भारत के प्रथम राष्ट्रपति एवं महान भारतीय स्वतंत्रता सेनानी डॉ राजेन्द्र प्रसाद जी का जन्म ३ दिसम्बर १८८४ को बिहार के तत्कालीन सारण जिले (अब सीवान) के जीरादेई नामक गाँव में हुआ था। उनके पिता महादेव सहाय संस्कृत एवं फारसी के विद्वान थे एवं उनकी माता कमलेश्वरी देवी एक धर्मपरायण महिला थीं। जब राजेन्द्र बाबू पाँच वर्ष के हुए तो उनकी प्राथमिक शिक्षा के लिए एक मौलवी साहब को रखा गया, जो उन्हें फारसी की शिक्षा देते थे। उसके बाद उनकी शिक्षा के लिए उन्हें छपरा के जिला स्कूल भेजा गया। राजेन्द्र बाबू लगभग १३ वर्ष की आयु के होंगे तो उनका विवाह राजवंशी देवी से हो गया। विवाह के बाद भी उन्होंने पटना की टीके घोष अकादमी से अपनी पढाई जारी रखी। पढ़ाई की वजह से उनके वैवाहिक जीवन किसी तरह की कोई बाधा उत्पन्न नहीं हुई और नाही वैवाहिक जीवन की वजह से उन्हें अपनी पढ़ाई में कोई बाधा उत्पन्न हुई। आगे की पढ़ाई के लिए वे जिला स्कूल छपरा चले गये और वहीं से १८ वर्ष की उम्र में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा दी। उस प्रवेश परीक्षा में उन्हें प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था। वर्ष १९०२ में उन्होंने कोलकाता के प्रसिद्ध प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला ले लिया। उनकी प्रतिभा से गोपाल कृष्ण गोखले तथा बिहार-विभूति अनुग्रह नारायण सिन्हा जैसे विद्वान आकर्षित हुए। वर्ष १९१५ में उन्होंने स्वर्ण पदक के साथ विधि परास्नातक यानी एलएलएम की परीक्षा पास की और बाद में लॉ के क्षेत्र में ही उन्होंने डॉक्ट्रेट की उपाधि भी हासिल की। राजेन्द्र बाबू कानून की अपनी पढाई का अभ्यास भागलपुर में ही किया करते थे।
स्वतंत्रता आंदोलन…
चम्पारण में गांधी जी ने एक तथ्य अन्वेषण समूह भेजे जाते समय (राजेंद्र बाबू वकील के नाते उनसे पहली बार मिले थे) उनसे अपने स्वयंसेवकों के साथ आने का अनुरोध किया था राजेन्द्र। राजेन्द्र बाबू महात्मा गाँधी की निष्ठा, समर्पण एवं साहस से बहुत प्रभावित हुए और वर्ष १९२८ में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय के सीनेटर का पद त्याग दिया। गाँधी जी ने जब विदेशी संस्थाओं के बहिष्कार की अपील की तो उन्होंने अपने पुत्र मृत्युंजय प्रसाद, जो एक अत्यंत मेधावी छात्र थे, उन्हें कोलकाता विश्वविद्यालय से हटाकर बिहार विद्यापीठ में दाखिल करवाया था। उन्होंने ‘सर्चलाईट’ और ‘देश’ जैसी पत्रिकाओं में इस विषय पर बहुत से लेख लिखे थे और इन अखबारों के लिए अक्सर वे धन जुटाने का काम भी करते थे। वर्ष १९१४ में बिहार और बंगाल मे आई बाढ़ में उन्होंने काफी बढ़चढ़ कर सेवा-कार्य किया था। बिहार के वर्ष १९३४ में आए भूकंप के समय राजेन्द्र बाबू कारावास में थे। उसी समय दो वर्ष का उनका कारावास काल पूरा हुआ था, अतः जेल से छूटने के पश्चात वे भूकम्प पीड़ितों के लिए धन जुटाने में तन-मन से जुट गये और उन्होंने वायसराय के जुटाये धन से कहीं अधिक अपने व्यक्तिगत प्रयासों से जमा कर लिया। सिंध और क्वेटा के भूकम्प के समय भी उन्होंने कई राहत-शिविरों का इंतजाम अपने हाथों मे ले लिया था।
वर्ष १९३४ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुंबई अधिवेशन में वे अध्यक्ष चुने गये। नेताजी सुभाषचंद्र बोस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने पर कांग्रेस अध्यक्ष का पदभार उन्होंने एक बार पुन: वर्ष १९३९ में सँभाला था।
राष्ट्रपति…
भारत के स्वतन्त्र होने के बाद उन्होंने संविधान लागू होने पर देश के पहले राष्ट्रपति का पदभार सँभाला। राष्ट्रपति के तौर पर उन्होंने कभी भी अपने संवैधानिक अधिकारों में प्रधानमंत्री या कांग्रेस को दखल अंदाजी का मौका नहीं दिया और हमेशा स्वतन्त्र रूप से कार्य करते रहे। हिन्दू अधिनियम पारित करते समय उन्होंने काफी कड़ा रुख अपनाया था। राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने कई ऐसे दृष्टान्त छोड़े जो बाद में उनके परवर्तियों के लिए उदाहरण बन गए। भारतीय संविधान के लागू होने से एक दिन पूर्व २५ जनवरी, १९५० को उनकी बहन भगवती देवी का निधन हो गया, लेकिन वे भारतीय गणराज्य के स्थापना की रस्म के बाद ही दाह संस्कार में भाग लेने गये। १२ वर्षों तक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करने के पश्चात उन्होंने वर्ष १९६२ में अपने अवकाश की घोषणा की। अवकाश ले लेने के बाद ही उन्हें भारत सरकार द्वारा सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाज़ा गया।
कृतियाँ…
राजेन्द्र बाबू ने वर्ष १९४६ में अपनी ‘आत्मकथा’ के अलावा कई अन्य पुस्तकों को लिखा, जिनमें वर्ष १९५४ में ‘बापू के कदमों में बाबू’, वर्ष १९४६ में ‘इण्डिया डिवाइडेड’, वर्ष १९२२ में ‘सत्याग्रह ऐट चम्पारण’, ‘गान्धीजी की देन’, ‘भारतीय संस्कृति व खादी का अर्थशास्त्र’ इत्यादि उल्लेखनीय हैं।
भारत रत्न…
वर्ष १९६२ में अवकाश प्राप्त भारत सरकार ने उन्हें भारत रत्न की सर्वश्रेष्ठ उपाधि से सम्मानित किया। यह उस भूमिपुत्र के लिये कृतज्ञता का प्रतीक था जिसने अपनी आत्मा की आवाज़ सुनकर आधी शताब्दी तक अपनी मातृभूमि की सेवा की थी। अपने जीवन के आख़िरी महीने बिताने के लिये उन्होंने पटना के निकट सदाकत आश्रम चुना। यहाँ पर २८ फ़रवरी, १९६३ में उनके जीवन रूपी पुस्तक का अध्याय समाप्त हुई। यह पुस्तक थी, श्रेष्ठ भारतीय मूल्यों और परम्परा की चट्टान सदृश्य आदर्शों की। हम सभी को इन पर गर्व है और ये सदा राष्ट्र को प्रेरणा देते रहेंगे।