होलकर राजवंश की स्थापना मल्हार राव ने की थे, जो सन् १७२१ में पेशवा की सेवा में शामिल हुए और जल्दी ही सूबेदार बने। जानकारी के लिए बताते चलें कि होलकर वंश के लोग ‘होल गाँव’ के निवासी हैं, अतः उन्हें ‘होलकर’ कहा जाता है। जबकि संपूर्ण भारतवर्ष के अलग-अलग क्षेत्रों में इस जाति को लोग अलग अलग नाम से जाने जाते हैं, परंतु ये धनगर जाति के हैं। इन्होंने सन १८१८ तक मराठा महासंघ के एक स्वतंत्र सदस्य के रूप में मध्य भारत में इंदौर पर शासन किया और बाद में भारत की स्वतंत्रता तक ब्रिटिश भारत की एक रियासत रहे। होलकर वंश उन प्रतिष्ठित राजवंशों मे से एक था जिनका नाम शासक के शीर्षक से जुड़ा, जो आम तौर पर महाराजा होलकर या ‘होलकर महाराजा’ के रूप में जाना जाता था, जबकि पूरा शीर्षक ‘महाराजाधिराज राज राजेश्वर सवाई श्री (व्यक्तिगत नाम) होलकर बहादुर, महाराजा ऑफ़ इंदौर’ था। इसी वंश परंपरा को आगे बढ़ाया चक्रवर्ती महाराजा यशवंतराव होलकर ने, जो पूर्ववर्ती महाराजा तुकोजीराव होलकर के सुपुत्र थे।
जिनका जन्म ३ दिसंबर १७७६ को मराठा साम्राज्य के अधीन पुणे के वाफगांव में हुआ था। होलकर साम्राज्य के बढ़ते प्रभाव के कारण ग्वालियर के शासक दौलतराव सिंधिया ने यशवंतराव के बड़े भाई मल्हारराव की धोखे से हत्या करवा दी। इस घटना से यशवंतराव पूरी तरह से टूट गए।अपनों पर से उनका विश्वास उठ गया। इसके बाद उन्होंने स्वयं को किसी तरह सम्हाला और मजबूत करना शुरू कर दिया। इतिहास कहता है कि वे अपने काम में काफी होशियार और बहादुर थे। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सन १८०२ में इन्होंने पुणे के पेशवा बाजीराव द्वितीय व सिंधिया की एकजुट सेना को मात दी और इंदौर वापस आ गए।
यही वह समय था जब अंग्रेज भारत में तेजी से अपने पांव पसार रहे थे। भारत को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद कराना भी यशवंत राव के सामने एक चुनौती थी। इसके लिए उन्हें अन्य भारतीय शासकों की सहायता की जरूरत थी। वे अंग्रेजों के बढ़ते साम्राज्य को रोक देना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने अपनी पुरानी दुश्मनी को छोड़कर नागपुर के भोंसले और ग्वालियर के सिंधिया से हाथ मिलाया और अंग्रेजों को खदेड़ने की ठानी। लेकिन पुरानी दुश्मनी के कारण भोंसले और सिंधिया ने उन्हें एक बार फिर से धोखा दिया और यशवंतराव एक बार फिर युद्ध में अकेले पड़ गए। उन्होंने अन्य शासकों से एकजुट होकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने का आग्रह किया, लेकिन किसी ने उनकी बात नहीं मानी। परंतु यशवंतराव कहां परवाह करने वाले थे, निकल पड़े अंग्रेजों से लोहा लेने। ८ जून १८०४ को उन्होंने अंग्रेजों की सेना को खूब धूल चटाई, जिससे अंग्रेजों को कोटा छोड़ कर भागना पड़ा।
११ सितंबर, १८०४ को अंग्रेज जनरल वेलेस्ले ने लॉर्ड ल्युक को लिखा कि यदि यशवंतराव पर जल्दी काबू नहीं पाया गया तो वे अन्य शासकों के साथ मिलकर अंग्रेजों को भारत से खदेड़ देंगे। इसी मद्देनजर नवंबर, १८०४ में अंग्रेजों ने दिग पर हमला कर दिया। इस युद्ध में भरतपुर के महाराज रंजित सिंह के साथ मिलकर यशवंतराव ने अंग्रेजों को पुनः एक बार हराकर भगा दिया। कहा जाता है कि उन्होंने ३०० गोरों की नाक ही काट डाली थी। मगर पता नहीं क्यूं, अचानक रंजित सिंह ने भी यशवंतराव का साथ छोड़ दिया और अंग्रजों से जाकर हाथ मिला लिया। इसके बाद भी अंग्रेज यशवंतराव से इतना घबराए हुए थे कि उन्होंने यह फैसला किया कि यशवंतराव के साथ संधि से ही बात संभल सकती है। इसलिए उनके साथ बिना शर्त संधि की जाए। उन्हें जो चाहिए दे दिया जाए। उनका जितना साम्राज्य है वह सब लौटा दिया जाए। परंतु इसके बाद भी यशवंतराव ने संधि से इंकार कर दिया।
वे एकबार फिर से सभी शासकों को एकजुट करने में जुटे गए। अंत में जब उन्हें सफलता हांथ नहीं लगी तब उन्होंने दूसरी चाल से अंग्रेजों को मात देने की सोची। इसके लिए उन्होंने एक तरफ १८०५ में अंग्रेजों के साथ संधि कर ली। जिससे अंग्रेजों ने उन्हें स्वतंत्र शासक मानकर उनके सारे क्षेत्र लौटा दिए। दूसरी तरफ उन्होंने सिंधिया के साथ मिलकर अंग्रेजों को खदेड़ने की एक योजना बनाई। उन्होंने इसके लिए सिंधिया को एक खत लिखा। लेकिन हरबार की तरह इसबार भी सिंधिया धोखेबाज निकला। उसने वह खत अंग्रेजों को दिखा दिया।
योजना को बिगड़ते देख यशवंतराव ने हल्ला बोल दिया और अंग्रेजों को अकेले दम पर मात देने की पूरी तैयारी में जुट गए। इसके लिए उन्होंने भानपुर में गोला बारूद का कारखाना खोला। इसबार उन्होंने अकेले दम पर अंग्रेजों को खदेड़ने की ठान ली थी। इसलिए वे दिन-रात मेहनत करने में जुट गए। लगातार मेहनत करने के कारण उनका स्वास्थ्य लगातार गिरने लगा। परंतु उन्होंने इस ओर ध्यान नहीं दिया, जिसकी वजह से २८ अक्टूबर, १८११ को मात्र ३५ वर्ष की अल्प आयु में वे स्वर्ग सिधार गए। इस तरह से एक महान शासक का अंत हो गया। एक ऐसे शासक का जिसपर अंग्रेज कभी अधिकार नहीं जमा सके। एक ऐसे शासक का जिन्होंने अपनी छोटी उम्र को जंग के मैदान में झोंक दिया। यदि भारतीय शासकों ने उनका साथ दिया होता तो शायद तस्वीर कुछ और होती, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और एक महान शासक चक्रवर्ती महाराजा यशवंतराव होलकर इतिहास के पन्नों में कहीं खो गया और खो गई उनकी बहादुरी, जो आज भी अनजान बनी हुई है।