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संस्कृति; किसी समाज में गहराई तक व्याप्त गुणों के समग्र स्वरूप का नाम है, जो उस समाज के सोचने, विचारने, कार्य करने के स्वरूप में अन्तर्निहित होता है। इसे सरल भाषा में कहें तो यह एक सामूहिक पहचान और व्यवहार का एक तरीका है जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होता है। दूसरी तरह से कहें तो संस्कृति वह है जो हमें बताती है कि हम कौन हैं, हम कैसे कार्य करते हैं, और हम दुनिया को कैसे देखते हैं।

यह ‘कृ’ (करना) धातु से बना है, जो एक गतिशील अवधारणा भी है। यह समय के साथ बदलती और विकसित होती रहती है और एक समाज को परिभाषित करती है और उसके सदस्यों को एक साथ बांधने का भी काम करती है। संस्कृति में निम्नलिखित बिंदुओं को शामिल किया जा सकता है…

१. मान्यताएं: जैसे धार्मिक विश्वास, नैतिक सिद्धांत और सामाजिक मूल्य।

२. रीति-रिवाज: जैसे त्योहार, समारोह और पारंपरिक प्रथाएं।

३. कला: जैसे संगीत, नृत्य, साहित्य और दृश्य कला।

४. भाषा: जो विचारों और भावनाओं को व्यक्त करने का एक माध्यम है।

५. सामाजिक संरचना: जैसे परिवार, समुदाय और राजनीतिक संगठन।

हम इन्हीं बिंदुओं को आधार बनाकर भारतीय संस्कृति की विविधताओं पर चर्चा करेंगे, जो विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है। यह माना जाता है कि भारतीय संस्कृति यूनान, रोम, मिस्र, सुमेर और चीन की संस्कृतियों के समान ही प्राचीन है या फिर भारतीय विद्वानों के अनुसार भारतीय संस्कृति विश्व की सर्वाधिक प्राचीन संस्कृति है।

यह संपूर्ण विश्व में प्रसिद्ध है, जिसका मूल कारण है, इसके रीति-रिवाजों और परंपराओं की समृद्धि, इसकी विविधता और इसके त्यौहार। लेकिन हम शायद ही कभी इस बात पर विचार करते हैं कि यह खास क्यों है। भारतीय संस्कृति कई अनोखे रीति-रिवाजों और परंपराओं से भरी हुई है, जो बाहरी लोगों को दिलचस्प लग सकती हैं। इनमें से ज़्यादातर प्राचीन भारतीय शास्त्रों और ग्रंथों से उत्पन्न हुए हैं, जिन्होंने हज़ारों सालों से भारत में जीवन जीने के तरीके को निर्धारित किया है। हम यहां कुछ आकर्षक भारतीय संस्कृति, परंपराएं और रीति-रिवाजों पर चर्चा करेंगे…

१. धर्मग्रंथ – महाकाव्य: भारतीय साहित्य का इतिहास कविताओं, नाटकों, कहानियों और यहां तक कि स्वयं सहायता मार्गदर्शिकाओं के रूप में लिखे गए महान महाकाव्यों में पाया जा सकता है। सबसे प्रसिद्ध हिंदू महाकाव्य रामायण और महाभारत है। वेदव्यास रचित महाभारत, संस्कृत में लिखी गई सबसे लंबी कविता है। ये दोनों महाकाव्य त्याग, निष्ठा, भक्ति और सत्य के मानवीय मूल्यों को उजागर करने के लिए लिखे गए हैं। दोनों कहानियों का नैतिक मूल्य बुराई पर अच्छाई की जीत को दर्शाता है।

महाकाव्य विस्तृत कथा, वीर चरित्र, और महत्वपूर्ण घटनाओं का वर्णन करते हैं। यह आमतौर पर एक लंबी कविता होती है, जिसमें कई सर्ग (भाग) होते हैं। संस्कृत साहित्य में रामायण और महाभारत दो प्रमुख महाकाव्य हैं, इसके अलावा कुछ प्रमुख महाकाव्यों में हैं कालिदास रचित कुमारसंभव और रघुवंश। माघ द्वारा रचित शिशुपाल वध आदि।

“परायणो धर्मो न लभ्यते” (जो धर्म की पूरी तरह से आस्था रखते हैं, उन्हें कभी भी कोई भी संकट नहीं छू सकता।) – रामायण

 

२. धर्म और त्यौहार – हमेशा उत्सव का मौसम: अगर कहा जाए तो भारत त्यौहारों का देश है और यह इसलिए क्योंकि हमारे यहाँ विभिन्न धर्म, संप्रदाय और पंथ के लोग रहते हैं। हिंदू दिवाली, होली, मकर संक्रांति आदि त्यौहार मनाते हैं। जैन महावीर जयंती मनाते हैं, बौद्ध बुद्ध पूर्णिमा पर भगवान बुद्ध का जन्मोत्सव मनाते हैं। मुसलमान ईद मनाते हैं, ईसाई क्रिसमस और गुड फ्राइडे मनाते हैं, सिख बैसाखी और अपने गुरुओं के जन्मदिवस मनाते हैं। ईमानदारी से कहें तो इनकी संख्या अनंत है, परन्तु अधिकतर त्यौहार आज हमारी स्कूली किताब में छुट्टियों के रूप में ही रह गए हैं।

“धर्मो रक्षति रक्षिता” (धर्म उन लोगों की रक्षा करता है, जो धर्म की रक्षा करते हैं।) – महाभारत

 

३. प्रतीक – उपवास: उपवास हिंदू संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। उपवास या व्रत आपकी ईमानदारी और संकल्प को दर्शाने या देवी-देवताओं के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने का एक माध्यम है। पूरे देश में लोग विभिन्न धार्मिक अवसरों पर उपवास करते हैं। कुछ लोग सप्ताह के अलग-अलग दिनों में किसी विशेष दिन से जुड़े किसी विशेष देवता या देवी के लिए भी उपवास करते हैं। यह व्यापक रूप से माना जाता है कि ऐसा करने से आप अपने शरीर की एक बुनियादी ज़रूरत को पूरा नहीं कर पाते हैं और इस तरह, उपवास के दिन तक किए गए पापों को धोने के लिए खुद को दंडित करते हैं।

उपवास; स्वास्थ्य, अनुष्ठान, धार्मिक या नैतिक उद्देश्यों के लिए भोजन या पेय या दोनों से परहेज। परहेज़ पूर्ण या आंशिक, लंबा, कम अवधि का या रुक-रुक कर हो सकता है। यह एक अनुशासन है जिसमें हम भोजन जैसी किसी अच्छी चीज से दूर रहते हैं, ताकि हम अपने आध्यात्मिक जीवन पर ध्यान केंद्रित कर सकें और ईश्वर के नजदीक आ सकें। उपवास का मतलब ईश्वर की इच्छा करना है। उपवास करने का निर्णय अहंकार या कानूनवाद से प्रेरित नहीं होना चाहिए।

 

४. धार्मिक रीति-रिवाज – गाय, गीता और गंगा: भारतीय संस्कृति में गाय को पशु नहीं बल्कि माता माना गया है। उसी तरह गीता कोई पुस्तक नहीं बल्कि भारतीय संस्कृति की आत्मा है और गंगा धार्मिक दृष्टि से पापों का नाश कर मोक्ष देने वाली मंगलकारी और सुख समृद्धि देने वाली, कामनाओं को पूरा करने वाली देवी हैं। इन तीनों को मातृ स्वरूप के रूप में पूजा जाता है, ये तीनों ही धरती माता के कृपा के प्रतीक हैं।

क) गाय: भगवान श्रीकृष्ण, जो एक गाय चराने वाले चरवाहे के रूप में बड़े हुए, को अक्सर गायों के मध्य बांसुरी बजाते और गोपियों को उनकी धुन पर नाचते हुए दिखाया जाता है। दिलचस्प बात यह है कि भगवान श्रीकृष्ण को ‘गोविंदा’ या ‘गोपाल’ के नाम से भी जाना जाता है, जिसका अर्थ है ‘गाय का मित्र, पालक और रक्षक’। इसलिए, भारतीय संस्कृति और धर्म में गाय महत्व उच्चतम है।

वैदिक शास्त्रों ने विभिन्न श्लोकों में गायों की रक्षा और देखभाल की आवश्यकता पर जोर दिया है। गाय का दूध अमृत के समान होता है। यही नहीं गाय का गोबर भी ईंधन का एक आवश्यक और ऊर्जा-कुशल स्रोत है, खासकर ग्रामीण भारत में। गाय को मारना या गाय का मांस खाना पाप माना जाता है। इसलिए, भारत के कई राज्यों ने कानून बनाकर गायों के वध पर प्रतिबंध लगा दिया है। हालाँकि, गाय माता की पूजा अन्य देवताओं की तरह नहीं की जाती है।

ख) गीता: गीता का उद्देश्य ही परमात्मा के ज्ञान, आत्मा के ज्ञान और सृष्टि विधान के ज्ञान को स्पष्ट करना है। गीता वास्तव में चरित्र निर्माण का सबसे बड़ा और उत्तम शास्त्र है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि मनुष्य को फल की इच्छा छोड़कर कर्म पर ध्यान देना चाहिए, क्योंकि मनुष्य जैसा कर्म करता है, उसे फल भी उसी के अनुरूप मिलता है। इसीलिए कर्मयोगी को कभी भी फल की चिंता नहीं करनी चाहिए।

“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥”– भगवद गीता २.४७

ग़) गंगा: गंगा नदी को सदियों से माँ का दर्जा दिया गया है, जो अपनी निर्मल धारा से जीवनदायिनी ऊर्जा और मोक्ष का आशीर्वाद प्रदान करती है। गंगा स्नान का महत्व केवल धार्मिक कर्मकांडों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह आत्मा को शुद्ध करने, पापों से मुक्ति पाने और नई ऊर्जा से भरने का अवसर भी देता है।

 

५. पारिवारिक संरचना – संयुक्त परिवार: भारत में संयुक्त परिवार की अवधारणा मौजूद है, जिसमें पूरा परिवार (माता-पिता, पत्नी, बच्चे और कुछ मामलों में रिश्तेदार जैसे; भैया भाभी, चाचा चाची और उनके बच्चे आदि।) सभी एक साथ रहते हैं। यह मुख्य रूप से भारतीय समाज की एकजुट प्रकृति के कारण है, और कथित तौर पर दबाव और तनाव से निपटने में भी मदद करता है।

 

६. अभिवादन – नमस्ते: नमस्ते सबसे लोकप्रिय भारतीय रीति-रिवाजों में से एक है और अब यह केवल भारतीय क्षेत्र तक ही सीमित नहीं है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा को विभिन्न अवसरों पर ऐसा करते हुए देखा गया है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने भी पहले अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर न्यूयॉर्क के टाइम्स स्क्वायर में सभी को नमस्ते के साथ अभिवादन किया था।

नमस्ते, या नमस्कार प्राचीन हिंदू शास्त्रों, वेदों में वर्णित पारंपरिक अभिवादन के पाँच रूपों में से एक है। इसका अनुवाद ‘मैं आपको नमन करता हूं’ होता है, और इसके साथ एक-दूसरे का अभिवादन करना ‘हमारे मन मिलें’ कहने का एक तरीका है, जिसे छाती के सामने रखी गई मुड़ी हुई हथेलियों से दर्शाया जाता है। नमः शब्द का अनुवाद ‘न मा’ (मेरा नहीं) के रूप में भी किया जा सकता है, जो दूसरे की उपस्थिति में अपने अहंकार को कम करने को दर्शाता है।

अभिवादन शीलस्य, नित्यं वृद्धोपसेविनः।

चत्वारि तस्य वर्धन्ते, आयुर्विद्या यशो बलम्।।

 

७. विवाह – व्यवस्थित विवाह प्रणाली: भारत में अरेंज मैरिज (“व्यवस्था विवाह” या “पसंद का विवाह”) की अवधारणा वैदिक काल से ही चली आ रही है। शाही परिवारों में दुल्हन के लिए स्वयंवर’ नामक समारोह का आयोजन किया जाता था। पूरे राज्य से उपयुक्त पात्र को आमंत्रित किया जाता था, ताकि वे दुल्हन को जीतने के लिए किसी प्रतियोगिता में भाग ले सकें या दुल्हन खुद ही अपना आदर्श पति चुन सके। आज भी, अरेंज मैरिज की अवधारणा भारतीयों के बीच पसंदीदा बनी हुई है और ‘भारतीय परंपराओं’ का एक अभिन्न अंग है।

आज के परिप्रेक्ष्य में कहें तो अरेंज मैरिज एक ऐसा विवाह है, जिसमें परिवार या अभिभावक दूल्हा-दुल्हन का चयन करते हैं और शादी की व्यवस्था करते हैं, और जिसमें दूल्हा-दुल्हन की भूमिका सीमित या गैर-मौजूद होती है। इस विवाह प्रणाली में दो परिवारों के साथ पूरा समाज अपनी भूमिका निभाता है।

ॐ सह नाववतु।

सह नौ भुनक्तु।

सह वीर्यं करवावहै।

तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।।

 

८. वास्तुकला – मंदिरों के पीछे का विज्ञान: ज़्यादातर मंदिर पृथ्वी की चुंबकीय तरंग रेखाओं के साथ स्थित होते हैं, जो उपलब्ध सकारात्मक ऊर्जा को अधिकतम करने में मदद करते हैं। मुख्य मूर्ति के नीचे दबी तांबे की प्लेट (जिसे गर्भगृह या मूलस्थान कहा जाता है) इस ऊर्जा को अवशोषित करती है और अपने आस-पास के वातावरण में प्रतिध्वनित करती है। मंदिर जाने से अक्सर सकारात्मक मन रखने और सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त करने में मदद मिलती है।

पूजा स्थलों में प्रवेश करने से पहले जूते-चप्पल उतारने की भी प्रथा है, क्योंकि ऐसा करने से स्वच्छ एवं पवित्र वातावरण में गंदगी आ जाती है।

 

९. धार्मिक प्रतीक स्वस्तिक – प्राचीन भारतीय: भारतीय परंपराओं और शास्त्रों में कई तरह के संकेत और प्रतीक हैं जिनके कई अर्थ हैं। उदाहरण के लिए, भारतीय संदर्भ में स्वस्तिक भगवान गणेश का प्रतीक है, जो बाधाओं को दूर करते हैं। स्वस्तिक की भुजाओं के कई अर्थ हैं। वे चारों वेद, चारों नक्षत्र या मानव खोज के चार प्राथमिक उद्देश्यों को दर्शाते हैं।

ॐ स्वस्ति न इंद्रो वृद्ध-श्रवा-हा स्वस्ति न-ह पूषा विश्व-वेदा-हा।

स्वस्ति न-ह ताक्षर्‌यो अरिष्ट-नेमि-हि स्वस्ति नो बृहस्पति-हि-दधातु॥

 

१०. परंपराएं एवं रीति-रिवाज – अतिथि देवो भवः: भारत में ‘अतिथि देवो भवः’ की भावना कहावत भी अभिन्न है। इसका मतलब है ‘अतिथि भगवान के बराबर है’। यह धर्मग्रंथों से लिया गया एक संस्कृत श्लोक है, जो बाद में हिंदू समाज की आचार संहिता का हिस्सा बन गया क्योंकि भारतीय संस्कृति में अतिथि का हमेशा सर्वोच्च महत्व रहा है। अतिथि देवो भव का पूरा श्लोक है…

मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव, अतिथि देवो भव।

इसका अर्थ है: अपनी माता को देवता मानो, अपने पिता को देवता मानो, अपने गुरु को देवता मानो, और अपने अतिथि को भी देवता मानो।

 

११. भारतीय परिधान: भारतीय महिलाओं को अक्सर ‘साड़ी’ पहने देखा जाता है, जिसे ग्रामीण महिलाएं आज भी ’लूगा’ कहती हैं। साड़ी एक ही कपड़े से बनी होती है और इसे सिलने की ज़रूरत भी नहीं होती; इसे बनाना आसान है और पहनने में ये बेहद आरामदायक होती है, साथ ही यह धार्मिक शिष्टाचार का भी पालन करती है। इसकी शुरुआत हिंदू परंपरा के रूप में हुई थी, लेकिन यह बहुत ही खूबसूरती से सभी धर्मों में फैल गई। यही बात ज़्यादा कार्यात्मक ‘कुर्ता-धोती’ और सभी धर्मों के भारतीय पुरुषों के लिए ‘शेरवानी’ के औपचारिक परिधान पर भी लागू होती है।

 

१२. भारतीय नृत्य: भारत ‘विविधता में एकता’ का देश है, और हमारे नृत्य भी इससे अलग नहीं हैं। नृत्य के विभिन्न रूप (लोक या शास्त्रीय के रूप में वर्गीकृत) देश के विभिन्न भागों से उत्पन्न होते हैं, और वे उस विशेष संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने का एक तरीका है, जहाँ से वे उत्पन्न होते हैं। आठ शास्त्रीय नृत्य, जिन्हें भारतीय शास्त्रीय नृत्यों के रूप में वर्गीकृत किया गया है और हिंदू संस्कृत ग्रंथ ‘नाट्यशास्त्र’ (प्रदर्शन कलाओं का एक ग्रंथ) में उल्लेख मिलता है…

१) तमिलनाडु से भरतनाट्यम

२) केरल से कथकली

३) उत्तर, पश्चिम और मध्य भारत से कत्थक

४) केरल से मोहिनीअट्टम

५) आंध्रप्रदेश से कुचिपुड़ी

६) ओडिसा से ओडिसी

७) मणिपुर से मणिपुरी

८) असम से सत्रिया

ऊपर बताए गए सभी नृत्य रूप एक संपूर्ण नृत्य नाटिका हैं, जिसमें एक नर्तक या कलाकार लगभग पूरी तरह से और विशेष रूप से इशारों के माध्यम से एक पूरी कहानी सुनाता है। ऐसी कहानियां ज्यादातर विशाल भारतीय पौराणिक कथाओं पर आधारित होती हैं। भारत में शास्त्रीय नृत्यों को नाट्यशास्त्र में निर्धारित नियमों और दिशा-निर्देशों के अनुसार सख्ती से वर्गीकृत और प्रस्तुत किया जाता है। शास्त्रीय नृत्यों की तरह ही, भारत में लोक नृत्य भी देश के विभिन्न क्षेत्रों से उत्पन्न होते हैं। ये प्रदर्शन ज़्यादातर कहानियों पर आधारित होते हैं जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक मौखिक रूप से पारित की जाती हैं।

लोक नृत्य मुख्य रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में अपना महत्व रखते हैं, जहां प्रदर्शन ग्रामीण निवासियों के दिन-प्रतिदिन के जीवन को दर्शाते हैं। जैसे; बिहार में कई प्रसिद्ध लोक नृत्य हैं, जिनमें जाट-जाटिन, बखो-बखैन, पनवारिया, सामा चकवा, और बिदेसिया प्रमुख हैं. ये नृत्य बिहार की संस्कृति और परंपराओं का अभिन्न हिस्सा हैं।

 

१३. भोजन: भारतीय भोजन और पाक कला न केवल भारत की संस्कृति का अभिन्न अंग है, बल्कि दुनिया भर में भारत की लोकप्रियता के महत्वपूर्ण कारकों में से भी एक है। खाना पकाने की शैली एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में भिन्न होती है, हालांकि सर्वसम्मति से, भारतीय भोजन मसालों और जड़ी-बूटियों के व्यापक उपयोग के लिए जाना जाता है। नृत्य, धार्मिक प्रथाओं, भाषा और नृत्य की तरह भोजन की भी एक विस्तृत विविधता पूरे देश में मिलेगी। भारत का हर एक क्षेत्र अपने विशिष्ट व्यंजन या सामग्री के लिए जाना जाता है, मगर बिहार के व्यंजनों की बात ही निराली है। एक बात जो इसके के खाने को महत्वपूर्ण बनाती है वो है, उसके दूध से बने व्यंजन, जिसकी पुष्टि एक कहावत करती है…

‘आदि घी अंत दही ओहि भोजन के भोजन कही’

अर्थात; भोजन के शुरुआत में घी और अंत में दही, यह है भोजन को सही क्रम। हालांकि, पूरे देश में मुख्य भोजन के तौर पर ज्यादातर चावल, गेहूं और चना शामिल है। शाकाहारी भोजन गुजराती, दक्षिण भारतीय और राजस्थानी व्यंजनों का एक अभिन्न अंग है। मांसाहारी व्यंजन मुगलई, बंगाली, उत्तर भारतीय और पंजाबी व्यंजनों का केंद्रीय हिस्सा हैं। यह भी ध्यान रखना दिलचस्प है कि कश्मीर सहित देश के विशिष्ट व्यंजन मध्य एशिया, फारस और अफगानिस्तान आदि देशों में प्रसिद्ध हुए हैं।

 

१४. हाथों से खाना: आज के परिप्रेक्ष्य में कहा जाए या फिर पश्चिमी देशों की नकल हाथ से खाना खाने की बात लोगों को अच्छी नहीं लगती। हालाँकि, भारतीय साहित्य में हाथ से किए गए भोजन के कई फायदे बताए गए हैं, जैसे ; हाथ से खाना खाने से लोगों में भोजन को अच्छी तरह से चबाने की आदत विकसित होती है, जिससे पाचन क्रिया में सुधार होता है और पाचनतंत्र मजबूत बनता है। हाथ की उंगलियों से भोजन को छूने से मस्तिष्क को मिलने वाले संकेत पाचन एंजाइम्स को सक्रिय करते हैं। उंगलियां गर्मी को ग्रहण करती हैं, इसलिए जब गर्म खाना खाते हैं तो वे मुख को जलने से बचाती हैं।

परंपरागत रूप से, खाने के लिए दायां हाथ इस्तेमाल किया जाता है और बायां हाथ गंदा माना जाता है। बाएं हाथ से भोजन करना यानि नकारात्मक ऊर्जा को ग्रहण करना माना गया है। परम्परागत रूप से, बाएं हाथ का इस्तेमाल शरीर की गंदगी साफ करने के लिए होता है, जैसे कि शौच के दौरान। हाथ से भोजन करना भारत में एक व्यापक प्रथा है, लेकिन पश्चिम सभ्यता इसे धीरे धीरे दुर्लभ करती जा रही है।

 

१५. भारतीय मार्शल आर्ट: भारत में मार्शल आर्ट की कई अनूठी शैलियां प्राचीन काल से ही रही हैं। जहां कुछ मार्शल आर्ट ऐसे हैं, जिनमें हथियारों का इस्तेमाल करना पड़ता है, वहीं कुछ ऐसी भी कला हैं, जिनके लिए किसी भी तरह के हथिया की कोई भूमिका नहीं है। कुछ ऐसे भी युद्ध कौशल हैं जिनका इस्तेमाल उपचार के लिए भी किया जाता है। आज के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो, ये मार्शल आर्ट आत्मरक्षा तकनीकों सहित फिटनेस के लिए भी लोकप्रिय हैं।

भारत में प्राचीन काल से, विभिन्न प्रकार की मार्शल आर्ट शैलियों का विकास हुआ है, जिनमें से प्रत्येक की अपनी विशिष्ट विशेषताएं और तकनीकें हैं। इनमें से कुछ प्रमुख भारतीय मार्शल आर्ट हैं…

क) कलारीपायट्टू: यह केरल में उत्पन्न होने वाली सबसे पुरानी युद्ध कौशलों में से एक है, जिसका इतिहास तीन हजार वर्ष से भी अधिक पुराना माना जाता है।

ख) थांग-ता: मणिपुर में उत्पन्न, यह एक सशस्त्र मार्शल आर्ट है जिसमें तलवार और भाले का उपयोग किया जाता है।

ग़) सिलंबम: यह तमिलनाडु में प्रचलित एक लाठी-आधारित मार्शल आर्ट है।

घ) वर्मा कलाई: तमिलनाडु में ही विकसित, यह शरीर के महत्वपूर्ण बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित करने वाली एक मार्शल आर्ट है।

ड.) मुष्टियुद्ध: यह युद्ध कला वाराणसी में उत्पन्न एक निहत्थे मार्शल आर्ट है, जिसमें किक, घूंसे, घुटने और कोहनी के हमलों का उपयोग किया जाता है।

युद्ध कौशलों का उल्लेख वैदिक साहित्य और महाकाव्यों जैसे महाभारत और रामायण में भी मिलता है। प्राचीन भारत में, मार्शल आर्ट का अभ्यास योद्धाओं और क्षत्रियों द्वारा किया जाता था, और इसे युद्ध और आत्म-रक्षा के लिए एक आवश्यक कौशल माना जाता था।

 

१६. भाषाएँ: भारत सामाजिक, सांस्कृतिक और भाषाई रूप से बहुत ही समृद्ध है। हिंदी और अंग्रेजी व्यापक रूप से बोली जाती हैं और आधिकारिक उद्देश्यों के लिए मान्यता प्राप्त हैं, परन्तु भारत में हजारों परंपराएं और संस्कृतियां हैं, और उनमें से कुछ ऐसी हैं जो बाहरी लोगों को काफी उत्सुक करती हैं और भाषा उनमें से एक है। अगर गौर किया जाए तो भारतीय भाषाओं का इतिहास बहुत समृद्ध और प्राचीन है। हिंदी, भारत की सबसे व्यापक रूप से बोली जाने वाली भाषा है, और इसका इतिहास लगभग हजार वर्ष पुराना माना जाता है। हिंदी का विकास संस्कृत से हुआ है और यह विभिन्न कालखंडों में विकसित होती रही है, जिसमें प्राकृत और अपभ्रंश जैसी भाषाओं का भी योगदान रहा है।

इसके अलावा, भारत के संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त २२ अनुसूचित भाषाएं हैं। हालांकि, भारत में ४०० से अधिक भाषाएं और बोलियां अभी भी अज्ञात हैं। किसी भी राज्य में कुछ किलोमीटर की यात्रा के साथ ही बोलियां बदल जाती हैं। पिछले कुछ वर्षों में, वक्ताओं के अभाव में लगभग १९० बोलियां लुप्तप्राय हो गई हैं।

क) प्राचीन काल: संस्कृत को सभी भारतीय भाषाओं की जननी माना जाता है। प्राचीन भारत में, संस्कृत के बाद पाली और प्राकृत भाषाओं का विकास हुआ।

ख) मध्यकाल: अपभ्रंश, प्राकृत भाषाओं के बाद की अवस्था थी और इसने आधुनिक भारतीय भाषाओं के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस काल में, हिंदी, ब्रज, अवधी और अन्य लोक भाषाएँ विकसित हुईं।

ग़) आधुनिक काल: १९वीं और २०वीं शताब्दी में, हिंदी का आधुनिक रूप विकसित हुआ, जिसे साहित्य, पत्रकारिता और प्रशासन के लिए अपनाया गया।

 

१७. दर्शन: भारतीय दर्शन का पूरे विश्व, विशेषकर पूर्व के देशों पर काफी प्रभाव पड़ा है। वैदिक काल के बाद, पिछले ढाई हजार वर्षों में दर्शन के कई विभिन्न अनुवाई वर्ग सनातन से जैसे कि हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म के कई सम्प्रदाय विकसित हुए हैं, जिसने तर्कवाद, बुद्धिवाद, विज्ञान, गणित, भौतिकवाद, नास्तिकता, अज्ञेयवाद आदि की कुछ सबसे पुरानी और सबसे प्रभावशाली धर्मनिरपेक्ष परम्पराओं को जन्म दिया है, जो कई बार इस वजह से अनदेखी कर दी जाती है, क्योंकि भारत सहित भारत के बाहर के देशों में एक लोकप्रिय धारणा है कि भारत एक ‘रहस्यमय’ देश है, और उस रहस्य को सुलझाने की हिम्मत किसी में भी नहीं है।

प्राचीन काल से ही भारत में दर्शन को दिए जाने वाले महत्त्व के अतिरिक्त, आधुनिक भारत में भी कुछ प्रभावशाली दार्शनिकों ने जन्म लिया, जिन्होंने राष्ट्रीय भाषा के साथ साथ अंग्रेजी में भी दर्शन को लिखा है। भारत को ब्रिटिशों द्वारा उपनिवेश बनाए जाने के दौरान, भारत के कुछ धार्मिक विचारकों ने विश्व भर में उतनी ही ख्याति अर्जित की जितनी की प्राचीन भारतीय ग्रंथों ने। उनमें से कुछ के कार्य को अंग्रेजी, जर्मन और अन्य भाषाओं में अनुवादित किया गया। स्वामी विवेकानंद अमेरिका गए और वहां उन्होंने विश्व धर्म संसद में हिस्सा लिया, उनके अत्यंत प्रभावशाली वक्तव्य ने सबको प्रभावित किया, वहां उपस्थित विश्व के सभी प्रतिनिधियों के लिए ये हिन्दू दर्शन से पहला साक्षात्कार था।

 

और अंत में…

भारतीय संस्कृति का लोकाचार हिंदू धर्म के सिद्धांतों और इसके सह-अस्तित्व और वसुधैव कुटुंबकम के मूल दर्शन के साथ जुड़ा हुआ है। हिंदू धर्म ने वह आधार प्रदान किया है जिस पर समय के साथ विभिन्न उप-संस्कृतियाँ उभरीं और विकसित हुईं, जिन्होंने भारतीय सांस्कृतिक विरासत की समृद्ध छवि में योगदान दिया। पूरे इतिहास में, भारत की संस्कृति को आक्रमणकारियों और उपनिवेशवादियों से चुनौतियों का सामना करना पड़ा है, जिनका उद्देश्य इसके सांस्कृतिक ताने-बाने को खत्म करना है, जबकि भारतीय संस्कृति और उसकी सभ्यता ना तो कभी समाप्त हुई है और ना ही कभी किसी आक्रमणकारी अथवा षडयंत्रकारी द्वारा समाप्त होगी, इसके लिए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में स्वयं अपने श्रीमुख से कहा है…

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे

 

विद्यावाचस्पति अश्विनी राय ‘अरुण’

जिला महामंत्री

अखिल भारतीय साहित्य परिषद, बक्सर (बिहार)

मो: ९१५५७४५८५९

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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