November 21, 2024

ग्रामीण विकास, महिला सशक्तिकरण, स्वास्थ्य, बाल-विकास, प्रौढ़-साक्षरता, पेयजल, रोज़गार-विकास, पर्यावरण-संरक्षण, ग्राम्य-स्वच्छता आदि कई विभागो में कार्य करने वाली सेवा मंदिर। जो डॉ. मोहन सिंह मेहता द्वारा स्थापित एक स्वैच्छिक संस्था (ट्रस्ट) है।

लगभग ३०० एकड़ में फैला राजस्थान विश्वविद्यालय, राजस्थान का सबसे पुराना विश्वविद्यालय है। इसकी स्थापना डॉ. मोहन सिंह मेहता इसके संस्थापक उप-कुलपति थे।

२१ जुलाई, १९३० को विद्या भवन की स्थापना की मोहन सिंह मेहता ने की थी। उस समय यह विद्यालय किराये के भवन में हुई थी।(वर्तमान में विध्या भवन में आरएनटी मेडिकल कालेज के अधीक्षक का निवास है)।

अब आप सोच रहे होंगे की इतनी बड़ी बड़ी संस्थाओ के संस्थापक मोहन सिंह मेहता कौन हैं ??? तो आईए हम आपको भूतपूर्व विदेश सचिव एवं पद्मविभूषण जगत मेहता के पिता डॉ.मोहन सिंह मेहता के जन्मदिवस के शुभ अवसर पर उन्हे हम याद करते हैं…

मोहन सिंह मेहता का जन्म २० अप्रैल, १८९५ को भीलवाड़ा के एक प्रतिष्ठित ओसवाल जैन परिवार में हुआ था। इनके पूर्वज रामसिंह मेहता मेवाड़ राज्य में प्रधान थे। उनके पूर्वजो की अगली पीढ़ी के जालिम सिंह भी मेवाड़ सरकार में बड़े पदों पर रहे। जालिम सिंह की तरह ही उनका पुत्र अक्षय सिंह जहाजपुर जिले का हाकिम रहे। इनके दो पुत्र हुए, जीवन सिंह और जसवन्त सिंह। जीवन सिंह के तीन पुत्र हुए, तेजसिंह, मोहनसिंह और चन्द्रसिंह। आज हम इन्ही मोहन सिंह के बारे में बात करेंगे…

वे बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। उच्च शिक्षा के लिये उन्हे आगरा जाना पड़ा जहां से उन्होने स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की और आगे के अध्ययन के लिये वे इलाहाबाद चले गए।इलाहाबाद में ही उनका सम्पर्क रवीन्द्रनाथ टैगोर से हुआ था। १९१८ के स्काउट के शिविर में उनका सम्पर्क पं. श्रीराम वाजपेयी, हृदयनाथ कुंजरू एवं पं. मदन मोहन मालवीय से हुआ।वर्ष १९१८ में ही मोहन सिंह ने एमए, अर्थशास्त्र एवं एलएलबी की डिग्री हासिल की। उन दिनों एक ही वर्ष में दो परीक्षाएं दी जा सकती थी। १९२० में सेवा समिति स्काउट एसोसियेशन में वे कमिश्नर नियुक्त हुए, इस समिति में प्रारंभ में तो बड़ा उत्साह रहा पर धीरे-धीरे इस समिति से जुड़े लोगों में जोश ठण्डा पड़ता चला गया। केवल पं.मदन मोहन मालवीय और मोहन सिंह मेहता ही इस समिति के शुभचिंतक के रूप में बचे रहे। पर वे पारिवारिक कारणों से उदयपुर चले आये पर इस समिति की गतिविधियों से वे अगले तीन वर्ष तक जुड़े रहे। उदयपुर आने पर मेवाड़ सरकार ने इनकी योग्यता को देखते हुए इन्हें कुम्भलगढ़ का हाकिम बना दिया। बाद में उन्हें उदयपुर बुला कर एक अंग्रेज अधिकारी के अन्तर्गत भूमि बंदोबस्त विभाग में लगा दिया। कालांतर में वे इंगलैण्ड चले गए, वहाँ वे ढाई वर्ष तक रहे वहां बेरेस्ट्री के अध्ययन के साथ-साथ डॉ. बर्न के मार्गदर्शन में उन्होने अर्थशास्त्र में पीएचडी पूर्ण किया। इस बीच उन्होने डेनमार्क के फॉक हाई स्कूल का अवलोकन भी किया। इंग्लैण्ड में रहते हुए उन्होने केम्ब्रिज व ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से भी सेटलमेण्ट के बारे में विशेष जानकारी ली। यहीं के अनुभव के आधार पर डॉ. मेहता ने उदयपुर में सेवा मन्दिर की स्थापना की।

वर्ष १९२८ में अपना अध्ययन समाप्त कर डॉ. मेहता उदयपुर लौट आये। उनके यहाँ आ जाने पर सरकार ने उन्हें पुनः रेवेन्यू कमिश्नर के पद पर नियुक्ति दे दी। ३५ वर्ष तक आते-आते उनका सम्पर्क विश्व की कई विभूतियों से हो गया। वर्ष १९३० तक उन्होंने मेवाड़ की शिक्षा का अध्ययन किया जहाँ उन्होने शिक्षा में दुर्दशा देखी। उनके सतत चिन्तन का परिणाम था कि २१ जुलाई १९३० को विद्या भवन की स्थापना की। उस समय यह विद्यालय किराये के भवन में चलता था। बाद में कठिन परिश्रम से नीमच माता की तलहटी में चार एकड़ भू-भाग लिया गया। स्वाधीनता से पूर्व डॉ॰ मोहन सिंह मेहता राजस्थान में डूंगरपुर राज्य के दीवान, मेवाड़ के राजस्व मंत्री और भारत की संविधान सभा के सदस्य रहे। १९५१ में वे पाकिस्तान में भारतीय हाई कमिश्नर भी रहे। उनकी सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि १९६० में जयपुर में राजस्थान विश्वविद्यालय की स्थापना रही थी। जिसके वे संस्थापक-उपकुलपति थे। राजस्थान विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त होने के पश्चात् उन्हें किसी राज्य का राज्यपाल बनाने का भारत सरकार का प्रस्ताव भी आया था पर उन्होंने उसे अस्वीकार कर दिया वे अपने पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार समाजसेवा के कार्यों में लग गये। शिक्षा और समाज-कार्यों के प्रति आजीवन समर्पित रहे दूरदृष्टिवान डॉ मेहता ने अपने गृह नगर उदयपुर में कई संस्थाओं और उनके माध्यम से ग्रामीण विकास और प्रौढ़-शिक्षण परियोजनाओं का सफल संचालन किया। मेवाड़ में महाराणा प्रताप जयंती मनाने का सिलसिला वर्ष १९१४ में जिस प्रताप सभा संस्था ने शुरू किया था, उस संस्था के भी संरक्षक डॉ॰ मेहता रहे।

उनकी सामजिक सेवाओं के सम्मान में उन्हें १९६९ में भारत सरकार ने दूसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया॥

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