मां घर की चूल्हा,चउकठ, चाकी, जाता सब थी…सांझ का दीया, सगुन, सेवा, त्याग, तपस्या सब थी…लोरी भी थी और प्यारी सी थाप भी थी…पूजा की थाली भी थी..मंत्रों का जाप भी थी..घर को जगमगाने वाली लालटेन की एक गुच्छ रौशनी भी थी…हम भाई-बहनों की बाई आंख की स्वस्थ रौशनी भी थी…बाबूजी तनख्वाह जरूर लाते थे लेकिन बरकत मां ही लाती थी…घरेलू उलझनों के बीच कभी तीरथ नहीं कर पाई…लेकिन बाबूजी के पांव दबाकर सब तीरथों का पुण्य कमा ली थी..जीवनभर खुद राई की तरह होते हुए भी पहाड़ जैसे दुखों से हार नहीं मानी…लेकिन घर में चूल्हा-चउकठ बंटते ही वह टूटकर एक-तिहाई रह गई…सभी रिश्ते संदर्भ बदलकर अपने-अपने रास्ते हो लिए…एक मां ही थी जो दिनोंदिन सिझती रही…बावजूद इसके वो जीवनभर जुड़छइयां में रखी पानी की गगरी की तरह हर पास आने वाले की हरारत मिटाती रही और कलेजे को ठंडक पहुंचाती रही…नदी की तरह अपना जल लुटाते-लुटाते कहां खो गई पता ही नहीं चला…अब तो चारों तरफ सिर्फ रेत ही रेत बिखरी मिलती है….