फिल्म : चेहरे
समीक्षक : अश्विनी राय ‘अरूण’
शीर्षक : चेहरे के पीछे कौन है ?
‘चेहरे’ एक कोर्ट रूम ड्रामा सिनेमा है और इसमें थ्रिलर के तत्व को भी पिरोया गया है।
कलाकार : अमिताभ बच्चन, अनु कपूर, रघुवीर यादव, इमरान हाशमी, रिया चक्रवर्ती, क्रिस्टील डिसूजा, धृतिमान चटर्जी आदि मुख्य कलाकार है।
निर्माता : आनंद पंडित
निर्देशक : रूमी जाफरी
कहानीकार : रंजीत कपूर
हम अपनी बात रंजीत कपूर से करते हैं। यह फिल्म उनकी ही लिखी हुई है। हालांकि फिल्म में इसका उल्लेख नहीं है लेकिन ये उनके निर्देशन में कुछ साल पहले हुए नाटक ‘रांग टर्न’ का फिल्मीकरण है। वैसे तो इस फिल्म के बड़े किरदार के रूप में अमिताभ बच्चन हैं और साथ में लवर बॉय इमरान हाशमी भी, मगर लोगों को इस फिल्म का इंतजार रिया चक्रवर्ती की वजह से था जिनका नाम सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमयी मौत के बाद लंबे अरसे तक सुर्खियों में बना हुआ था। लेकिन फिल्म में उनका किरदार क्या है यह कहना बड़ा मुश्किल है। शुरू से लेकर आखिर तक उन्हें रहस्यमई बनाने की कोशिश की गई मगर जब पर्दा उठा तो घिसे हुए विषय पर। इसे इस तरह हम समझ सकते हैं कि नउन्हें जिस रहस्यपूर्ण लड़की का किरदार निभाया है वो कुछ अनगढ़ पहेली की तरह हो गया है।
फिल्म समीर (इमरान हाशमी) नाम के विज्ञापन कंपनी के अधिकारी के मौसमी संकट से शुरू होती है जो एक ठंडी बर्फीली रात में बियावान में फंस गया है। एक पेड़ गिरने से रास्ता जाम हो गया है। जिस घर में वो शरण लेता है वो एक रिटायर जज का है जहां दो वकील और तीन और लोग मिलकर एक नकली अदालत लगाते हैं। इसमें अपराधियों को सजा भी होती है। ये एक खेल है जिसमें आनाकानी करने के बाद समीर भी शामिल हो जाता है और उस पर मुकदमा चलता है। आखिर में वकीलों की बहसबाजी के बाद फैसला आता है कि उसने एक जुर्म किया है। क्या है ये जुर्म और समीर को क्या सजा मिलती है इसी पर पूरी फिल्म टिकी है।
‘चेहरे’ एक कोर्ट रूम ड्रामा है और इसमें थ्रिलर के तत्व भी पिरोने की कोशिश की गई है। फिल्म पूरी तरह से अमिताभ बच्चन के उस कौशल पर टिकी है जो उन्होंने लतीफ जैदी नाम के एक फौजदारी के वकील के रूप में निभाई है और जो अदालत में मुजरिम पर संगीन आरोप लगाता है। वकील के रूप में वे कभी हंसते-हंसाते तो कभी तीखी नजर से देखते हुए जिस अंदाज में मुकदमे को मंजिल की तरफ ले जाते हैं उसमें ससपेंस भी है और नाटकीयता भी।
अनु कपूर बचाव पक्ष के वकील बने हैं जो पूरे माहौल को हल्का फुल्का बनाए रखते हैं, मगर फिल्म में साफ दिखता है कि उनके डायलॉग जान बूझ कर हल्के किए गए हैं, जिससे अमिताभ प्रभावी नजर आएं। साथ ही रघुवीर यादव जैसे मजे हुए कलाकार के लिए जैसे फिल्म में कोई काम ही नहीं है, बस उनके नाम और चेहरे को शोपीस की तरह फिल्म में सजाया है। फिल्म में क्रिस्टील डिसूजा एक धनी आदमी की बीवी के रूप में हैं जो अपने शौहर से किसी बात पर नाराज हैं अथवा कुछ और हैं। फिल्म के अंत में अमिताभ बच्चन का एक लंबा और बोरिंग न्यूज एंकर अथवा सामाजिक कार्यकर्ता वाला डायलॉग है।
बस अब क्या लिखूं, आप चाहें तो फिल्म देख सकते हैं अथवा ना मन हो तो कोई बात नहीं। आप कुछ खास खोने वाले नहीं हैं। कोर्ट रूम ड्रामा सही रूप से उभर नहीं पाया है और ना ही सस्पेंस ही। बस दोनों को जोड़ दिया जाए तो टाइम पास के लिए देख सकते हैं।