुई क्योंकि सम्राट के साथी मालवाधीश ने उनका परिचय कराते हुए कहा, ‘अयमसौभुजङ्गः’ (यह वही सर्प (दुष्ट) है) परंतु, बाण ने अपनी स्थिति का स्पष्टीकरण राजा को दिया, जिससे सम्राट् उनसे बेहद प्रसन्न हुए। सम्राट के साथ कुछ माह रहकर बाण वापस लौट आए और उन्होंने प्रस्तुत हर्षचरित के रूप में हर्ष की जीवनी लिखनी प्रारम्भ कर दी।

विशेष…

महाकवि बाणभट्ट की आत्मकथा यहां समाप्त हो जाती है। उनके अन्तिम समय के विषय में अभी कुछ भी ज्ञात नहीं है, परन्तु ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि उन्हें राजसंरक्षण प्राप्त था, जिसका मूल्य उन्होंने हर्षचरित लिखकर चुका दिया। महाकवि के पुत्र का नाम भूषणभट्ट अथवा भट्टपुलिन्द था, जिन्होंने बाणभट्ट की मृत्यु के पश्चात कादम्बरी को सम्पूर्ण किया। अत: कहा जा सकता है कि कादम्बरी को दो लेखकों ने पूर्ण किया।

रचना…

महाकवि के दो प्रमुख ग्रंथ हैं, पहला हर्षचरितम् तथा दूसरा कादम्बरी। हर्षचरितम् , राजा हर्षवर्धन का जीवन-चरित्र है और कादंबरी विश्व का पहला उपन्यास। परंतु कादंबरी पूर्ण होने से पूर्व ही बाणभट्ट का देहान्त हो गया और इसे उनके पुत्र भूषणभट्ट ने पूरा किया। दोनों ग्रंथ संस्कृत साहित्य के महत्त्वपूर्ण ग्रंथ माने जाते है।

कादम्बरी और हर्षचरितम् के अतिरिक्त कई दूसरी रचनाएँ भी बाण की मानी जाती हैं। उनमें से मार्कण्डेय पुराण के देवी महात्म्य पर आधारित दुर्गा का स्तोत्र चंडीशतक है। प्रायः एक नाटक ‘पार्वती परिणय’ भी बाण द्वारा रचित माना जाता है। परन्तु वस्तुतः इसका लेखक कोई पश्चाद्वर्ती वामन भट्टबाण है।

विद्वानों की नजर में…

महाकवि बाणभट्ट का गद्यरचना के क्षेत्र में वही स्थान प्राप्त है जो कालिदास का संस्कृत काव्य क्षेत्र में है। पाश्चाद्वर्ती लेखकों ने एक स्वर में बाण पर प्रशस्तियों की अभिवृष्टि की है।

आर्यासप्तति के लेखक गोवर्धनाचार्य का कथन है…

जाता शिखंडिनी प्राग्यथा शिखंडी तथावगच्छामि।

प्रागल्भ्यमधिकमाप्तुं वाणी बाणी बभूवेति।।

तिलकमञ्जरी के लेखक धनपाल की प्रशस्ति इस प्रकार है…

केवलोऽपि स्पफुरन् बाणः करोति विमदान् कवीन्।

किं पुनः क्लृप्तसन्धानपुलिन्दकृतसन्निधिः।।

त्रिलोचन ने निम्नलिखित पद्य में बाण की प्रशंसा की है…

हृदि लग्नेन बाणेन यन्मन्दोऽपि पदक्रमः।

भवेत् कविवरंगाणां चापलं तत्रकारणम्।।

राघवपाण्डवीय के लेखक कविराज के अनुसार…

सुबन्धुर्वाणभट्टश्च कविराज इति त्रयः।

वक्रोक्तिमार्ग निपुणश्चतुर्थो विद्यते न वा।।

कार्यकाल…

बाणभट्ट के काल निर्णय में कोई कठिनाई जान नहीं पड़ती, क्योंकि सम्राट हर्षवर्धन का काल ही उनका काल रहा है। इसकी चर्चा उन्होंने स्वयं ही अपनी रचित हर्षचरित में की है…

जयति ज्वलत्प्रतापज्वलनप्राकारकृतजगद्रश।

सकलप्रणयिमनोरथसिद्धि श्रीपर्वती हर्षः।।

हर्ष के वंश का वर्णन उदाहरणतः प्रभाकरवर्धन एवं राज्यवर्धन के नाम यह निःसन्देह सिद्ध करते हैं कि बाणभट्ट कन्नौज के सम्राट हर्षवर्धन (६०६-६४६) के राजकवि थे। बाण का यह काल बाह्य साक्ष्यों से भी साम्य रखता है। बाण का उल्लेख ९वीं शताब्दी में अलंकार शास्त्र के ज्ञाता आनन्दवर्धन ने किया। सम्भवतः बाण आनन्दवर्धन से बहुत पहले हो चुके थे। वामन (७५० ईस्वी) ने भी बाण का उल्लेख किया। गौड़वाहो के लेखक वाक्पति राज (७३४ ईस्वी) भी बाण की प्रशंसा करते हैं।

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