“कामिनी – कंचन ईश्वर प्राप्ति के सबसे बड़े बाधक हैं”
गदाधर चट्टोपाध्याय
सात वर्ष की अल्पायु में ही गदाधर के सिर से पिता का साया उठ गया था। आर्थिक कठिनाइयों ने आ घेरा मगर इनके बड़े भाई रामकुमार चट्टोपाध्याय जो कलकत्ता में एक पाठशाला के संचालक थे। वे गदाधर को अपने साथ कलकत्ता ले गए।
कालान्तर मे रामकुमार जी को दक्षिणेश्वर काली मंदिर के मुख्य पुजारी के रूप में नियुक्त किया गया। गदाधर और उनके भांजे ह्रदय, रामकुमार जी की सहायता करते थे। गजाधर को देवी प्रतिमा को सजाने का दायित्व दिया गया था। मगर समय की धारा एक समान ना रही और एक दिन रामकुमार जी की मृत्यु हो गई। बड़े भाई के मरने के पश्चात गदाधर को काली मंदिर में पुरोहित के तौर पर नियुक्त कर दिया गया, मगर रामकुमार की मृत्यु के बाद गदाधर ज़्यादा ध्यान मग्न रहने लगे। वे काली माता के मूर्ति को अपनी माता और ब्रम्हांड की माता के रूप में देखने लगे। वो कहते थे…
” घर, द्वार, मंदिर और सब कुछ अदृश्य हो गया, जैसे कहीं कुछ भी नहीं था! और मैंने एक अनंत तीर विहीन आलोक का सागर देखा, यह चेतना का सागर था। जिस दिशा में भी मैंने दूर दूर तक जहाँ भी देखा बस उज्जवल लहरें दिखाई दे रही थी, जो एक के बाद एक, मेरी तरफ आ रही थी।”
लोग उन्हे पागल समझने लगे…
उन्माद की अवस्था को देखते हुवे, गदाधर का विवाह शारदा देवी से कर दिया गया, मगर यह क्या ? सभी स्त्रीयों मे माँ और माँ काली के स्वरूप को देखने वाले गदाधर ने अपनी पहली रात को ही शारदा देवी को माँ कह कर पुकारा। इसके बाद भैरवी ब्राह्मणी का दक्षिणेश्वर में आगमन हुआ। उन्होंने उन्हें तंत्र की शिक्षा दी। मधुरभाव में अवस्थान करते हुए ठाकुर ने श्रीकृष्ण का दर्शन किया। उन्होंने तोतापुरी महाराज से अद्वैत वेदान्त की ज्ञान लाभ किया और जीवन्मुक्त की अवस्था को प्राप्त किया। सन्यास ग्रहण करने के बाद उनका नया
नाम हुआ…..
#श्रीरामकृष्णपरमहंस
वक्त के साथ उनकी प्रसिद्धी इतनी बढ़ी की बड़े-बड़े विद्वान एवं प्रसिद्ध वैष्णव और तांत्रिक साधक
जैसे-
पं॰ नारायण शास्त्री, पं॰ पद्मलोचन तारकालकार, वैष्णवचरण और गौरीकांत तारकभूषण आदि उनसे आध्यात्मिक प्रेरणा प्राप्त करते रहते। वह शीघ्र ही तत्कालीन सुविख्यात विचारकों के घनिष्ठ संपर्क में आए जो बंगाल में विचारों का नेतृत्व कर रहे थे। इनमें केशवचंद्र सेन, विजयकृष्ण गोस्वामी, ईश्वरचंद्र विद्यासागर के नाम लिए जा सकते हैं।
इसके अतिरिक्त साधारण भक्तों का एक दूसरा वर्ग था जिसके सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति रामचंद्र दत्त, गिरीशचंद्र घोष, बलराम बोस, महेंद्रनाथ गुप्त (मास्टर महाशय) और दुर्गाचरण नाग थे।
मगर एक नाम और था,
जो इन सबसे अलंग औऱ उनका प्यारा था,
#विवेकानन्द
उनके द्वारा विवेकानन्द को सिखाए गए अनेक सिखों मे से पहली औऱ आखरी सीख यह थी…
“अविद्या माया सृजन के काले शक्तियों को दर्शाती हैं (जैसे काम, लोभ, लालच, क्रूरता, स्वार्थी कर्म आदि ), यह मानव को चेतना के निचले स्तर पर रखती हैं। यह शक्तियां मनुष्य को जन्म और मृत्यु के चक्र में बंधने के लिए ज़िम्मेदार हैं। वही विद्या माया सृजन की अच्छी शक्तियों के लिए ज़िम्मेदार हैं (जैसे निस्वार्थ कर्म, आध्यात्मिक गुण, उँचे आदर्श, दया, पवित्रता, प्रेम और भक्ति)। यह मनुष्य को चेतन के ऊँचे स्तर पर ले जाती हैं।
अंत में वो दिन भी आ गया
#१६अगस्त१८८६ सवेरा होने के कुछ ही वक्त पहले आनन्दघन विग्रह श्रीरामकृष्ण इस नश्वर देह को त्याग कर महासमाधि द्वारा स्व-स्वरुप में लीन हो गये।
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