images (5)

आज हम बात करने जा रहे हैं, एक ऐसे राष्ट्रसेवक, देशभक्त, हिन्दी सेवक के बारे में, जिन्होंने भारत से बाहर दक्षिण अफ्रीका में हिंदी साहित्य एवम भाषा को स्थापित किया तथा भारत के बाहर फिजी में रह रहे भारतीयों की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया। वे दक्षिण अफ्रीका में महात्मा गांधी के निकट सहयोगी भी थे, या यूं कहें कि गांधी जी उनके सहयोगी थे, क्योंकि ‘संन्यासी’ उस समय में दक्षिण अफ्रीका में बेहद सक्रिय, लोकप्रिय औक कर्मठ प्रवासियों में थे।

परिचय…

स्वामी भवानी दयाल संन्यासी का जन्म १० सितम्बर, १८९२ को दक्षिण अफ्रीका के गौतेंग अंतर्गत जरमिस्टन में हुआ था। इनके पिता का नाम बाबू जयराम सिंह और माता का नाम मोहिनी देवी था। जरमिस्टन में पंडित आत्माराम नरसिराम व्यास ने गुजराती और हिन्दी भाषा पढ़ाने के लिए एक स्कूल खोला था। सन्यासी ने प्रारम्भिक शिक्षा उसी स्कूल से प्राप्त की।

हिन्दी सेवा…

सन्यासी की पत्नी जगरानी देवी अनपढ़ थीं, लेकिन संन्यासी ने हिन्दी भाषा और साहित्य का ज्ञान उन्हें घर में दिया ही नहीं वल्कि उन्हें इस अनुरूप तैयार किया कि वे हिन्दी की अनन्य सेवी बन दक्षिण अफ्रीका में प्रमुख महिला सत्याग्रही भी बनीं। उनके नाम पर ही नेटाल में जगरानी प्रेस की स्थापना हुई। संन्यासी के हिन्दी के प्रति समर्पण और उनकी राजनीतिक समझ का ही परिणाम था कि दक्षिण अफ्रीका में वे महात्मा गांधी द्वारा शुरू किया गए पत्र ‘इंडियन ओपिनियन’ के हिंदी संपादक बने। इतना ही नहीं, भारत आकर उन्होंने जिन कार्यों की बुनियाद रखी वह भी चकित करनेवाला है।

मातृभुमि पर आगमन…

सन्यासी का पहली बार १३ वर्ष की आयु में ही अपने पिता के साथ भारत में अपने पैतृक गांव बहुआरा आना हुआ था। बहुआरा गांव बिहार के रोहतास जिले में है। एक बार गांव क्या आये, उनका यहां आना-जाना लगा ही रहा। किशोरावस्था में ही संन्यासी ने अपने गांव के गरीब बच्चों को पढ़ाने के लिए एक राष्ट्रीय पाठशाला की नींव रख दी थी। बाद में उन्होंने एक वैदिक पाठशाला भी खोली। फिर गांव में ही उन्होंने खरदूषण नाम की एक और पाठशाला भी शुरू की। यहां बच्चों को पढ़ाने के साथ संगीत की शिक्षा दी जाती थी और वहां किसानों को खेती संबंधी नई जानकारियां भी दी जाती थीं। जब उन्होंने खरदूषण पाठशाला की नींव रखी तो उसका उद्घाटन करने डॉ. राजेंद्र प्रसाद और सरोजनी नायडू जैसे दिग्गज उनके गांव बैलगाड़ी से यात्रा कर पहुंचे थे। इस पाठशाला के साथ ही संन्यासी ने अपने गांव में वर्ष १९२६ में ‘प्रवासी भवन’ का भी निर्माण करवाया।

कारावास की सजा…

वे वर्ष १९३९ में दक्षिण अफ्रीका के प्रवासी भारतीयों के प्रतिनिधि के रूप में भारत आये। भारत में उनकी गतिविधियां बढ़ीं तो अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। वे हजारीबाग जेल में रहे। वहां उन्होंने ‘कारागार’ नाम से पत्रिका निकालनी शुरू कर दी, जिसके तीन अंक जेल से हस्तलिखित रूप में निकले। उसी में एक सत्याग्रह पर आधारित अंक भी था, जिसे अंग्रेजी सरकार ने गायब करवा दिया था।

साहित्यकार…

इंडियन कॉलोनियल एसोसिएशन से जुड़े प्रेम नारायण अग्रवाल ने वर्ष १९३९ में ‘भवानी दयाल संन्यासी- ए पब्लिक वर्कर ऑफ साउथ अफ्रीका’ नाम से एक पुस्तक की रचना की थी, जिसे अंग्रेजी सरकार ने जब्त कर लिया था।

संन्यासी स्वयं एक रचनाधर्मी थे और उन्होने कई अहम पुस्तकों की रचना की। उनकी चर्चित पुस्तकों में वर्ष १९२० में लिखी गयी ‘दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह का इतिहास’, वर्ष १८४५ में लिखी गयी ‘प्रवासी की आत्मकथा’, ‘दक्षिण अफ्रीका के मेरे अनुभव’, ‘हमारी कारावास की कहानी’, ‘वैदिक प्रार्थना’ आदि है। ‘प्रवासी की आत्मकथा’ की भूमिका डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने लिखी है तो ‘वैदिक प्रार्थना’ की भूमिका आचार्य शिवपूजन सहाय ने लिखी है। सहाय जी ने तो यहां तक लिखा है कि उन्होंने देश के कई लोगों की लाइब्रेरियां देखी हैं, लेकिन संन्यासी की तरह किसी की निजी लाइब्रेरी नहीं थी।

संस्थान…

भवानी दयाल संन्यासी के नाम पर अब भी दक्षिण अफ्रीका में कई महत्वपूर्ण संस्थान चलते हैं। डरबन में उनके नाम पर भवानी भवन है। नेटाल और जोहांसबर्ग के अलावा दूसरे कई देशों में भी संन्यासी अब भी एक नायक के तौर पर महत्वपूर्ण बने हुए हैं।उनके नाम पर फिजी की आर्य प्रतिनिधि सभा ने भवानी दयाल आर्य कॉलेज की स्थापना की है।

विशेष…

बिहार के एक गिरमिटिया मजदूर और अयोध्या से आरकाटी प्रथा के तहत ले जायी गयी एक महिला के पुत्र भवानी संन्यासी ने दक्षिण अफ्रीका में आप्रवासियों के साथ भारतीयों का एकीकरण करने के साथ ही उनका बौद्धिक और राजनीतिक नेतृत्व भी किया था।

संन्यासी दक्षिण अफ्रीकी देशों में रहनेवाले भारतीयों के सबसे विश्वसनीय और लोकप्रिय दूत थे। वे महात्मा गांधी के प्रिय लोगों में से एक भी रहे और इन सबसे बड़ी पहचान उनकी हिंदी के अनन्य सेवक की रही। अपने समय में उन्होंने दक्षिण अफ्रीकी देशों में हिंदी के प्रचार में महती भूमिका निभायी। वर्ष १९२२ में संन्यासी ने नेटाल से ‘हिंदी’ नाम से साप्ताहिक पत्रिका निकाली जो अफ्रीका के अलग अलग देशों में रहने वाले प्रवासियों के बीच अत्यन्त लोकप्रिय पत्रिका हुई। इसके साथ ही संन्यासी ने दक्षिण अफ्रीका के कई देशों में रात्रि हिंदी पाठशााला की शुरुआत भी की।

और अंत में…

९ मई, १९५० को इस दुनिया को छोड़ कर जाने वाले संन्यासी, नेटाल और जोहांसबर्ग के अलावा दूसरे कई देशों में अब भी एक नायक के तौर पर महत्वपूर्ण बने हुए हैं, परंतु अपने देश भारत में न तो गांधी को मानने वाले ही उनकी कभी बात करते हैं, ना ही हिन्दी भाषी ही कभी उनकी चर्चा करते हैं और न ही विस्मृति के गर्भ से खोज-खोज कर रोज नये नायकों को उभारने में लगे बिहारी। यह हाल तब है जब संन्यासी ने दक्षिण अफ्रीका से ज्यादा समय अपने ही देश, अपने लोगों के बीच अपना समय बिताया था।

About The Author

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *