December 3, 2024

नमस्त्रैलोक्यजननि प्रसीद करुणार्णवे।

ब्रह्मविष्ण्वादिभिर्देवैर्वन्द्यमान पदाम्बुजे।।

जन्म कथा प्रथम…

जैसा कि हमने राधा जी पर आधारित प्रथम आलेख में पद्मपुराण की एक कथा को दर्शाया है कि श्री वृषभानुजी द्वारा यज्ञ भूमि साफ करते समय उन्हें कन्या रूप में श्रीराधा जी प्राप्त हुईं। पद्मपुराण में इस कथा पर प्रकाश डालते हुए आगे कहा गया है कि जब श्री विष्णु धरती पर अवतार लेने वाले थे, तब उन्होंने अन्य सभी देवी देवताओं को भी साथ चलने की आज्ञा दी। इस आज्ञा के अधीन वैकुण्ठ में स्थित लक्ष्मीजी भी राधा स्वरूप में अवतरित हुईं।

राधा नाम की महिमा…

राधा नाम की महिमा अपरंपार है। श्री कृष्ण स्वयं कहते है, ‘जिस समय मैं किसी के मुख से ‘रा’ सुनता हूं, उसे मैं अपना भक्ति प्रेम प्रदान करता हूं और धा शब्द के उच्चारण करनें पर तो मैं राधा नाम सुनने के लोभ से उसके पीछे चल देता हूं।’ राधाकृष्ण की भक्ति का कालान्तर में निरन्तर विस्तार हुआ। निम्बार्क, वल्लभ, राधावल्लभ और सखी समुदाय ने इसे पुष्ट किया।

द्वितीय जन्म कथा…

राधा रानी के लोकप्रिय जन्म कथाओं में से एक यह भी है कि वृषभानु जी को एक सुंदर शीतल सरोवर में सुनहरे कमल में एक दिव्य कन्या लेटी हुई मिली। वे उसे घर ले आए लेकिन वह बालिका आंखें खोलने को राजी ही नहीं थी। पिता और माता ने समझा कि वे देख नहीं सकतीं लेकिन प्रभु लीला ऐसी थी कि राधा सबसे पहले श्रीकृष्ण को ही देखना चाहती थीं। अत: जब बाल रूप में श्री कृष्ण जी से उनका सामना हुआ तो उन्होंने आंखें खोल दीं।

मनमोहना…

श्रीकृष्ण के साथ श्रीराधा सर्वोच्च देवी रूप में विराजमान् है। श्रीकृष्ण जगत् को मोहते हैं और राधा रानी कृष्ण को। १२वीं शती में जयदेवजी के गीत गोविन्द रचना से सम्पूर्ण भारत में कृष्ण और राधा के आध्यात्मिक प्रेम संबंध का जन-जन में प्रचार हुआ।

जन्म कथा तृतीय…

कहते हैं कि एक बार श्रीराधा गोलोकविहारी से रूठ गईं। इसी समय गोप सुदामा प्रकट हुए और राधा रानी का मान करने लगे, मगर जब राधा का मान उनके लिए असह्य हो गया तो उन्होंने राधा रानी की भर्त्सना की, इससे कुपित होकर राधा ने कहा, ‘सुदामा! तुम मेरे हृदय को सन्तप्त करते हुए असुर की भांति कार्य कर रहे हो, अतः तुम असुरयोनि को प्राप्त हो।’ यह सुन सुदामा कांप उठे और बोले, ‘गोलोकेश्वरी ! तुमने मुझे अपने शाप से नीचे गिरा दिया। मुझे असुरयोनि प्राप्ति का दुःख नहीं है, परंतु मैं कृष्ण वियोग से तप्त हो रहा हूं। इस वियोग का तुम्हें अनुभव नहीं है अतः एक बार तुम भी इस दुःख का अनुभव करो। सुदूर द्वापर में श्रीकृष्ण के अवतरण के समय तुम भी अपनी सखियों के साथ गोप कन्या के रूप में जन्म लोगी और श्रीकृष्ण से विलग रहोगी।’ यह कह सुदामा वहां से चल दिए और राधा रानी उन्हें जाते देखकर अपनी त्रृटि का आभास हुआ और वे भय से कातर हो उठीं।

तब लीलाधारी कृष्ण ने उन्हें सांत्वना दी, ‘हे देवी! यह शाप नहीं, अपितु वरदान है। इसी निमित्त से जगत में तुम्हारी मधुर लीला रस की सनातन धारा प्रवाहित होगी, जिसमे नहाकर जीव अनन्तकाल तक कृत्य-कृत्य होंगे।’ इस प्रकार पृथ्वी पर राधा जी का अवतरण द्वापर में हुआ।

राधिका प्रसंग…

अनया आराधितो नूनं भगवान् हरिरीश्वरः यन्नो विहाय गोविन्दः प्रीतोयामनयद्रहः।

प्रश्न उठता है कि तीनों लोकों का तारक कृष्ण को शरण देनें की सामर्थ्य रखने वाला ये हृदय उसी आराधिका का है, जो पहले राधिका बनी। उसके बाद कृष्ण की आराध्या हो गई। राधा को परिभाषित करनें का सामर्थ्य तो ब्रह्म में भी नहीं। कृष्ण राधा से पूछते हैं, ’ हे राधे! भागवत में तेरी क्या भूमिका होगी? राधा कहती हैं, ‘मुझे कोई भूमिका नहीं चाहिए कान्हा! मैं तो तुम्हारी छाया बनकर रहूंगी। कृष्ण के प्रत्येक सृजन की पृष्ठभूमि यही छाया है, चाहे वह कृष्ण की बांसुरी का राग हो या गोवर्द्धन को उठाने वाली तर्जनी या लोकहित के लिए मथुरा से द्वारिका तक की यात्रा की आत्मशक्ति। आराधिका में आ को हटाने से राधिका बनता है। इसी आराधिका का वर्णन महाभारत या श्रीमद्भागवत में प्राप्त है और श्रीराधा नाम का उल्लेख नहीं आता। भागवत में श्रीराधा का स्पष्ट नाम का उल्लेख न होने के कारण एक कथा यह भी आती है कि शुकदेव जी को साक्षात् श्रीकृष्ण से मिलाने वाली राधा है और शुकदेव जी उन्हें अपना गुरु मानते हैं। कहते हैं कि भागवत के रचयिता शुकदेव जी राधाजी के पास शुक रूप में रहकर राधा-राधा का नाम जपते थे। एक दिन राधाजी ने उनसे कहा, ‘हे शुक! तुम अब राधा के स्थान पर श्रीकृष्ण! श्रीकृष्ण! का जाप किया करो।’ उसी समय श्रीकृष्ण आ गए। राधा ने यह कह कर कि यह शुक बहुत ही मीठे स्वर में बोलता है, उसे कृष्ण के हाथ सौंप दिया। अर्थात् उन्हें ब्रह्म का साक्षात्कार करा दिया। इस प्रकार श्रीराधा शुकदेव जी की गुरु हैं और वे गुरु का नाम कैसे ले सकते थे?

जन्म कथा चतुर्थ…

किसी समय की बात है, नृगपुत्र राजा सुचन्द्र और पितरों की मानसी कन्या कलावती ने द्वादश वर्षो तक तप करके परमपिता श्री ब्रह्मा जी को प्रसन्न करके वरदान स्वरूप राधा रानी को पुत्री रूप में मांगा। फलस्वरूप वे दोनों द्वापर युग में राजा वृषभानु और रानी कीर्तिदा के रूप में जन्में, और पति-पत्नी बने। समय की धारा बहते बहते एक दिन श्रीराधा रानी के अवतरण का समय नजदीक आ गया। सम्पूर्ण व्रज में कीर्तिदा के गर्भधारण का समाचार सुख स्त्रोत बन कर फैलने लगा। वह मुहूर्त भी आ गया। भाद्रपद की शुक्ला अष्टमी चन्द्रवासर मध्यान्ह के समय आकाश मेघाच्छन्न हो गया। सहसा एक ज्योति प्रसूति गृह में फैल गई यह इतनी तीव्र ज्योति थी कि सभी के नेत्र बंद हो गए। एक क्षण पश्चात् गोपियों ने देखा कि शत-सहस्त्र शरतचन्द्रों की कांति के साथ एक नन्हीं बालिका कीर्तिदा मैया के समक्ष लेटी हुई है। उसके चारों ओर दिव्य पुष्पों का ढेर है। उसके अवतरण के साथ नदियों की धारा निर्मल हो गई, दिशाएं प्रसन्न हो उठी, शीतल मन्द पवन अरविन्द से सौरभ का विस्तार करते हुए बहने लगी।

महात्म…

कथा कुछ भी कहती हो, चाहे कारण कुछ भी हो। राधा बिना कृष्ण हैं ही नहीं, क्योंकि राधा का उल्टा धारा होता है और धारा का अर्थ है करंट यानि जीवन शक्ति। भागवत की जीवन शक्ति राधा हैं। श्रीकृष्ण देह, तो राधा आत्मा। श्रीकृष्ण शब्द, तो राधा अर्थ। श्रीकृष्ण गीत, तो राधा संगीत। श्रीकृष्ण वंशी, तो राधा स्वर। भगवान् ने अपनी समस्त संचारी शक्ति राधा में समाहित की है। इसलिए कहते हैं,

कृष्ण राधा तहां जहं राधा तहं कृष्ण।
न्यारे निमिष न होत कहु समुझि करहु यह प्रश्न।।

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