प्रसिद्ध वकील, राजनेता और समाज सुधारक तेज बहादुर सप्रू का जन्म ८ दिसम्बर, १८७५ को अलीगढ़ के कश्मीरी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। श्री अंबिका प्रसाद सप्रू जी की वे एकमात्र संतान थे। उनके दादा अलीगढ़ में उप जिलाधिकारी थे। उन्होंने गोपाल कृष्ण गोखले की उदारवादी नीतियों को आगे बढ़ाया और कालांतर में आजाद हिन्द फौज के सेनानियों का मुकदमा लड़ने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
परिचय…
तेज बहादुर ने मथुरा में अपनी प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद आगे अध्ययन के लिए आगरा कॉलेज में प्रवेश लिया उन्होंने बीए ओनर्स तथा एमए में विश्वविद्यालय में सर्वोच्च अंक प्राप्त किए। उसके बाद वर्ष १८९५ में उन्होंने कानून में स्नातक की डिग्री प्राप्त की और मुरादाबाद के जिला कचहरी में वकालत करने लगे। ३ वर्ष बाद वे इलाहबाद उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे। तेज बहादुर ने इस दौरान अपना अध्ययन भी जारी रखा और वर्ष १९०१ में उन्होंने मास्टर ऑफ़ लॉ की डिग्री प्राप्त की उसके बाद डायरेक्ट की भी डिग्री प्राप्त कर ली। उस समय तक वे एक मेधावी वकील के रूप में माने जाते थे।
राजनैतिक जीवन…
तेज बहादुर सप्रू का राजनैतिक झुकाव बहुत शीघ्र ही मात्र १९ वर्ष की अवस्था में हो गया था। वर्ष १८८२ में उन्होंने कांग्रेस अधिवेशन इलाहाबाद में भाग लिया तथा सुरेन्द्रनाथ बनर्जी की वाकपटुता से बहुत प्रभावित हुए। वर्ष १८९६ में वह कांग्रेस के प्रतिनिधि चुने गये और वर्ष १९०० के लाहौर अधिवेशन में दास व मालवीय जी के साथ वे भी शिक्षा समिति के लिए चुने गये।
श्री सप्रू उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी में विगत ७ वर्षों तक सेवारत रहे। वर्ष १९०५ में जब उनका संपर्क गोपाल कृष्ण गोखले से बनारस के कांग्रेस अधिवेशन में हुआ तो वे बेहद प्रभावित हुए। वहां पर दोनों ने हिंसा के खिलाफ समर्थन किया व संवैधानिक नियमों के अंतर्गत किसी तरह का विरोध करने का समर्थन किया। वर्ष १९०६ से १९१७ तक वे अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य रहे। कांग्रेस कमेटी पर कांटे के चुनाव में वर्ष १९१६ में सप्रू ब्रिटिश विधान परिषद् के लिए चुने गये। राष्ट्रीय मांगों के अनुरूप संवैधानिक पुनर्स्थापना के लिए बनाए गये प्रारूप में सप्रू के साथ साथ जिन्ना व मालवीय जी के सहयोग से बनाये गये प्रारूप को १९ सदस्यों का स्मारक पत्र के रूप में या नाम से जाना गया। मोटेग्यू चेम्सफोर्ड रिपोर्ट वर्ष १९१८ में प्रकाशित हुआ और क्रांतिकारी समूह के साथ इस संबंध में वैचारिक मतभेद होने के कारण उन्होंने कांग्रेस से अपना नाम वापिस ले लिया।
वर्ष १९१९ में वे उदारवादी पार्टी में सम्मिलित हो गये और कार्यकारिणी समिति के सदस्य नियुक्त किये गये। इस समिति ने कुछ विषयों को विशेष रूप से राज्यपाल व उसके मंत्रियों को सौपना था और वे सभी पूर्णरूपेण राज्यपाल के लिए आरक्षित थे। एक बार पुनः रिपोर्ट बनाने के सम्बन्ध में उनका योगदान महत्वपूर्ण व अनमोल रहा। उनकी कार्यशैली को देखते हुए उन्हें वायसराय की प्रशासनिक परिषद में कानूनी सदस्य के रूप में नियुक्त किया गया। इस पद पर रहते हुए सप्रू ने कुछ प्रेस नियमों का खंडन किया, जैसे वर्ष १९१० का प्रेस अधिनियम तथा वर्ष १९०८ के समाचार पत्र अधिनियम। यह सप्रू की ही देन है कि वर्ष १९०८ के अपराधिक कानून के संशोधित अधिनियम को कानून की पुस्तक से हटा दिया गया। इन सब के बावजूद सप्रू कुछ घटनाओं से संतुष्ट नहीं थे और वर्ष १९२२ में उन्होंने त्याग पत्र दे दिया, जबकि वर्ष १९२३ में सरकार ने उन्हें नाईटहुड की उपाधि देना प्रस्तावित था। जिसकी उन्होंने कोई परवाह नहीं की।
तेज बहादुर ने वर्ष १९२३ में लंदन में साम्राज्यवाद सम्मेलन में भारत सरकार का प्रतिनिधित्व किया और उन्होंने वहां पर समानता हेतु अपनी आवाज बुलंद की। वर्ष १९२९ में सरकार द्वारा एक पुनर्स्थापित जांच समिति की स्थापना की गई ताकि वर्ष १९१९ के भारत सरकार के अधिनियम संशोधन मांग के प्रति विचार विमर्श किया जा सके। अल्पसंख्यक रिपोर्ट के प्रारूप को तैयार करने में सप्रू की भूमिका मुख्य रूप से थी जिसमें जिन्ना के हस्ताक्षर के साथ प्रारूपित किया गया था। इस रिपोर्ट में पूर्णरूपेण केंद्रीय सरकार के साथ पूर्णरूपेण प्रांतीय स्वायतशासन का समर्थन किया गया था। इसके विपरीत बहुसंख्यक रिपोर्ट में सामाजिक स्थिति के स्तर को उसी रूप में बरकरार रखने का समर्थन किया गया था। जब साइमन कमिशन को सभी समस्याओं पर विचार करने के लिए लागू किया गया तब तेज बहादुर सप्रू ने उसका बहिष्कार करने के लिए एक जोरदार आव्हान किया। मोतीलाल नेहरू के नेतृत्व में अखिल दल सम्मेलन में वर्ष १९२८ में एक समिति की स्थापना की गई और तत्कालीन चुनौतियों से सामना करने के लिए एक संवैधानिक प्रारूप तैयार किया गया। समिति के रिपोर्ट का विस्तृत प्रारूप सप्रू द्वारा तैयार किया गया था और एक संयुक्त नीति का प्रस्ताव किया गया जिसके साथ ब्रिटिश सरकार का भी सहयोग हो। इसके परिणामस्वरूप वर्ष १९३० में प्रथम गोलमेज सम्मेलन का आयोजन किया गया। इस दौरान वर्ष १९२९ में कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव पास किया। दुर्भाग्य यह था कि वे सप्रू अपने लाख प्रयत्नों के बावजूद कांग्रेस को सम्मेलन में सम्मिलित होने के लिए प्रोत्साहित नहीं कर पाए और कांग्रेस ने सम्मेलन का बहिष्कार कर दिया। अखिल भारतीय राज्य संघ के आदर्शों के अनुरूप एक केंद्रीय सरकार के गठन की मांग को लेकर पूरे भारतवासियों ने सम्पूर्ण समर्थन दिया। तेज बहादुर सप्रू को स्वयं प्रधानमंत्री मैक डोनाल्ड और ब्रिटिश मजदूर पार्टी की तरफ से भी पूर्ण समर्थन मिला और उसके तदनुसार गांधी को वर्ष १९३१ के द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए मना कर दिया गया। दुर्भाग्य से लेबर पार्टी वर्ष १९३१ के आम चुनाव में हार गई। बिलिंग्डन की जगह इरविन वायसराय के पद पर नियुक्त किये गये। प्रशासनिक सर्किल में इस तरह के परिवर्तन के कारण दूसरे व तीसरे गोलमेज सम्मेलन में संतुष्टिपूर्ण कदम नाम मात्र का रहा, जिसके परिणामस्वरूप भारत सरकार एक्ट १९३५ को भारत में कोई विशेष समर्थन प्राप्त नहीं हो सका।
सप्रू ने लिबरल फेडरेशन से त्याग पत्र देकर स्वतंत्र रूप से भूमिका निभाने लगे। वह वर्ष १९३४ में प्रिवी काउंसिल के एक सदस्य के रूप में नियुक्त किये गये और उसी वर्ष बेरोजगार संयुक्त राज्य समिति के सभापति नियुक्त किये गये। इस समिति में ७ प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले व्यक्ति सदस्य थे। जिन्होंने अपनी रिपोर्ट में व्यावसायिक शिक्षा, बेरोजगार दफ्तर स्थापना करना, आधुनिक वातावरण के अनुरूप शिक्षा को बढ़ावा देना तथा अध्यापकों को उनके परिश्रम के अनुसार पारितोषिक देना आदि को विशाल रूप में विकसित करने के लिए प्रस्तावित समर्थन किया।
शेष जीवन…
उनके जीवन का शेष भाग अस्वस्थता बीमारियों से जूझते हुए बीता। उन्होंने एकांत जीवन जीने का विचार किया हुआ था, फिर भी वर्ष १९४१ में वे एक अराजनैतिक पार्टी सभा की अध्यक्षता करते रहे। इसमें कांग्रेस व मुस्लिम लीग को भाग लेने के लिए पूर्णतया मनाही थी। इस सभा की मुख्य मांगे थीं, भारतीयों के बीच अनेकता में एकता लाना, सत्याग्रह से अलग रहना तथा संसद संस्थान का बहिष्कार करना आदि। मगर यह आवाज उतनी ऊंचाई प्राप्त नहीं कर सकी, क्योंकि देश में विभाजन के लिए शीघ्र कार्यवाहियां व घटनाएं घटित होने लगी। इसपर भी तेज बहादुर सप्रू ने अपनी तरफ से पूरा प्रयास किया कि इस विभाजन को रोका जा सके, पर मुस्लिम लीग के नेता जिन्ना की जिद के आगे सभी झुक गए।
सामाजिकता…
सप्रू हिन्दू लॉ रीफोर्म के प्रबल समर्थक थे तथा उन्होंने उत्तर प्रदेश व बिहार में जमीदारी प्रथा के चलते असामियों द्वारा उत्पीड़न के विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद की। वह विश्व व्यापार के भारतीय परिषद के अध्यक्ष नियुक्त किये गये। जिसके प्रतिष्ठापन समारोह में वर्ष १९४३ में उन्होंने अध्यक्षता भी की।
अपनी बात…
सप्रू उन अत्यंत महत्वपूर्ण वकीलों में से एक थे जिन्होंने आजाद हिन्द फौज के सेनानियों का मुकदमा लड़ा था। भारत की स्वतंत्रता के बाद २० जनवरी, १९४९ को इलाहाबाद में उनका निधन हो गया।
तेज बहादुर सप्रू उर्दू व पर्सियन भाषा के विद्वान् थे। ऐसा कहा जाता हैं कि एक हाईकोर्ट के झगड़े के दौरान मौलिक अरबी पर्सियन अभिलेख का अनुवाद करते हुए उन्होंने जिन्ना को पीछे छोड़ दिया था। वह घटना इतनी अद्भुत व विलक्ष्ण थी कि अगले दिन एक दैनिक समाचार के मुख्य पृष्ट पर शीर्षक ‘मौलाना सप्रू ने अरबी पर्शियन का अनुवाद पंडित जिन्ना के लिए किया’ से एक लेख प्रकाशित हुआ।