राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वारा संचालित विद्या भारती के विद्यालयों को हम ‘सरस्वती शिशु मंदिर’ एवं ‘ सरस्वती विद्या मंदिर’ के नाम से भलीभांति परिचित हैं। संघ परिवार सरस्वती शिशु मंदिर की शिक्षा प्रणाली को अभिनव रूप में मानते हुवे इसका प्रसार करता है। इसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी प्रसिद्धि प्राप्त है। विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास हेतू सरस्वती शिशु मंदिर से बेहतर विकल्प आज के परिवेश में दूसरा कोई नहीं दिखता।

यह हुई पहली बात…

एक समय में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ‘राष्ट्रधर्म’ एवं ‘पाञ्चजन्य’ नामक दो साप्ताहिकी पत्रिका और स्वदेश नामक हिन्दी समाचारपत्र निकालने का फैसला लिया। अटल बिहारी वाजपेयी को सम्पादन की जिम्मेदारी दी गई, दीन दयाल उपाध्याय को मार्गदर्शक न्युक्त किया गया, मगर यह कार्य सुचारू रूप से हो सके, जैसे; पैसे की व्यवस्था, छपाई, कागज आदि तत्पश्चात समाज में वितरण आदि यानी जूता सिलाई से लेकर चंडी पाठ तक की पूरी जिम्मेदारी कौन निर्वहन करेगा, यह बात सबको परेशान कर रही थी। बड़ी माथापच्ची करने के बाद सबने मिलकर नानाजी को मुख्य प्रबन्ध निदेशक की जिम्मेदारी सौंपी।

और यह हुई दूसरी बात…

अब हम पहली और दूसरी बात को जोड़ कर देखेंगे तब पूरी बात खुल कर सामने आएगी…

जी हाँ वही नानाजी जिन्होंने शिक्षा, संस्कार, संसकृति एवं देशभक्ति के सर्वांगीण विकास के लिए सर्वप्रथम सरस्वती शिशु मन्दिर नामक पाठशाला की स्थापना की नींव गोरखपुर में डाली थी। उन्हीं नानाजी को एक बार फिर बड़ी जिम्मेदारी दी गई। उनदिनों पैसे के अभाव में पत्र पत्रिकाओं का प्रकाशन संगठन के लिये बेहद मुश्किल कार्य था, लेकिन इससे उनके उत्साह में कहीं से कोई कमी नहीं आयी और सुदृढ राष्ट्रवादी सामाग्री के कारण इन प्रकाशनों को लोकप्रियता और पहचान मिली। जिसके साक्षी हम सभी हैं। १९४८ में गाँधी जी की हत्या का दोषी मानकर संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया, जिससे इन पत्र पत्रिकाओं के प्रकाशन कार्यों पर व्यापक असर पड़ा। फिर भी नानाजी ने भूमिगत होकर इनका प्रकाशन कार्य जारी रखा।

अब आप सोच रहे होंगे, ये नानाजी कौन हैं और इनकी बात आज कहाँ से आ गई है, तो जनाब ये हैं…

चंडिकादास अमृतराव नानाजी देशमुख जिनका जन्म आज ही के दिन यानी, ११ अक्टूबर, १९१६ को
कस्बा कदोली, जिला हिंगोली, महाराष्ट्र में हुआ था। नानाजी का लंबा और घटनापूर्ण जीवन अभाव और संघर्षों में बीता। उन्होंने छोटी उम्र में ही अपने माता-पिता को खो दिया। मामा ने उनका लालन-पालन किया मगर बचपन अभावों में ही बीता। उनके पास शुल्क देने और पुस्तकें खरीदने तक के लिये पैसे नहीं होते थे किन्तु उनके अन्दर शिक्षा और ज्ञान प्राप्ति की उत्कट अभिलाषा थी। अत: इस कार्य के लिये उन्होने सब्जी बेचकर पैसे जुटाये। वे मन्दिरों में रह कर पिलानी के बिरला इंस्टीट्यूट से उच्च शिक्षा प्राप्त की।

कालांतर में वे आरएसएस में शामिल हो गये। भले ही उनका जन्म महाराष्ट्र में हुआ, लेकिन उनका कार्यक्षेत्र सदा से राजस्थान और उत्तरप्रदेश ही रहा। उनकी श्रद्धा देखकर सरसंघचालक श्री गुरू जी ने उन्हें प्रचारक के रूप में गोरखपुर भेजा। बाद में उन्हें बड़ा दायित्व सौंपा गया और वे उत्तरप्रदेश के प्रान्त प्रचारक के पद पर सुशोभित हुए।

जब संघ से प्रतिबन्ध हटा तो राजनीतिक संगठन के रूप में भारतीय जनसंघ की स्थापना का फैसला हुआ। श्री गुरूजी ने नानाजी को उत्तरप्रदेश में भारतीय जन संघ के महासचिव का प्रभार लेने को कहा। नानाजी के जमीनी कार्य ने उत्तरप्रदेश में पार्टी को स्थापित करने में अहम भूमिका निभायी। १९५७ तक नानाजी के नेतृत्व में जनसंघ ने उत्तरप्रदेश के सभी जिलों में अपनी इकाइयाँ खड़ी कर लीं। इस दौरान नानाजी ने पूरे उत्तरप्रदेश का दौरा किया जिसके परिणामस्वरूप जल्द ही भारतीय जनसंघ उत्तरप्रदेश की प्रमुख राजनीतिक शक्ति बन गयी। जनसंघ के कार्यकर्ताओं पर नानाजी की गहरी पकड़ थी।
अंततः उत्तरप्रदेश में पंडित दीनदयाल उपाध्याय की दृष्टि, अटल बिहारी वाजपेयी के वक्तृत्व और नानाजी के संगठनात्मक कार्यों के कारण भारतीय जनसंघ महत्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति बन गया।

एक बार नानाजी ने डॉ॰ लोहिया को भारतीय जनसंघ कार्यकर्ता सम्मेलन में बुलाया, जहाँ लोहिया जी की मुलाकात दीन दयाल उपाध्याय से हुई। दोनों के जुड़ाव से भारतीय जनसंघ समाजवादियों के करीब आया। दोनों ने मिलकर कांग्रेस के कुशासन का पर्दाफाश किया।

नानाजी, विनोबा भावे के भूदान आन्दोलन में सक्रिय रूप से शामिल हुए। दो महीनों तक वे विनोबाजी के साथ रहे। वे उनके आन्दोलन से अत्यधिक प्रभावित हुए। जेपी आन्दोलन में जब जयप्रकाश नारायण पर पुलिस ने लाठियाँ बरसायीं उस समय नानाजी ने जयप्रकाश को सुरक्षित निकाल लिया। इस दुस्साहसी कार्य में नानाजी को चोटें आई और इनका एक हाथ टूट गया। जयप्रकाश नारायण और मोरारजी देसाई ने नानाजी के साहस की भूरि-भूरि प्रशंसा की। जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर उन्होंने सम्पूर्ण क्रान्ति को पूरा समर्थन दिया।

जनता पार्टी से संस्थापकों में नानाजी प्रमुख थे।

कांग्रेस को सत्ताच्युत कर जनता पार्टी सत्ता में आयी। आपातकाल हटने के बाद चुनाव हुए, जिसमें बलरामपुर लोकसभा सीट से नानाजी सांसद चुने गये। उन्हें पुरस्कार के तौर पर मोरारजी मंत्रिमंडल में बतौर उद्योग मन्त्री शामिल होने का न्यौता भी दिया गया, लेकिन नानाजी ने साफ़ इनकार कर दिया। उनका सुझाव था, “साठ साल से अधिक आयु वाले सांसद राजनीति से दूर रहकर संगठन और समाज कार्य करें।” जो आज मोदी वाणी है।

और अंत में, पंडित दीनदयाल उपाध्याय की संकल्पना एकात्म मानववाद को मूर्त रूप देने के लिये नानाजी ने दीनदयाल शोध संस्थान की स्थापना की। नानाजी का कहना था, “उपाध्याय जी का यह दर्शन समाज के प्रति मानव की समग्र दृष्टि पर आधारित है जो भारत को आत्मनिर्भर बना सकता है।”

डॉ एपीजे अब्दुल कलाम के तथाकथित सांस्कृतिक, सामाजीक एवं राजनीतिक गुरु श्री नानाजी को अश्विनी राय ‘अरूण‘ का बारम्बार नमन !

धन्यवाद !

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